छात्र-छात्राओं से सीधे संवाद के माध्यम से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिक्षक दिवस को नया अर्थ दिया है। महज औपचारिकता बन चुके इस दिन को उन्होंने एक प्रेरणादायक अवसर में बदल दिया, जिसका सकारात्मक प्रभाव न सिर्फ विद्यालयों के छात्रों, बल्कि शिक्षकों व अभिभावकों पर भी पड़ेगा। मोदी ने बच्चों से कहा कि वे उन आंखों से संवाद कर रहे हैं जिनमें भावी भारत के सपनों का वास है। बिना किसी आदर्शवाद के बोझ के प्रधानमंत्री ने बच्चों को कौशल बढ़ाने, महान लोगों की जीवनियां पढ़ने, स्वच्छता का ध्यान रखने और खेलने-कूदने के महत्व को समझाया और राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण की ओर अग्रसर होने के लिए प्रेरित किया। बच्चों के प्रश्नों का उत्तर देते हुए उन्होंने अपनी दृष्टि को भी बड़ी सहजता से प्रस्तुत किया। भारत की भावी पीढ़ी से प्रधानमंत्री की यह संवादधर्मिता एक सराहनीय पहल है। उम्मीद है कि न सिर्फ मोदी, बल्कि अन्य राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी भी उनके इस पहल को विस्तार देंगे। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ऐसे नाम हैं, जो बच्चों के साथ जीवंत व निरंतर संवाद किया करते थे। मोदी की पहल को इसी कड़ी में देखा जाना चाहिए। पंडित नेहरू की तरह नरेंद्र मोदी ने भी बच्चों को प्रकृति और जीवन के प्रति अधिक संवेदनशील होने का संदेश दिया। उनके संबोधन और बच्चों के प्रश्नों के उनके उत्तर पर बहस हो रही है और होनी भी चाहिए, लेकिन इस संवाद का सबसे महत्वपूर्ण पहलू देश के प्रधानमंत्री द्वारा बच्चों को अपने विचारों से अवगत कराने और उन्हें देश-निर्माण की प्रक्रिया में भूमिका निभाने के आमंत्रण में है। यह स्पष्ट संकेत है कि प्रधानमंत्री के लिए बच्चे उतने ही महत्वपूर्ण हैं, जितना समाज का कोई अन्य हिस्सा। इस संवाद-प्रक्रिया में वे प्रधानमंत्री, शिक्षक व अभिभावक के रूप में तो दिखे ही, साथ ही बच्चों के मित्र के रूप में भी दिखे। आज बच्चों पर प्रतिस्पर्धा का दबाव इतना अधिक है कि संभावनाओं व संसाधनों के बावजूद उनके व्यक्तित्व का अपेक्षित विकास नहीं हो पाता। मोदी ने उन्हें इस दुष्चक्र से बाहर निकालने की एक प्रारंभिक कोशिश की है, जिसे आगे ले जाने की जिम्मेवारी सिर्फ उनकी नहीं, समाज की भी है।
Saturday 6 September 2014
Wednesday 30 July 2014
किसान को लागत की तुलना में उत्पाद का लाभकारी मूल्य मिले
देश में जीविका के लिए खेती पर निर्भर आबादी अब भी 50 फीसदी से ज्यादा है, लेकिन सकल घरेलू उत्पादन में कृषि और उससे जुड़े उपक्षेत्रों का योगदान पिछले 25 सालों से लगातार घटते हुए दस फीसदी के आसपास रह गया है। इसका सीधा अर्थ यह है कि जीविका के लिए खेती पर निर्भर लोगों की आमदनी अन्य क्षेत्रों से जुड़े लोगों की तुलना में नहीं बढ़ रही है। लिहाजा, खेती के विकास के लिए बनने वाले किसी भी रोडमैप का मूल्यांकन करते हुए यह देखा जाना चाहिए कि वह देश की खेतिहर आबादी की घटती आमदनी का समाधान किस सीमा तक कर पाता है। यानी कृषि के विकास का रोडमैप इस प्राथमिकता के साथ बनाया जाना चाहिए कि किसान को अपने लागत की तुलना में उत्पाद का लाभकारी मूल्य मिले। 16वीं लोकसभा के चुनाव-प्रचार के अंतिम दौर में भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी ने कहा था कि मैं किसानों की जेब हरे-हरे नोटों से भर देना चाहता हूं। जाहिर है, मोदी के पीएम बनने पर खेतिहर आबादी ने उनसे ऐसी ही उम्मीद बांधी होगी। लेकिन, नयी सरकार के गठन के दो महीने बाद खेती-बाड़ी के विकास के लिए नरेंद्र मोदी का जो रोडमैप सार्वजनिक रूप से सामने आया है, पहली नजर में वह पुरानी प्राथमिकताओं को ही एक नयी भाषा में प्रस्तुत करता जान पड़ता है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के समारोह में प्रधानमंत्री ने कृषि-क्षेत्र के विकास के लिए जो विचार रखे हैं, उसमें पूर्ववर्ती सरकार की ही तरह उत्पादन बढ़ाने पर जोर है। यूपीए सरकार भी अपने आखिरी दिनों में कह रही थी कि देश की खेती को दूसरी हरित क्रांति की जरूरत है और इसी के अनुरूप खेती को वैज्ञानिक तरीके से समुन्नत तथा निर्यातोन्मुखी बनाना होगा। अब मोदी ने भी कमोबेश यही प्राथमिकता दोहरायी है। हमें ध्यान रखना होगा कि कृषि उत्पादन के मामले में भारत एक समुन्नत स्थिति में पहुंच चुका है। हाल के वर्षो में अनाज के गोदाम लगातार भरे रहे हैं। बड़ी जरूरत खेती के विविधीकरण, उत्पादों के उचित भंडारण, मूल्य-निर्धारण और संरक्षित बाजार तैयार करने की है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मोदी सरकार की नजर कृषि अर्थव्यवस्था के इन उपेक्षित दायरों पर भी जायेगी और वह दूरगामी सोच के साथ एक समग्र नीति तैयार करेगी।
Sunday 27 July 2014
यूपी में दंगों के पीछे कहीं सोची समझी साजिश तो नहीं
आखिर क्या बात है कि उत्तर प्रदेश बार-बार दंगों की चपेट में आ रहा है। जिस प्रदेश के लोगों ने अपना सबकुछ खोकर अमन का पैगाम दिया है, उसे प्रदेश के चुनिंदा शहरों में हो रहे दंगे क्या किसी सोची समझी साजिश का परिणाम नहीं दिखाई देते। आखिर राज्य सरकार इन दंगों पर काबू क्यों नहीं पा पाती। इन दंगों के बारे में राज्य सरकार की खुफिया इकाईयों को भनक तक नहीं लग पाती। ऐसा क्या हो गया है। अखिलेश सरकार की प्रशासनिक मशीनरी को। उत्तर प्रदेश के इतिहास में सबसे युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का कार्यकाल अभी ढाई साल भी पूरा नहीं हुआ है। अगर हम कुछ प्रमुख घटनाओं पर नजर डालें तो अयोध्या, बरेली, शाहजहांपुर, मुजफ्फरनगर, गौतमबुद्धनगर, प्रतापगढ़, मुरादाबाद के बाद अब सहारनपुर में लोग साम्पद्रायिक दंगे की आग में झुलस रहे हैं। घटनाएं कब और कैसे घटीं, जरा इस पर भी नजर डालें। अयोध्या में दुर्गा पूजा की प्रतिमा विसर्जन के दौरान साम्प्रदायिक दंगा हुआ। बरेली में मंदिर में लाउडस्पीकर बजाने को लेकर दो समुदायों के बीच विवाद हुआ। मुजफ्फरनगर में बालिका से छेड़खानी की घटना को लेकर विवाद हुआ। शाहजहांपुर और प्रतापगढ़ में भी छेड़छाड़ की घटनाएं ही प्रमुख कारण रहीं। गौतमबुद्धनगर में धार्मिक स्थल के निर्माण को लेकर और मुरादाबाद में मंदिर में लाउडस्पीकर लगाने को लेकर विवाद होने की बात सामने आयी है। सहारनपुर में भी एक धार्मिक स्थल के निर्माण को लेकर साम्पद्रायिक दंगा होने का मामला सामने आया है। इन सभी घटनाओं की पृष्ठभूमि पर अवलोकन करें तो साफ है कि इन मामलों को समुदाय विशेष के लोगों से कोई खास वास्ता नहीं रहा। अगर प्रशासन निष्पक्ष और निर्भीक ढंग से दोषी लोगों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई कर देता तो शायद समुदाय के लोगों की भावना न भड़कती। प्रशासनिक अधिकारी ऐसा क्यों नहीं कर रहे हैं। इसके पीछे दो ही तर्क है। या तो अधिकारी जिस पद पर हैं वह उसके योग्य नहीं हैं या फिर उनके ऊपर कोई राजनैतिक दबाव है जिसके कारण कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं। सहारनपुर जहां साम्प्रदायिक दंगे की ताजा घटना हुई है, वह शहर दुनिया को कौमी एकता, अमर और चैन का संदेश देता है। इसी जिले में प्रख्यात इस्लामिक संस्था दारुल उलूम देवबंद है, जहां से समाज और देश हित में फतवे जारी हुआ करते हैं। सहारनपुर के साहित्यकारों माजिद देवबंदी, नवाज देवबंदी जैसी शख्सियतों ने कौमी एकता का तराना देश के कोने-कोने में गाया है। यही शहर आज साम्पद्रायिक दंगे के नाम पर कलंकित हो गया है। सोचिए जरा, सहारनपुर के अमनपसंद लोगों को यह कैसा लग रहा होगा। एक बात पर और भी गौर करना समीचीन होगा। उत्तर प्रदेश में जब भी समाजवादी पार्टी की सरकार होती है तो दंगे उसके केन्द्र में रहते हैं। लगता है कि समाजवादी पार्टी दंगों को ही आधर बनाकर वर्ष 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव की वैतरणी पार करना चाह रही है। एक मुद्दे पर आरोपों को झेल रही सरकार, उससे लोगों का ध्यान हटाने के लिए दूसरा बखेड़ा खड़ा करवा देती है। कुछ ऐसी बात इन घटनाओं से समझ में आती है। मसलन, लखनऊ में हुए रेप की घटना को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार विपक्ष के आरोपों को झेल रही थी। अब सहारनपुर की घटना ने लखनऊ की घटना को पीछे छोड़ दिया। इसी तरह इससे पहले बदायूं में दो दलित बालिकाओं की रेप के बाद हत्या की घटना को लेकर सरकार विपक्ष के आरोपों को झेल रही थी। उसी दौरान मुरादाबाद दंगे की घटना घट गयी। यह तो खैर इत्तेफाक भी हो सकता है। पर इन घटनाओं ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के राजनैतिक कॅरियर पर भी सवाल खड़ा कर दिया। यह घटनाएं सबसे दुखद उत्तर प्रदेश की राजनीति में उतरे युवाओं के लिए है। सहज अब लोगों युवाओं की राजनीति में सफलता पर यकीन नहीं कर सकेंगे। अगर बात आएगी तो उसके लिए अखिलेश यादव उदाहरण दिए जाएंगे। दूसरी तरफ एक और बात तय लगती है कि इन घटनाओं ने यह पटकथा भी लिख दी है कि अब उत्त्तर प्रदेश के इतिहास में अखिलेश यादव शायद ही दुबारा मुख्यमंत्री बन सकें। अखिलेश यादव के लिए अभी भी कुछ समय है कि वह इन दंगों की घटनाओं के पीछे का सच जानने की कोशिश करें और सुधारात्मक कदम उठाएं तो उनके राजनैतिक कॅरियर के लिए सुखद होगा।
Wednesday 23 July 2014
इजराइली अत्याचार पर खामोशी क्यों
आतंकी संगठन हमास के शासन वाले गाजा पट्टी में इजरायली सेना के हमले जारी हैं। हमास की ओर से भी झुकने के कोई संकेत नहीं हैं और वह इजरायली इलाकों में रॉकेट हमले जारी रखे है। दोनों ओर से खेले जा रहे इस खूनी खेल में अब तक 604 फलस्तीनी और 29 इजरायली अपनी जान से हाथ धो बैठे हैं। नागरिकों की मौतों के लिए इजरायली सेना ने हमास को जिम्मेदार ठहराया है। संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका की ओर से किए जा रहे तमाम प्रयासों के बावजूद युद्धविराम के कोई संकेत नहीं हैं। कहा जाता है कि 70 साल पहले फिलीस्तीनियों द्वारा किया गया त्याग आज उन्हीं के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बन चुका है। हिटलर द्वारा भगाए गए हजारों शरणार्थियों को पनाह देने वाला फिलीस्तीन आज अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। बीते दिनों इजराइल ने गाजा में कई रॉकेट दागे, जिससे कई बेगुनाह बेमौत मारे गए। आश्चर्य यह है कि इजराइल के जुल्म को दुनिया चुपचाप देख रही है। खासतौर पर वे देश भी, जो पूरी दुनिया को मानवता का पाठ पढ़ाने का वादा करते हैं। मेरा सवाल उनसे है कि अगर उनके देश पर भी हमला होता, तो क्या वे चुप बैठते? घोर दुर्भाग्य है कि एक तरफ, दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्ष वातानुकूलित कमरों में बैठकर अंतरराष्ट्रीय समस्याओं का हल करने का दावा करते हैं और दूसरी तरफ, एक राष्ट्र बरबादी के कगार पर पहुंच चुका है, जिसे देखने वाला कोई नहीं! यह और भी दुखद है कि पवित्र रमजान में माह में महिलाओं-छोटे बच्चों का कत्लेआम किया जा रहा है और दुनियाभर में इस नरसंहार पर कोई भी देश अपना मुंह नहीं खोल रहा। मानवीयता को शर्मसार करने वाले इस अभियान को इजराइल ने और तेज करने के लिए कहा है तो समझा जाना चाहिए कि वहां हालात कितने भयावह होंगे। अत: किसी देश के ऐसे उन्मादी कृत्य पर चुप्पी साधने की बजाए सभी को सामूहिक तौर पर इसका प्रतिकार करना चाहिए। मानवीय मामलों का समन्वय करने वाले संयुक्त राष्ट्र के संगठन ओसीएचए की रिपोर्ट में 21 जुलाई की दोपहर तीन बजे से 22 जुलाई की दोपहर तीन बजे तक मारे गए बच्चों के आंकड़े दिए गए हैं। ओसीएचए के मुताबिक इस दौरान कुल 120 फलस्तीनी लोग मारे गए. इनमें 26 बच्चे और 15 महिलाएं थीं। संगठन के मुताबिक जुलाई के पहले हफ़्ते में गाजा में संघर्ष की शुरूआत होने के बाद से अब तक कुल 599 फलस्तीनी मारे गए हैं। इनमें से 443 आम लोग हैं। मरने वाले आम नागरिकों में 147 बच्चे और 74 महिलाएं शामिल हैं। इस संघर्ष में 28 इसराइली भी मारे गए हैं, जिनमें दो आम नागरिक और 26 सैनिक शामिल हैं। इस संघर्ष में 3504 फलस्तीनी घायल हुए हैं। इनमें 1,100 बच्चे और 1,153 महिलाएं शामिल हैं। इन आंकड़ों में उन मामलों को शामिल नहीं किया गया है, जिनकी पुष्टि नहीं हो पाई है।
Thursday 10 July 2014
उम्मीदों से भरा मोदी सरकार का पहला बजट
मोदी सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने गुरुवार को वित्तीय वर्ष 2014-15 का बजट पेश किया। इस बजट का देश को इंतजार था। एक आम नागरिक हमेशा यह चाहता है कि उस पर से टैक्स का बोझ कुछ घटे, इस नजरिये से देखें, तो इनकम टैक्स की सीमा दो लाख से 2.5 लाख करना कुछ राहत देने वाला है। साथ ही होम लोन सस्ता होना भी आम लोगों के लिए आकर्षक कदम है। आम जनता को कुछ और घोषणाएं भा रही हैं, मसलन देश में चार एम्स, पांच आईआईटी और पांच आईएमएम खोलने का प्रस्ताव। बजट में यह आश्वासन भी दिया गया है कि आने वाले पांच सालों में सरकार हर राज्य में एम्स की स्थापना करेगी। इसके अलावा सरकार ने बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ योजना की शुरूआत भी की है, इसके लिए सौ करोड़ के बजट का प्रस्ताव किया गया है। सौ नए शहरों के स्थापना की भी बात कही गयी है। बजट में किसानों को राहत देने के लिए काफी घोषणाएं की गयी हैं। बजट में यह कहा गया है कि समय पर ऋण चुकाने वाले किसानों को ब्याज पर तीन प्रतिशत की छूट जारी रहेगी। इसके साथ ही किसानों की सहायता के लिए 1000 करोड़ रुपए की सिंचाई परियोजाना शुरू की गयी है। किसानों को मौसम की जानकारी देने और किसान मंडियों को प्रोत्साहित करने की भी योजना है। कहा जा सकता है कि बजट के केन्द्र में किसानों को रखा गया है, उनकी उपेक्षा नहीं की गयी है। बजट में यह प्रस्ताव किया गया है कि रक्षा क्षेत्र व बीमाक्षेत्र में 49 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष विदेशी विदेश किया जाएगा। इसके साथ ही वित्तमंत्री ने बैंकों के शेयर बेचने का भी प्रस्ताव किया है। इन प्रस्तावों पर अगर ध्यान दें, तो हम पायेंगे कि इसका कारण सरकार के पास पैसों की कमी है। रक्षा उपकरणों की खरीद जब सरकार विदेश से करती है, तो इससे देश के विदेशी मुद्रा भंडार पर असर पड़ता है। यह बात जगजाहिर है कि रक्षा उपकरणों की खरीद हमें अमेरिकी डॉलर देकर करनी होती है, इसलिए सरकार ने इस बजट में यह प्रयास किया है कि विदेशी मुद्रा भंडार पर असर न पड़े। रक्षा क्षेत्र में 49 प्रतिशत एफडीआई और बीमा क्षेत्र में एफडीआई 26 से 49 प्रतिशत करने के पीछे भी यही उद्देश्य है। पैसे जुटाने के लिए वित्त मंत्री ने बैंकों के शेयर बेचने का भी प्रस्ताव किया है। यह सरकार के कुछ बड़े कदम हैं, जो देश की विदेशी मुद्रा को बुस्टअप करने के लिए उठाये गये हैं। यह कदम देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने वाले हैं। देश में महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए भी बजट में प्रस्ताव किया गया है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना की शुरूआत की गयी है। इसपर 100 सौ करोड़ का बजट दिया गया है। महिलाओं को सुरक्षा देने के लिए सरकार ने बजट का प्रावधान किया है। कहा जा सकता है कि यह बजट उम्मीदों से भरा है। जो घोषणाएं की गयी हैं उन्हें अमल में लाना जरूरी है अन्यथा वे बेमानी हो जाएंगी।
Tuesday 8 July 2014
गरीबों के लिए सुखद नहीं विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ाव
विश्व बैंक और मुद्रा कोष द्वारा विकासशील देशों पर लगातार दबाव बनाया जा रहा है कि वे विश्व अर्थव्यवस्था से गहराई से जुड़ें। परंतु, वित्त मंत्री को जानना चाहिए कि विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ाव का आज तक परिणाम गरीबों के लिए सुखद नहीं रहा है। वित्त मंत्री अरुण जेटली 10 जुलाई को अपना बजट पेश करनेवाले हैं। बजट में आगामी वर्ष की टैक्स की दरों की घोषणा की जाती है। हमारी अर्थव्यवस्था के विश्वअर्थव्यवस्था से जुड़ाव पर इन दरों का गहरा प्रभाव पड़ता है। मसलन, आयात कर न्यून होने से विदेशी माल का आयात बढ़ता है। इसके विपरीत आयात कर बढ़ाने से आयात कम होते हैं और घरेलू उद्योगों को खुला मैदान मिलता है। ध्यान रहे कि अर्थव्यवस्था का अंतिम लक्ष्य जनता है। अत: देखना चाहिए कि विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ाव का आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ता है। अधिकतर अर्थशास्त्रियों का मानना है कि हमें विश्व अर्थव्यवस्था से और अधिक गहराई से जुड़ना होगा। अपनी कंपनियों को दूसरे देशों में प्रवेश करने को प्रोत्साहन देना होगा। एफडीआइ को रिटेल जैसे चुनिंदा क्षेत्रों में छोड़ कर सभी क्षेत्रों में आकर्षित करना होगा। इससे उत्पादन व रोजगार बढ़ेगा। इस मॉडल को विश्व बैंक तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के साये में कई देशों ने लागू किया है, लेकिन परिणाम सुखद नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था इंटरनेशनल लेबर आॅर्गनाइजेशन के मुताबिक, श्रमिकों की बढ़ती संख्या की तुलना में रोजगार नहीं बढ़ रहे हैं। वैश्विक बेरोजगारी की स्थिति आनेवाले समय में बिगड़ेगी। वैश्विक युवा बेरोजगारी दर 13.1 प्रतिशत के उच्चतम स्तर पर पहुंच गयी है। इस संस्था के अनुसार भारत जैसे दक्षिण एशिया के देशों में बेरोजगारी की स्थिति इससे ज्यादा कठिन है। यहां मुख्यतया असंगठित रोजगार बढ़ रहे हैं। अपने देश में लोग येन-केन-प्रकारेण जीविका चला लेते हैं। जैसे किसी की नौकरी छूट जाए, तो वह सब्जी बेच कर गुजारा कर लेता है। वास्तव में वह बेरोजगार है, लेकिन आंकड़ों में सरोजगार गिना जाता है। बेरोजगारी की यह स्थिति इस विकास मॉडल का तार्किक परिणाम है। इसमें आॅटोमेटिक मशीनों के दौर में उत्पादन के लिए मुट्ठीभर उच्च तकनीकों को जाननेवालों की जरूरत पड़ती है। इन्हें भारी वेतन दिये जाते हैं, जैसे 1-2 लाख रुपए प्रति माह। इन चुनिंदा व्हाइट कॉलर कर्मचारियों द्वारा एक के स्थान पर तीन घरेलू नौकर रखे जाते हैं। इस प्रकार संगठित रोजगार संकुचित हो रहा है, जबकि असंगठित रोजगार बढ़ रहा है। यह कहना आसान है कि विदेशी निवेश को आकर्षित करने के साथ-साथ छोटे उद्योगों को प्रोत्साहन दिया जाएगा। यह उसी प्रकार है जैसे पहलवान को आमंत्रण देने के साथ-साथ गांव के कुपोषित बालक को प्रोत्साहन देना। पहलवान को आमंत्रित करेंगे, तो बालक बाहर हो ही जाएगा। लेकिन विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ने के लाभ भी हैं। भारत तमाम सेवाओं को उपलब्ध कराने का वैश्विक केंद्र बनता जा रहा है। जैसे डिजाइन, कॉल सेंटर, ट्रांसलेशन, रिसर्च, क्लिनिकल ट्रायल इत्यादि में। निर्यात उद्योगों में रोजगार उत्पन्न होते हैं। लेकिन अंतिम सत्य यह है कि श्रम बाजार में प्रवेश करनेवाले 100 में से 1 को ही संगठित क्षेत्र में रोजगार मिला है। मेरी समझ से विश्व अर्थव्यवस्था के दायरे में इस समस्या का हल उपलब्ध नहीं है। आर्थिक सुधारों के पहले संगठित क्षेत्रों में रोजगार ज्यादा उत्पन्न हो रहे थे। सुधारों के बाद वे कम हुए हैं। मेरा मकसद अपने को विश्वअर्थव्यवस्था से अलग करने का नहीं है। बल्कि, ग्लोबलाइजेशन के अलग-अलग अंगों के लाभ-हानि का आकलन करके निर्णय लेना होगा कि उन्हें अपनाया जाये या छोड़ा जाए। जैसे हाइटेक उत्पादों के आयात को आसान बना देना चाहिए, लेकिन कपड़े के आयात पर प्रतिबंधित श्रेयस्कर हो सकता है। भले ही विदेशी कपड़ा एक रुपए मीटर सस्ता क्यों न हो, इससे देश के लाखों लोगों का रोजगार प्रभावित होता है, अत: इस पर प्रतिबंध हितकर होगा। तुलना में यदि विदेशी कंप्यूटर आधे दाम पर मिल रहा है और इसके आयात से 10-20 हजार श्रमिक ही प्रभावित हो रहे हें, तो इसे आने देना चाहिए। यही बात विदेशी निवेश पर भी लागू होती है। विदेशी निवेश के हर प्रस्ताव का श्रम तथा तकनीकी आॅडिट कराना चाहिए। इसमें परोक्ष रूप से रोजगार के हनन का आकलन भी करना चाहिए। जैसे खुदरा बिक्री से सीधे एक लाख रोजगार उत्पन्न हुए, परंतु किराना दुकानों के बंद होने से परोक्ष रूप से 10 लाख रोजगार का हनन हुआ। इन दोनों प्रभावों का समग्र रूप से आकलन करना चाहिए। इसके बाद प्रस्तावों को स्वीकार करेंगे, तो हम विश्वअर्थव्यवस्था से भी जुड़ेंगे और अपने नागरिकों को उच्च कोटि के रोजगार भी उपलब्घ करा सकेंगे। नयी सरकार को डब्ल्यूटीओ संधि से भी बाहर आने का साहस रखना चाहिए। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा विकासशील देशों पर लगातार दबाव बनाया जा रहा है कि वे विश्व अर्थव्यवस्था से गहराई से जुड़ें। इन संस्थाओं के आका विकसित देश हैं। इनके दबाव में न आकर वित्त मंत्री को जानना चाहिए कि विश्वअर्थव्यवस्था से जुड़ाव का आज तक परिणाम गरीबों के लिए सुखद नहीं रहा है। नयी सरकार के आम बजट से लोगों को उम्मीद है कि इस बजट में गरीब केन्द्र में होंगे। गरीबों के हित को देखकर बजटीय प्रावधान किए जाएंगे।
Wednesday 18 June 2014
शून्य है अखिलेश सरकार का इकबाल
पिछले दिनों दिल्ली में आयोजित निवेश सम्मेलन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को प्रदेश में तकरीबन 60 हजार करोड़ रुपए के निवेश की उम्मीद जगी है। राज्य सरकार के साथ 54,056 करोड़ रुपए के 19 एमओयू पर हस्ताक्षर करने वाली अधिकांश कंपनियां वही हैं जो पहले से किसी न किसी रूप से प्रदेश से जुड़ी हुई हैं। इस निवेश सम्मेलन से गदगद होने वाले मुख्यमंत्री को इसकी चिंता होनी चाहिए कि आखिर नए निवेशक प्रदेश में निवेश करने से क्यों घबरा रहे हैं? जो उद्योग-धंधे प्रदेश में हैं वे बंद होने की कगार पर क्यों हैं और निवेशक पलायन करने को क्यों मजबूर हैं? एक ओर जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हुनरमंद भारत का रोडमैप देश के सामने रख रहे हैं, वहीं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री खोखले दावों के आधार पर यह दावा कर रहे हैं कि जब तक उत्तर प्रदेश हुनरमंद नहीं होगा, देश हुनरमंद नहीं होगा। कितनी बड़ी विडंबना है कि जिस प्रदेश में कानून एवं व्यवस्था की जगह अराजकता का साम्राज्य हो, बिजली, पानी, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए लोग तरस रहे हों, उस प्रदेश का मुख्यमंत्री राज्य को उत्तम प्रदेश बताने का दावा करे? मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने 27 महीने के कार्यकाल में कोई छाप क्यों नहीं छोड़ पाए? क्यों उनकी सरकार का इकबाल शून्य पर है? क्या उनकी सरकार का सारा ध्यान तबादला, बहाली और नोएडा, ग्रेटर नोएडा में जमीनें आवंटित करने आदि पर केंद्रित नहीं है? राज्य में बिजली का गहन संकट है, विद्युत उत्पादन करने वाले संयंत्र ठप हैं या अपनी क्षमता से कम उत्पादन कर रहे हैं। प्रदेश में 12,700 मेगावाट प्रतिदिन बिजली की जरूरत है, सरकार केवल 10,700 मेगावाट बिजली ही उपलब्ध करवा पा रही है। बिजली चोरी और लीकेज के कारण सरकार को सालाना 7000 करोड़ रुपए की क्षति हो रही है। सड़कें टूटी-फूटी हैं या नदारद हैं। समझ में नहीं आता कि सड़कों में गढ्डे हैं या गढ्डों में सड़क है। बदायूं की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद आए-दिन राज्य के किसी न किसी इलाके में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोज दिख रही है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को बदायूं की घटना के बाद राज्य के प्रधान सचिव अनिल कुमार गुप्ता को स्थानांतरित करने में 6 दिन और स्थानीय थानाप्रभारी गंगासिंह यादव का तबादला करने में 8 दिन का समय लगा। उत्तर प्रदेश में पहले थानाप्रभारी का चयन उसके कामकाज के रिकॉर्ड के आधार पर होता था। 2012 में सत्ता में आने के बाद समाजवादी पार्टी ने इस व्यवस्था को बदल डाला। आज उत्तर प्रदेश में कुल 1560 थाने हैं और उनमें से 800 थानों की कमान यादवों के हाथ में है। उनकी नियुक्ति जाति के आधार पर की गई या मेरिट पर, निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं है। क्यों उनकी नियुक्ति उनके गृह जिले या पड़ोसी जिले में की गई? बदायूं की घटना में स्थानीय पुलिस का निष्क्रिय रहना उसी का दुष्परिणाम है। दुष्कर्म और हत्या के तीन आरोपियों में से दो यादव हैं, कसूरवार स्थानीय पुलिस वालों में दोनों यादव हैं। क्या यह महज संयोग है? प्रदेश में सपा कार्यकतार्ओं व नेताओं की दबंगई आम बात है। इलाहाबाद के एक थाने में घुसकर स्थानीय सपा नेता गाली-गलौच कर एक कैदी को छुड़ा ले जाता है और प्रशासन खामोश रहता है, यह कोई इकलौती घटना नहीं है। जो अधिकारी ऐसी अराजकता को चुनौती देने का दुस्साहस करता है उसे सपा सरकार प्रताड़ित करती है।
Monday 16 June 2014
आखिर कब बदलेगी देश की यह ‘सूरत’
16 मई 2014 को देश में मोदी सरकार सत्ता में आई तो बड़ा सुकून हुआ। लगता है देश के अधिकांश लोगों को ऐसा ही सुकून महसूस हुआ होगा। पर आये दिन घट रही घटनाओं और दंबगों के बढ़ते हौसले से फिर निराशा का माहौल बनने लगा है। लगता है कि एक बार फिर देश के नागरिकों की सारी मेहनत अकारथ जाएगी। 15 जून 2014 को देश में हर ओर दबंगई का आलम नजर आया। कहीं मजदूर को जिंदा जला दिया गया तो कहीं जूट मिल के सीईओ की हत्या कर दी गई। कहीं ट्रैफिक कांस्टेबिल की खौफनाक हत्या कर दी गई तो कहीं सांसद पर हमला कर दिया गया। लगता है देश में कुछ लोगों के बीच से कानून का खौफ खत्म हो गया है। शासन सत्ता और प्रशासन अपना इकबाल नहीं कायम कर पा रहा है। पश्चिम बंगाल में एक जूट मिल के मुख्य कार्यपालक अधिकारी को कथित रूप से कुछ श्रमिकों ने मिल परिसर में पीट पीटकर मार डाला। यह घटना हुगली जिले के भद्रेश्वर की है और बताया जाता है कि श्रमिक अपनी वेतन मांगें पूरा नहीं होने पर उत्तेजित थे। हुगली के पुलिस अधीक्षक सुनील चैधरी ने यह जानकारी दी। उन्होंने बताया कि नार्थ ब्लाक जूट मिल के सीईओ एचके महेश्वरी की नाराज कर्मचारियों ने उस समय पिटाई की जबकि उन्होंने श्रमिकों की वेतन संबंधी मांग खारिज कर दी। कर्मचारी अपने सप्ताह में कार्य के घंटे बढ़ाने की मांग कर रहे थे ताकि उन्हें अधिक पगार मिल सके। मिल इन श्रमिकों को घंटे के हिसाब से भुगतान करती है। श्रमिक सुबह 11 बजे महेश्वरी से उनके कक्ष में मिले थे और मांग की थी कि उन्हें सप्ताह में 25 घंटे की जगह 40 घंटे का काम दिया जाए। दूसरी ओर पश्चिम दिल्ली के मोती नगर इलाके में बहस के बाद दो किशोरों समेत तीन लोगों ने ट्रैफिक पुलिस के कांस्टेबल को कार से कुचलकर मार डाला। यह घटना शनिवार शाम साढ़े सात बजे के करीब हुई जब 26 वर्षीय मुख्य आरोपी रमनकांत को जखीरा फ्लाईओवर पर 24 वर्षीय कांस्टेबल माना राम ने रोका। गाड़ी रमनकांत चला रहा था और उसके साथ उसके दो नाबालिग मित्र थे। शाम पांच से रात नौ बजे तक यातायात का मार्ग परिवर्तित था और रमनकांत उसका उल्लंघन कर रहा था। पहले बहस हुई फिर रमनकांत ने कार पीछे की और माना राम पर कार चढ़ा दी। उसने उसे तकरीबन 150 मीटर तक खींचा। माना राम को पंजाबी बाग इलाके में एमएएस अस्पताल में ले जाया गया, जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया। तीनों घटनास्थल से फरार हो गए थे, लेकिन बाद में उन्हें पकड़ लिया गया। घटना में शामिल वाहन को भी जब्त कर लिया गया। कांस्टेबल माना राम राजस्थान में नागौर के रहने वाले थे और साल 2010 में बल में शामिल हुए थे। इसी क्रम में पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24 परगना जिले में तृणमूल कांग्रेस के 4 कार्यकताओं की हत्या कर दी गई। इस मामले में प्रदेश में मंत्री रह चुके मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआईएम) के नेता कांति गांगुली के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर ली गई है। घटना शनिवार रात रायडीघी कस्बे के खारी गांव की है। उपद्रवियों ने कार्यकर्ताओं के घरों पर बम फेंके और गोलीबारी की। इसके कारण 4 कार्यकर्ताओं की मौत हो गई, जबकि तीन अन्य जख्मी हो गए। तृणमूल कार्यकर्ता उस समय एक बैठक में हिस्सा लेने के लिए जुटे थे। जिले के एसपी प्रवीण कुमार त्रिपाठी ने कहा, इस मामले में हमने चार लोगों को गिरफ्तार कर लिया है। पूर्व मंत्री गांगुली सहित 21 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है। इस बीच, गांगुली ने अपने ऊपर लगे आरोपों का खंडन किया है और कहा कि उनकी छवि धूमिल करने की कोशिश की जा रही है। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश के झांसी जनपद में मजदूरी करने से मना करने पर दबंगों ने मिट्टी का तेल डालकर एक दलित मजदूर को जिंदा जला दिया। मजदूर को बचाने के लिए उसका भाई मदद के लिए दौड़ा तो वह भी बुरी तरह झुलस गया। बुरी तरह से झुलसे युवक को इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराया गया है। जानकारी के अनुसार चिरगौन के थपई गांव निवासी दलित मजदूर पवन से गांव के कुछ दबंगों ने उसके घर चलकर मजदूरी करने के लिए कहा। पवन ने मजदूरी से मना कर दिया तो दबंगों ने इसी बात पर उस पर मिट्टी का तेल डालकर उसको जिंदा जला दिया। पवन को आग की लपटों में घिरा देख उसका भाई कपिल मदद के लिए दौड़ा तो वह भी बुरी तरह झुलस गया। पुलिस ने इस मामले में नामजद रिपोर्ट दर्ज कर ली है। उत्तर प्रदेश की फतेहपुर लोकसभा सीट से नवनिर्वाचित भाजपा सांसद साध्वी निरंजन ज्योति पर शनिवार की रात भानु पटेल नाम के एक युवक ने अपने तीन अन्य साथियों के साथ हमला कर दिया और तमंचे से फायरिंग की, जिसमें उनका एक अंगरक्षक घायल हो गया,मगर वे बााल-बाल बच गयीं। पुलिस अधीक्षक विनोद सिंह ने बताया कि सिविल लाइन स्थित आवास विकास कालोनी के एक घर में मुण्डन संस्कार में शामिल होने आयीं भाजपा सांसद साध्वी निरंजन ज्योति जब वापस लौट रही थीं तभी भानू पटेल नाम के एक युवक ने अपने तीन साथियों के साथ अचानक हमला कर दिया और फायरिंग की। सांसद की तहरीर पर मुकदमा दर्ज करके भानु पटेल को गिरफ्तार कर लिया गया है। उत्तर प्रदेश में अमेठी जिले के जगदीशपुर थाना क्षेत्र में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के करीबी एवं दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री रहे कांग्रेसी नेता जंगबहादुर सिंह के बेटे तथा उनके वाहन चालक की हत्या कर दी गई। इस मामले में समाजवादी पार्टी के पूर्व सांसद व विधान परिषद के मौजूदा सदस्य अक्षय प्रताप सिंह उर्फ गोपाल सहित नौ लोगों के विरुद्व प्राथमिकी दर्ज करायी गयी है। पुलिस अधीक्षक हीरालाल ने बताया, गोपाल जी अखिलेश यादव सरकार में कैबिनेट मंत्री तथा कुण्डा के निर्दलीय विधायक रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया के मौसेरे भाई हैं। जंगबहादुर के बेटे महेन्द्र सिंह उर्फ दद्दन सफारी गाड़ी से मुसाफिरखाना से जामो स्थित अपने घर जा रहे थे कि रास्ते में रानीगंज के पास एक बोलेरो तथा मोटरसाइकिल पर पहले से खड़े करीब आठ लोगों ने उन पर गोलियां बरसायीं, जिसमें महेंद्र सिंह और ड्राइवर सुरेंद्र सिंह की मौत हो गयी और उनका एक साथी देवराज सिंह घायल हो गया।
Saturday 14 June 2014
मोदी ने साकार किया अटल का सपना
आइएनएस विक्रमादित्य को राष्ट्र को समर्पित हो गया। सबसे बड़े विमानवाहक पोत को राष्ट्र को समर्पित करने के दौरान नौसैनिकों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि देश की सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण है और यह प्राथमिकता में सबसे ऊपर है। आइएनएस विक्रमादित्य के नौसेना में शामिल होने के बाद भारत ऐसे देशों में शामिल हो गया है जिनके पास दो एयरक्राफ्ट कैरियर हैं। इससे नौसेना की ताकत बहुत बढ़ गई है। करीब डेढ़ दशक पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भारतीय नौसेना को उन्नत विमानवाहक पोत से लैस करने का सपना देखा था। इसी कड़ी में राजग सरकार ने जनवरी, 2004 में रूस से करीब साढ़े पांच हजार करोड़ रुपये की लागत वाले विमानवाहक पोत एडमिरल गोर्शकोव की खरीद के सौदे पर दस्तखत किए थे। संयोग है कि अटल के इस सपने को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साकार किया। भारतीय नौसेना ने नवंबर, 2013 में रूस के सेवर्दमाश्क में रूसी विमानवाहक पोत को हासिल किया था। रूसी मूल का यह युद्धपोत यूं तो 2008 में ही भारत को मिल जाना था, लेकिन मूल्यवृद्धि और तकनीकी कारणों से पांच साल की देरी हो गई। भारत ने यह युद्धपोत 15 हजार करोड़ की लागत से हासिल किया। विक्रमादित्य की लंबाई-282 मीटर, चौड़ाई 60 मीटर यानी कुल तीन फुटबॉल मैदानों के बराबर है। ऊंचाई- निचले छोर से उच्चतम शिखर तक 20 मंजिल और वजन 44500 टन है। विक्रमादित्य की खूबी है कि इस पर एक बार में 1600 से अधिक लोग तैनात होंगे। साथ ही 8000 टन वजन ले जाने में सक्षम 181300 किमी के दायरे में किसी सैन्य अभियान के संचालन में सक्षम 18 इसमें बनेगी 18 मेगावाट बिजली, जो किसी छोटे शहर के लिए काफी है। इसे आठ स्टीम बॉयलर 1,80,000 एसएचपी की ताकत देंगे। समंदर के सीने पर 60 किमी प्रतिघंटा की रफ्तार से यह चलेगा। आधुनिक रडार व निगरानी प्रणाली से लैस विक्रमादित्य 500 किमी के दायरे में किसी भी हलचल को पकड़े में सक्षम होगा। इस पर मिग-29के/सी हैरियर, कामोव-31, कामोव-28, ध्रुव व चेतक हेलीकॉप्टर समेत 30 विमान तैनात होंगे। इस पर खड़े चौथी पीढ़ी के मिग-29 के लड़ाकू विमान 700 किमी के दायरे में मार कर सकते हैं। इसके अलावा विक्रमादित्य पोत ध्वंसक मिसाइल, हवा से हवा में मार करने वाले प्रक्षेपास्त्र और गाइडेड बमों से लैस होगा। इस पर लगा माइक्रोवेव लैंडिंग सिस्टम सटीक तरीके से विमानों की उड़ान व लैंडिंग के संचालन में सक्षम होगा। आईएनएस विक्रमादित्य ने भारतीय नौसेना की ताकत को पूरी दुनिया में बढ़ा दिया है। विमानवाहक पोत युद्धकाल में किसी भी देश के लिए सशक्त आक्रामक शक्ति प्रदान करते हैं। अपने डेक पर दर्जनों की संख्या में लड़ाकू विमानों को संभाले ये सुरक्षा कवच किसी ऐसे देश के लिए तो बेहद जरूरी हैं जिनकी सीमाएं समुद्र के किनारों से घिरी हुई हैं। आजादी के बाद भारत ने भी इस जरूरत को समझा था और 1957 में पहला विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रांत उसी ब्रिटेन से खरीदा था जिसके शासन के खिलाफ लड़कर हम आजाद हुए थे। 1945 में ब्रिटेन में आईएनएस हरक्यूलिस नाम से तैयार किये गये आईएनएस विक्रांत को ब्रिटेन ने कभी इस्तेमाल ही नहीं किया और बारह साल बाद भारत को बेच दिया था। चालीस साल तक भारत की सेवा करने के बाद यह विमानवाहक पोत 1997 में रिटायर कर दिया गया और 2014 तक वह मुंबई में कफ परेड के समंदर में म्यूजियम बनकर मौजूद रहा। फिलहाल अब उसे गुजरात के अलंग शिपब्रेकिंग यार्ड को बेच दिया गया है जहां उसे नेस्तनाबूत कर दिया जाएगा। आईएनएस विक्रांत के बाद भारत में दूसरा विमानवाहक पोत आया आईएनएस विराट। यह आईएनएस विराट भी उसी ब्रिटेन से आया था जिससे हमने आईएनएस विक्रांत खरीदा था। 1959 में ब्रिटेन की सेवा में शामिल होनेवाले इस एयरक्राफ्ट कैरियर की कुल उम्र 25 साल थी। ब्रिटेन नेवी के लिए 27 साल सेवा देने के बाद 1986 में इसे दोबारा ठीक किया गया और भारत को बेच दिया गया। तब से लेकर अब तक भारत चार बार इस विमानवाहक पोत की मरम्मत करवा चुका है और फिलहाल यही विमानवाहक पोत सेवा में था। इस विमानवाहक पोत को चौथी मरम्मत के बाद भी 2012 में रिटायर हो जाना था लेकिन आईएनएस विक्रमादित्य की डिलिवरी में होने वाली देरी के कारण इसकी सेवाएं 2017 तक बढ़ा दी गई हैं। इस लिहाज से आईएनएस विक्रमादित्य भारत का एकमात्र ताकतवर विमानवाहक पोत है। दुनिया के वे देश जो युद्ध की राजनीति करते हैं उनके पास एक से अधिक विमानवाहक पोत हैं। अमेरिका और रूस इसमें सबसे आगे हैं। जल्द ही चीन भी इस बेड़े में शामिल हो जाएगा। इस लिहाज से भारत की तैयारियां भी कमजोर नहीं है। अगर नयी सरकार ने विदेशी पूंजी निवेश पर बहुत ज्यादा जोर नहीं दिया तो 2016-17 तक कोच्चि शिपयार्ड से विक्रमादित्य श्रेणी का अपना एयरक्राफ्ट कैरियर बनकर तैयार हो जाएगा। वर्ष 2009 में शुरू किये गये स्वदेशी आईएनएस विक्रमादित्य क्लास एयरक्राफ्ट कैरियर की भार वाहन क्षमता भी उतनी ही है जितनी एडमिरल गोर्शकोव की। उम्मीद के मुताबिक 2016-17 तक सेवा में आने के बाद इस विमानवाहक पोत पर रूस निर्मित मिग 29 के अलावा स्वेदश निर्मित तेजस लड़ाकू विमान भी तैनात किये जाएंगे। लेकिन विक्रमादित्य से भी महत्वाकांक्षी परियोजना है आईएनएस विशाल। अगर भारत आईएनएस विशाल पर ध्यान देता है तो 2025 तक भारत का सबसे बड़ा विमानवाहक पोत बनकर तैयार हो सकता है। लेकिन फिलहाल आईएनएस विशाल को बनाने की योजना कागजों पर ही है।
Thursday 15 May 2014
इतिहास परखेगा ‘मनमोहन का दशक’
नयी दिल्ली की रायसीना पहाड़ियों पर बनी परवर्ती औपनिवेशिक इमारतों और
सत्ता के गलियारों में पिछले कई दशकों से डॉ मनमोहन सिंह की निरंतर
उपस्थिति रही है. इसकी एक महत्वपूर्ण विशेषता यह रही है कि उनके व्यवहार
में नाटकीयता नहीं है, जो वर्त्तमान राजनीति और राजनेताओं का स्थायी तत्व
बन चुकी है. इस वर्ष जनवरी के शुरू में मीडिया से बातचीत में जब वे कह रहे
थे कि इतिहास उनके प्रति नरम होगा, उनके चेहरे पर वही चिर-परिचित
भाव-शून्यता और स्थिरता थी. परंतु शिक्षा से आर्थिक नीति-निर्धारण और फिर राजनीति के क्षेत्र में
आये डॉ सिंह से बेहतर यह कौन जान सकता है कि इतिहास बहुत निष्ठुर होता है
और उसके आकलन के आधार बड़े कठोर होते हैं. वे यह भी जानते हैं कि देश में
कुछ ऐसे प्रधानमंत्री भी हुए हैं, जिन्हें शायद इतिहास के फुटनोट में भी
जगह नहीं मिलेगी. भविष्य में होनेवाला आकलन तो बाद की बात है, फिलहाल इतना
तो निश्चित हो गया है कि वर्तमान ने उनके नेतृत्व को नकार दिया है और
कांग्रेस अपने इतिहास की सबसे बड़ी पराजय की ओर बढ़ती दिख रही है. इसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन इतना तो डॉ सिंह प्रति सहानुभूति
रखनेवाले भी स्वीकार करेंगे कि उन्होंने एक ऐसी सरकार का नेतृत्व किया,
जिसने घपलों-घोटालों के पिछले हर रिकॉर्ड को पीछे छोड़ दिया. आमतौर पर
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बारे में यही कहा गया कि वे त्वरित और ठोस
निर्णय में सक्षम नहीं हैं तथा सरकार व मंत्रियों पर उनका नियंत्रण कमजोर
है. गठबंधन की सरकार सफलतापूर्वक चलाने का दावा करनेवाले प्रधानमंत्री
सहयोगी दलों के मंत्रियों पर समुचित लगाम लगा पाने में असफल रहे. जाते-जाते भी उनकी सरकार ने सेनाध्यक्ष की नियुक्ति कर एक नया विवाद
खड़ा कर दिया है. सही है कि यह नियुक्ति केंद्र सरकार का विशेषाधिकार है,
परंतु सत्ता से हटने के महज दो दिन पहले ऐसा निर्णय लेने की जल्दी कई
सवालों को जन्म देती है. फिलहाल विदाई की इस वेला में डॉ सिंह वरिष्ठ भाजपा
नेता व उनकी सरकार के मुखर आलोचक रहे अरुण जेटली के लेख से सांत्वना
प्राप्त कर सकते हैं, जिसमें जेटली ने उन्हें व्यक्तिगत रूप से ईमानदार और
उनकी आर्थिक नीतियों को देश के लिए आवश्यक बताया है.
Friday 2 May 2014
आडवाणी के विचार समर्थन योग्य
2 मई 2014 को अल्मोड़ा लोकसभा क्षेत्र के भाजपा उम्मीदवार अजय टमटा के समर्थन में आयोजित सभा में भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने एक विचार व्यक्त किया। उनका यह विचार मौजूदा राजनीति के लिए बेहद प्रासंगिक हो गया है। आडवाणी जी का विचार है कि भारत में एक ऐसी प्रणाली लायी जाए, जिसमें अमेरिका के परिपक्व लोकतंत्र की तरह प्रधानमंत्री पद के मुख्य दावेदार जनता के सामने राजनीतिक मसलों पर खुली बहस करें। आडवाणी ने कहा, लोकतंत्र के रुप में भारत परिपक्व हो रहा है। विभिन्न राजनीतिक दलों के बजाय अब चुनाव आयोग को एक ऐसा विचार सामने लाना चाहिए जिसमें अमेरिका जैसे देशों की तरह प्रधानमंत्री पद के मुख्य दावेदार जनता के सामने राजनीतिक मसलों पर खुली बहस करें। उन्होंने कहा कि अगर पहले आमचुनाव के बाद से ही देश में इस प्रणाली को अपना लिया जाता तो उससे लोकतंत्र मजबूत हो जाता। भाजपा के वरिष्ठ नेता ने कहा कि वह देश में ऐसे इकलौते सांसद हैं जिन्होंने 1951 से लेकर अब तक के सभी आम चुनाव देखे हैं क्योंकि वरिष्ठता में उनसे छह माह बडे प्रणब मुखर्जी अब राष्ट्रपति बन चुके हैं। आडवाणी जी ने चुनाव के समय में यह बात जिस भी परिप्रेक्ष्य में कहीं हो, उस पर बहस करने के बजाय उनके इस विचार को मजबूती देने की आवश्यकता है।
Monday 28 April 2014
यह वोट बैंक की राजनीति नहीं तो और क्या?
लोकसभा के चुनाव जब अंतिम चरणों से गुजर रहे हैं ऐसे में ही मुस्लिम आरक्षण का मुद्दा अचानक क्यों उछला! कांग्रेस के घोषणा पत्र में इस बार भले ही यह मुद्दा न हो लेकिन 2009 के उसके चुनाव घोषणा पत्र में वह था। फिर यह न्यायालय में अटक गया। यही वजह है कि कांग्रेस ने इस बार इसे घोषणा पत्र में जगह नहीं दी। इसके बावजूद अब जब चुनाव अंतिम चरणों से गुजर रहे हैं यकायक यह मुद्दा उछला है। ऐसे में तो इसका कारण मतों के धु्रवीकरण का प्रयास ही है। चुनाव के इस दौर में जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं उनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, प. बंगाल प्रमुख हैं। इन राज्यों में मुस्लिम आबादी अधिक होने के कारण यह सवाल उछला है। तुष्टीकरण हो या बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक मतों के ध्रुवीकरण की राजनीति, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। संविधान की व्यवस्था में धर्म या आर्थिक दोनों को आरक्षण का आधार नहीं माना गया है। सामाजिक पिछड़ापन ही इसका आधार है। मुसलमानों में पिछड़ी जातियों को ओबीसी में आरक्षण प्राप्त है। तब मुस्लिम आरक्षण की अलग से मांग का क्या अर्थ है! यहां संघर्ष ओबीसी आरक्षण में कोटे में कोटे के बिंदु पर है। अजा-अजजा आरक्षण और ओबीसी आरक्षण में यहां फर्क है। इस्लाम में छुआछूत या जाति प्रथा को धार्मिक मान्यता नहीं है। इसके बावजूद मुसलमानों में भी व्यवहारतया जाति प्रथा घर कर गई है। हिंदुओं में जाति भेद से व्यथित अजा-अजजा समाज के जो लोग बौद्घ धर्म में धर्मांतरित हुए हैं, उन्हें आरक्षण की सुविधाओं से महरूम नहीं किया गया है। इसका कारण है कि संविधान में बौद्घ और जैन धर्म को हिंदू धर्म का ही अंग माना गया है। लेकिन इन समुदायों में से इस्लाम कबूलने वालों को अजा-अजजा आरक्षण से बाहर माना जाता है। सामाजिक पिछड़ेपन के कारण वे ओबीसी आरक्षण के अधिकारी तो हो सकते हैं लेकिन अजा-अजजा आरक्षण के अधिकारी नहीं हो सकते। कांग्रेस कोटे में कोटे का जो प्रावधान विकसित करने की कोशिश कर रही है वहां आधार धर्म हो जाता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कांग्रेस के इन प्रयासों को नामंजूर कर दिया है और मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। तब लोकसभा चुनाव में यकायक यह सवाल क्योंकर उठाया जा रहा है! यह वोट बैंक की राजनीति के अलावा कुछ नहीं है।
Sunday 27 April 2014
तीन सवालों के जवाब चाहिए
सोचिए कि 1991 से 1995 के हीरो डॉ मनमोहन सिंह 2014 में विलेन क्यों बन गये? वर्ष 2000 में भविष्य को लेकर जबरदस्त उत्साहवाले भारत के लोग आज हताशा में क्यों पहुंच गये? वर्ष 2002 में देश में बहुत ही खराब छविवाला व्यक्ति आज प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे योग्य व्यक्ति क्यों माना जाने लगा (जबकि उस समय उसकी अपनी पार्टी के बड़े नेता और तत्कालीन प्रधानमंत्री ने उसे राजधर्म का पालन करने में विफल करार दिया था)? सोचिए, इन सवालों पर गंभीरता से. तार्किक और तथ्यसंगत जवाब तक यदि आप पहुंच जाते हैं, तो यह समझने में कोई दिक्कत नहीं होगी कि इस चुनाव के बाद देश की दिशा क्या होने वाली है.
1991 में पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार बनी, तब अर्थव्यवस्था की हालत बहुत खराब थी. राव ने रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे और योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे डॉ मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया. उनको अर्थव्यवस्था को खोलने की पूरी छूट दी गयी. डॉ मनमोहन सिंह 1972 से 1976 तक वित्त मंत्रलय में मुख्य आर्थिक सलाहकार थे और 1976 में वह वित्त मंत्रलय में सचिव बने. 1982 में इंदिरा गांधी ने उन्हें रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाया और फिर 1985 में राजीव गांधी ने उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया. यानी नियंत्रित अर्थव्यवस्था के दौर में भी वह भारतीय अर्थव्यवस्था को दिशा देने वाले प्रमुख पदों पर रहे. इसके बाद वह 1991 से 1995 तक भारतीय अर्थव्यवस्था को खोलने में पूरी शिद्दत से जुट गये. उनकी छवि जबरदस्त बनी. उस दौरान लगभग हर विपक्षी नेता (लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, चंद्रशेखर, वीपी सिंह, देवीलाल, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, रामकृष्ण हेगड़े, एनटी रामाराव आदि) और दल उदारीकरण के विरोध में था, लेकिन डॉ मनमोहन सिंह की छवि इतनी मजबूत थी कि सभी आंदोलन धराशायी रहे और जब 1996 में जनता दल की सरकार बनी तो डॉ मनमोहन सिंह के शिष्य पी चिदंबरम को वित्त मंत्री बनाया गया जिससे अर्थव्यवस्था डॉ सिंह द्वारा निर्धारित राह पर ही चलती रहे. भाजपा की सरकार आयी तो यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह ने वित्त मंत्रलय संभाला क्योंकि ये लोग भी उदार अर्थव्यवस्था के हिमायती थे. 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार बनी और सोनिया गांधी ने उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया. लेकिन 1991 से 1995 के बीच अर्थव्यवस्था को उदारीकरण की राह पर डाल कर सर्वत्र प्रशंसा हासिल करने वाले डॉ मनमोहन प्रधानमंत्री के रूप में न सिर्फ सबसे कमजोर प्रधानमंत्री के रूप में सामने आये, बल्किअर्थव्यवस्था को कुव्यवस्था और लूट का शिकार बनाने के कलंक का टीका भी उनके माथे पर लगा.
अभी जान इलियट की भारत पर एक किताब आयी है. इस किताब का नाम है 'इम्प्लोजन - इंडियाज ट्रिस्ट विद रीयलिटी'. जान 80 के दशक में फाइनेंशियल टाइम्स के लिए दिल्ली से रिपोर्टिग करते थे. 1988 से 1995 के बीच वह हांगकांग में रहे और फिर दिल्ली आ गये. ऊपर दिये गये सवालों का जवाब तलाशने में उनकी यह किताब काफी मदद कर सकती है. वह लिखते हैं कि अस्सी के दशक में जब मैं दिल्ली में था तब भ्रष्टाचार कम था और 1995 में जब मैं दिल्ली आया तो मुङो उम्मीद थी कि उदारीकरण के बाद भारत की आर्थिक संभावनाएं जबरदस्त रूप से बढ़ चुकी होंगी, लेकिन मैंने भारत में एक ऐसा समाज और सरकार देखी जो आर्थिक उदारीकरण की राजनीतिक संभाव्यता और फायदों को लेकर आश्वस्त नहीं थी. हर स्तर पर नेता देश की संपत्ति के दोहन के नये तरीके पा चुके थे और उनके साथ थे लालची विदेशी और बड़ी-बड़ी भारतीय कंपनियां व बैंक. ये लोग अनुबंध, अनुमति और लाइसेंस पाने के लिए नेताओं की जेबें भरने को आतुर दिख रहे थे. जान लिखते हैं कि अस्सी के दशक में जहां भ्रष्टाचार के पक्ष में गॉसिप करने का रिवाज नहीं था, अब यह चीज आम थी. कुछ मंत्रलयों के वरिष्ठ अधिकारियों का नाम प्रमुख परियोजनाओं और वित्तीय अनुमतियों के साथ जोड़ा जा रहा था. भारत एक ऐसी जगह के रूप में उभर रहा था जहां हर सौदे के पीछे गैरकानूनी लेन-देन है, जहां नेता और ब्यूरोक्रेट देश की संपत्ति लूटने के लिए उद्यमियों के साथ गंठजोड़ कर रहे हैं, जहां कल्याण के बजट को गरीबों से दूर रखा जा रहा है, जहां जमीन से लेकर कोयला व जंगल जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर डाका डालने का काम चल रहा है जिससे ये लोग अपनी आनेवाली पीढ़यिों का भविष्य पारिवारिक राजनीतिक साम्राज्यों के जरिये सुरिक्षत रख सकें. जान ने जो लिखा है, इसे शायद ही कोई नकारे. याद करिए कि केंद्र में जब पहली भाजपा सरकार बनी थी तो प्रमोद महाजन ने मंत्री बनने के तुरंत बाद क्या किया था? देवेगौड़ा सरकार में सीएम इब्राहिम ने क्या किया था? बाद की सरकारों में क्या-क्या होता रहा, यह तो सबको याद ही है. किसी भी देश या समाज को विफल करने के कारकों में भ्रष्टाचार सबसे अहम होता है. सरकारी और निजी, दोनों ही सेक्टर मानने लगते हैं कि पैसे के दम पर ठेका तो हासिल कर ही सकते हैं और यदि कोई दिक्कत आयी तो उससे भी बाहर निकल सकते हैं. यह माहौल उद्यमियों, राजनीतिकों व नौकरशाहों की गाड़ी की ग्रीजिंग करता रहा. इसने देश के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर 2011 के पहले के आर्थिक बूम को जन्म दिया जो कृत्रिम था. इस माहौल ने अक्षमता और कमजोर प्रदर्शन की गाड़ी में भी तेल भरा. लेकिन 2011 में यह भांडा बड़े स्तर पर फूटना शुरू हुआ. नीरा राडिया, 2जी और कोयला घोटाले जैसे लाखों करोड़ के खेल सामने आये. सारा उत्साह ध्वस्त हो गया मिडिल क्लास का. कुछ नये लोग सामने आये इसके खिलाफ और साथ ही कुछ अतिबुद्धिमान लोग जो इस खेल में शामिल थे. वे बहुत ही महीन तरीके से इस पूरे माहौल के खिलाफ माहौल बनाने में लग गये. कारपोरेट्स व प्रोफेशनल्स की मदद से वे माहौल बनाने में न सिर्फ कामयाब रहे, बल्कि अपने को विकल्प के तौर पर भी दिखाने लगे.
1991 में पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार बनी, तब अर्थव्यवस्था की हालत बहुत खराब थी. राव ने रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे और योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे डॉ मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया. उनको अर्थव्यवस्था को खोलने की पूरी छूट दी गयी. डॉ मनमोहन सिंह 1972 से 1976 तक वित्त मंत्रलय में मुख्य आर्थिक सलाहकार थे और 1976 में वह वित्त मंत्रलय में सचिव बने. 1982 में इंदिरा गांधी ने उन्हें रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाया और फिर 1985 में राजीव गांधी ने उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया. यानी नियंत्रित अर्थव्यवस्था के दौर में भी वह भारतीय अर्थव्यवस्था को दिशा देने वाले प्रमुख पदों पर रहे. इसके बाद वह 1991 से 1995 तक भारतीय अर्थव्यवस्था को खोलने में पूरी शिद्दत से जुट गये. उनकी छवि जबरदस्त बनी. उस दौरान लगभग हर विपक्षी नेता (लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, चंद्रशेखर, वीपी सिंह, देवीलाल, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, रामकृष्ण हेगड़े, एनटी रामाराव आदि) और दल उदारीकरण के विरोध में था, लेकिन डॉ मनमोहन सिंह की छवि इतनी मजबूत थी कि सभी आंदोलन धराशायी रहे और जब 1996 में जनता दल की सरकार बनी तो डॉ मनमोहन सिंह के शिष्य पी चिदंबरम को वित्त मंत्री बनाया गया जिससे अर्थव्यवस्था डॉ सिंह द्वारा निर्धारित राह पर ही चलती रहे. भाजपा की सरकार आयी तो यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह ने वित्त मंत्रलय संभाला क्योंकि ये लोग भी उदार अर्थव्यवस्था के हिमायती थे. 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार बनी और सोनिया गांधी ने उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया. लेकिन 1991 से 1995 के बीच अर्थव्यवस्था को उदारीकरण की राह पर डाल कर सर्वत्र प्रशंसा हासिल करने वाले डॉ मनमोहन प्रधानमंत्री के रूप में न सिर्फ सबसे कमजोर प्रधानमंत्री के रूप में सामने आये, बल्किअर्थव्यवस्था को कुव्यवस्था और लूट का शिकार बनाने के कलंक का टीका भी उनके माथे पर लगा.
अभी जान इलियट की भारत पर एक किताब आयी है. इस किताब का नाम है 'इम्प्लोजन - इंडियाज ट्रिस्ट विद रीयलिटी'. जान 80 के दशक में फाइनेंशियल टाइम्स के लिए दिल्ली से रिपोर्टिग करते थे. 1988 से 1995 के बीच वह हांगकांग में रहे और फिर दिल्ली आ गये. ऊपर दिये गये सवालों का जवाब तलाशने में उनकी यह किताब काफी मदद कर सकती है. वह लिखते हैं कि अस्सी के दशक में जब मैं दिल्ली में था तब भ्रष्टाचार कम था और 1995 में जब मैं दिल्ली आया तो मुङो उम्मीद थी कि उदारीकरण के बाद भारत की आर्थिक संभावनाएं जबरदस्त रूप से बढ़ चुकी होंगी, लेकिन मैंने भारत में एक ऐसा समाज और सरकार देखी जो आर्थिक उदारीकरण की राजनीतिक संभाव्यता और फायदों को लेकर आश्वस्त नहीं थी. हर स्तर पर नेता देश की संपत्ति के दोहन के नये तरीके पा चुके थे और उनके साथ थे लालची विदेशी और बड़ी-बड़ी भारतीय कंपनियां व बैंक. ये लोग अनुबंध, अनुमति और लाइसेंस पाने के लिए नेताओं की जेबें भरने को आतुर दिख रहे थे. जान लिखते हैं कि अस्सी के दशक में जहां भ्रष्टाचार के पक्ष में गॉसिप करने का रिवाज नहीं था, अब यह चीज आम थी. कुछ मंत्रलयों के वरिष्ठ अधिकारियों का नाम प्रमुख परियोजनाओं और वित्तीय अनुमतियों के साथ जोड़ा जा रहा था. भारत एक ऐसी जगह के रूप में उभर रहा था जहां हर सौदे के पीछे गैरकानूनी लेन-देन है, जहां नेता और ब्यूरोक्रेट देश की संपत्ति लूटने के लिए उद्यमियों के साथ गंठजोड़ कर रहे हैं, जहां कल्याण के बजट को गरीबों से दूर रखा जा रहा है, जहां जमीन से लेकर कोयला व जंगल जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर डाका डालने का काम चल रहा है जिससे ये लोग अपनी आनेवाली पीढ़यिों का भविष्य पारिवारिक राजनीतिक साम्राज्यों के जरिये सुरिक्षत रख सकें. जान ने जो लिखा है, इसे शायद ही कोई नकारे. याद करिए कि केंद्र में जब पहली भाजपा सरकार बनी थी तो प्रमोद महाजन ने मंत्री बनने के तुरंत बाद क्या किया था? देवेगौड़ा सरकार में सीएम इब्राहिम ने क्या किया था? बाद की सरकारों में क्या-क्या होता रहा, यह तो सबको याद ही है. किसी भी देश या समाज को विफल करने के कारकों में भ्रष्टाचार सबसे अहम होता है. सरकारी और निजी, दोनों ही सेक्टर मानने लगते हैं कि पैसे के दम पर ठेका तो हासिल कर ही सकते हैं और यदि कोई दिक्कत आयी तो उससे भी बाहर निकल सकते हैं. यह माहौल उद्यमियों, राजनीतिकों व नौकरशाहों की गाड़ी की ग्रीजिंग करता रहा. इसने देश के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर 2011 के पहले के आर्थिक बूम को जन्म दिया जो कृत्रिम था. इस माहौल ने अक्षमता और कमजोर प्रदर्शन की गाड़ी में भी तेल भरा. लेकिन 2011 में यह भांडा बड़े स्तर पर फूटना शुरू हुआ. नीरा राडिया, 2जी और कोयला घोटाले जैसे लाखों करोड़ के खेल सामने आये. सारा उत्साह ध्वस्त हो गया मिडिल क्लास का. कुछ नये लोग सामने आये इसके खिलाफ और साथ ही कुछ अतिबुद्धिमान लोग जो इस खेल में शामिल थे. वे बहुत ही महीन तरीके से इस पूरे माहौल के खिलाफ माहौल बनाने में लग गये. कारपोरेट्स व प्रोफेशनल्स की मदद से वे माहौल बनाने में न सिर्फ कामयाब रहे, बल्कि अपने को विकल्प के तौर पर भी दिखाने लगे.
Wednesday 23 April 2014
कब आएगी खां साहब को सदबुद्धि!
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के एक नेता है खां साहब। उनकी हालत है कि काम के न काज के, मन भर अनाज के। मतलब साफ है कि खां साहब जब से राजनीति में है, उनके नाम पर कोई ऐसी उपलब्धि नहीं है, जिसके लिए उन्हें याद किया जाए। रामपुर में उन्होंने जौहर विश्वविद्यालय नेताजी (मुलायम सिंह यादव) की कृपा से स्थापित कर रखा है, जिसे लेकर वह आए दिन इतराते रहते हैं। 16वीं लोकसभा के चुनाव में वह एक बार फिर सुर्खियों में है। वैसे उत्तर प्रदेश में वह सेकुलर होने का दंभ भरते हैं, पर आम आदमी के बीच वह कम्यूनल राजनीति के लिए ही पहचाने जाते हैं। मुजफ्फरनगर के दंगे को ले तो अभी भी वह भयवश वहां नही जा रहे हैं और इसके पीछे वह लंबी तकरीर किया करते हैं। देश के निर्वाचन आयोग द्वारा बार-बार उन्हें टोंका जा रहा है, पर वह मानने को तैयार नहीं हैं। वह खुद को आयोग से भी ऊपर मानते हैं। यह देश की राजनीति के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। सबसे ज्यादा दुर्भाग्यपूण नेताजी के लिए है। अभी उन्हें खां साहब की यह आदतें भले ही अच्छी लग रही हों, पर आने वाले दिनों में उनके लिए खतरनाक साबित होंगी। शायद इसका भान नेताजी को अभी नहीं हैं। हों भी क्यो? इस समय उनके बेटे अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता मोहम्मद आजम खान के खिलाफ जारी किए गए इस कारण बताओ नोटिस के कुछ ही दिन पहले उनकी विवादास्पद टिप्पणियों के लिए आयोग ने उन पर उत्तर प्रदेश में प्रचार करने पर प्रतिबंध लगाया था। आयोग ने आजम खान से शुक्रवार शाम तक जवाब दाखिल करने को कहा है। अन्यथा आयोग आगे उनसे जिक्र किए बगैर निर्णय लेगा। इस बात की चेतावनी भी जारी की है। आयोग ने कहा कि उसने गहरी चिंता के साथ यह गौर किया कि प्रतिबंध के बावजूद आजम खान ने दुराग्रहपूर्वक, लगातार और जानबूझकर चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन किया है। नोटिस के मुताबिक खान ने संभल, रामपुर और बिजनौर में नौ और दस अप्रैल को भड़काऊ भाषण दिए जो समाज के विभिन्न समुदायों के बीच मौजूदा मतभेदों को बढ़ा सकते हैं और वैमनस्य पैदा कर सकते हैं। नोटिस में कहा गया है कि आयोग को ऐसी खबरें, शिकायतें मिली हैं कि चुनाव आयोग के 11 अप्रैल के आदेश का उसकी सही भावना के अनुरुप पालन करने की बजाय उन्होंने एक टीवी इंटरव्यू के दौरान उक्त आदेश में दिए गए निर्देशों में गतिरोध पैदा करने का प्रयास किया। आयोग ने कहा कि खान ने चुनाव आयोग के खिलाफ बिलकुल निराधार और अभद्र आरोप लगाए हैं। उन्होंने प्रथम दृष्टया चुनाव आचार संहिता के विभिन्न प्रावधानों का उल्लंघन किया है। आयोग ने इस महीने की शुरुआत में नरेन्द्र मोदी के करीबी सहयोगी अमित शाह और सपा नेता आजम खान के भड़काऊ भाषणों को लेकर उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करते हुए उन पर उत्तर प्रदेश में चुनावी सभा करने, प्रदर्शन करने या रोड शो करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। साथ ही अधिकारियों को उनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज करने का निर्देश दिया था। आयोग ने बाद में अमित शाह के खिलाफ लगे प्रतिबंध को शाह द्वारा दाखिल किए गए इस आश्वासन के बाद उठा लिया था कि वह ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिससे चुनावी माहौल बिगड़े। आजम खान ने यह आरोप लगाकर विवाद पैदा कर दिया था कि 1999 का कारगिल युद्ध मुसलमान सैनिको ने लड़ा था और जीता था। उन्होंने हाल में गाजियाबाद की एक चुनावी सभा में कहा था कि कारगिल की पहाडि़यों को फतह करने वाले सैनिक हिन्दू नहीं बल्कि मुसलमान थे। अब खां साहब अपने इन बयानों पर गौर नहीं कर रहे हैं। उलट आयोग पर दोषारोपण कर रहे हैं। हंसी तो तब आती है, जब समाजवादी पार्टी भी उनके इसी सुर में सुर मिलाती है। समझ में नहीं आता कि इन खां साहब को सद्बुद्धि कब आएगी।
Saturday 12 April 2014
तुक्के पर नहीं सधा मुलायम सिंह का तीर!
समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव भले ही डाक्टर राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश जी को अपना आदर्श पुरूष बताते है पर सच यह है कि उनके विचारों पर वह कभी एक कदम भी नहीं चलते। हो सकता कि इन महान पुरूषों के विचारों से उनका कोई लेना देना भी न हो। राजनैतिक फायदे के लिए एक बैनर लगा रखा है। मुलायम सिंह की राजनीतिक उंचाई में एक बात झलकती है वह है तीर तुक्के की राजनीति। हर समय उन्होंने परिस्थियों को देखकर तीर चलाया। तीर सही तुक्के पर बैठ गया तो राजनीति चमक गयी। सही कहा जाए तो समाजवादी पार्टी इसी तरह की राजनीति की उपज है। वैसे भी हम सभी लोग यह बात भली-भांति जानतेे है कि इस समय देश में 16वी लोकसभा के गठन के लिए चुनाव हो रहे है। तमाम राजनीतिक दल और उनके प्रत्याशी अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए चुनाव मैदान में है। सरकार किसकी बनेगी और प्रधानमंत्री कौन होगा यह 16 मई को आने वाले परिणाम केे बाद ही पता चलेगां। चुनाव जीतने के लिए तमाम तरह के हथंकडे अपनाने पड़ते है, झूठ-सच बोलना पड़ता है, गड़े मुर्दे उखाड़ने होते है ताकि मतदाताओं की नजर में अपनी और पार्टी की छबि बनाई जा सके तथा सत्ता प्राप्त की जा सके। इस समय चुनाव मैदान में एक-दूसरे को नीचा दिखाने और मेरी कमीज उसकी उसकी कमीज से ज्यादा साफ साबित करने के लिए नित नये स्वांग रचे जा रहे है जिसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं। लोकतन्त्र में पक्ष के साथ ही विपक्ष का भी होना निहायत ही जरूरी होता है वरना सत्तारूढ़ दल मनमानी पर उतर आता है और लोकतंात्रिक मूल्यों का ह्रास होने लगता है। कहा जाता है कि ‘एवरी थिंग इस फेयर इन लव एण्ड वार‘ इसी कहावत को हमारे स्टार प्रचारक और नेता सच साबित करने में लगे है। ये सारे नाटक, सारे आरोप, प्रत्यारोप, एक दूसरे के विरूद्ध अनर्गल बयानबाजी तथा व्यक्तिगत, जाति एवं धार्मिक हमले 16 मई आते-आते पूरी तरह से समाप्त हो जायेगे। यह बात हम सभी जानते है क्योंकि हर पांच साल बाद ये ‘री टेक‘ होता है। चुनाव प्रचार के दौरान नेताओं के द्वारा एक दूसरे के विरूद्ध की गयी टिप्पणियों को नेतागण कतई दिल पर नहीं लेते है क्योंकि वे जानते है कि कब किससे और कहां हांथ मिलाना पड़ जाये। यही अपेक्षा पार्टी प्रमुख तथा चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी अपने मतदाताओं से भी करते है लेकिन चुनाव के दौरान मतदाता की बुद्धि और विवेक चूकि लच्छेदार भाषणो के जरिये कुन्द हो जाती है इसलिए उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आता है और वे मरने-मारने पर उतारू हो जाते है जबकि नेतागण चुनाव प्रचार का जब हेलीकाप्टर से लौटकर एयरपोर्ट पर उतरते है तो एक दूसरे का अभिवादन जरूर करते है और कुशल क्षेम भी पूंछते है। ऐसे में मैं समझ नहीं पाता हूं कि मतदाता आमने-सामने आने पर एक दूसरे के साथ भिड़ने तथा मरने मारने के लिए क्यों तैयार हो जाते है? क्यों उन नेताओं से सबक नहीं सीखते है जो चुनाव प्रचार के दौरान एक दूसरे के विरूद्ध आग बबूला होने वाले एअरपोर्ट की वीआईपी लाउन्ज में एक साथ बैठकर काफी पीते है।
अब मैं यहां सपा प्रमुख मुलायम सिंह के उस भाषण का जिक्र कर रहा हूं जिसके कारण तमाम थूका-फजीहत हो रहीं है, उन्हें तमाम भला बुरा कहा जा रहा है, लानत-मलानत की जा रहीं है-
‘‘मुलायम सिंह का कहना था कि लड़के भूलवश या नादानी में बलात्कार कर बैठते है, लिहाजा उन्हें फांसी जैसी कड़ी सजा नहीं होनी चाहिये। उनके मुताबिक सहमति से सम्बन्ध बनाने वाली एक परिचित लड़की ही किसी बात से नाराज होकर लड़के पर बलात्कार का आरोप लगा देती है।‘‘ सपा प्रमुख ने यह बयान कोई हड़बड़ी में नहीं दिया और न ही उनके जैसे वरिष्ठ राजनेता से यह उम्मीद की जा सकती है कि वे बगैर कुछ सोचे समझे ऐसे सवेदनशील मुद्दे पर बयान देंगे। अब प्रश्न यह उठता है कि तो फिर उन्होने ऐसा बयान क्यों दिया? पाठकों को यह समझना होगा कि मुरादाबाद के लगभग 17 लाख मतदाताओं में से 40 प्रतिशत मतदाता मुस्लिम हैं। सपा प्रमुख की सभा भी जिस जामा मस्जिद पार्क इलाके में हो रही थी वह भी मुस्लिम बहुल इलाका है। मुम्बई रेप कांड में फांसी की सजा पाने युवक भी मुस्लिम वर्ग के हैं। इस बात को ध्यान में रखकर नेताजी ने यह बयान दिया ताकि मतों का धुव्रीकरण हो सके और युवा वर्ग का समर्थन भी मिल सके। मैं इस बयान कि क्रिया और प्रतिक्रिया में नहीं जाना चाहता हूं और न ही इसका विश्लेषण करना चाहता हूं कि चुनाव में सपा को कितना फायदा होगा या नुकसान? इस बयान के मद्देनजर मैने केवल इतना समझा है कि यह बयान अन्य सवेंदनशील बयानों कि ही तरह ‘राजनीतिक बयान‘ है जिसका वास्तविकता से कुछ भी लेना देना नहीं। इसके पीछे की सोच केवल और केवल वोट हथियाना है। जैसा कि अब तक मुलायम सिंह करते आए हैं। यह बात अलग है कि जनता जागरूक हो रही है और हर बयान के मायने निकालने लगी है। फिलहाल यह पहली बार हुआ जब मुलायम सिंह का तीर तुक्के पर सही नहीं बैठ सका।
अब मैं यहां सपा प्रमुख मुलायम सिंह के उस भाषण का जिक्र कर रहा हूं जिसके कारण तमाम थूका-फजीहत हो रहीं है, उन्हें तमाम भला बुरा कहा जा रहा है, लानत-मलानत की जा रहीं है-
‘‘मुलायम सिंह का कहना था कि लड़के भूलवश या नादानी में बलात्कार कर बैठते है, लिहाजा उन्हें फांसी जैसी कड़ी सजा नहीं होनी चाहिये। उनके मुताबिक सहमति से सम्बन्ध बनाने वाली एक परिचित लड़की ही किसी बात से नाराज होकर लड़के पर बलात्कार का आरोप लगा देती है।‘‘ सपा प्रमुख ने यह बयान कोई हड़बड़ी में नहीं दिया और न ही उनके जैसे वरिष्ठ राजनेता से यह उम्मीद की जा सकती है कि वे बगैर कुछ सोचे समझे ऐसे सवेदनशील मुद्दे पर बयान देंगे। अब प्रश्न यह उठता है कि तो फिर उन्होने ऐसा बयान क्यों दिया? पाठकों को यह समझना होगा कि मुरादाबाद के लगभग 17 लाख मतदाताओं में से 40 प्रतिशत मतदाता मुस्लिम हैं। सपा प्रमुख की सभा भी जिस जामा मस्जिद पार्क इलाके में हो रही थी वह भी मुस्लिम बहुल इलाका है। मुम्बई रेप कांड में फांसी की सजा पाने युवक भी मुस्लिम वर्ग के हैं। इस बात को ध्यान में रखकर नेताजी ने यह बयान दिया ताकि मतों का धुव्रीकरण हो सके और युवा वर्ग का समर्थन भी मिल सके। मैं इस बयान कि क्रिया और प्रतिक्रिया में नहीं जाना चाहता हूं और न ही इसका विश्लेषण करना चाहता हूं कि चुनाव में सपा को कितना फायदा होगा या नुकसान? इस बयान के मद्देनजर मैने केवल इतना समझा है कि यह बयान अन्य सवेंदनशील बयानों कि ही तरह ‘राजनीतिक बयान‘ है जिसका वास्तविकता से कुछ भी लेना देना नहीं। इसके पीछे की सोच केवल और केवल वोट हथियाना है। जैसा कि अब तक मुलायम सिंह करते आए हैं। यह बात अलग है कि जनता जागरूक हो रही है और हर बयान के मायने निकालने लगी है। फिलहाल यह पहली बार हुआ जब मुलायम सिंह का तीर तुक्के पर सही नहीं बैठ सका।
Friday 11 April 2014
आश्चर्य! सत्ता पक्ष ही लड़ रहा विपक्ष से
16वीं लोकसभा के लिए हो रहा चुनाव वाकई में ऐतिहासिक है। इस चुनाव मेें पहली बार ऐसा दिख रहा है कि सत्ता पक्ष ही विपक्ष से लड़ रहा है। सोनिया गांधी, राहुल के साथ ही सभी पार्टियों के पास आज अपनी अच्छाई बताने के बजाय केवल नरेन्द्र मोदी की कमी गिनाना मुद्दा रह गया है। यूपीए अध्यक्ष सोनिया और राहुल की सभाओं में तो लोग ऊबते नजर आ रहे हैं। राहुल अक्सर कहते हैं कि हम देश के लोगों को शक्ति देना चाहते हैं। उनसे कौन कहे कि देश की जनता देख रही है कि जिस व्यक्ति प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति की शक्ति छीन ली हो, वह देश के आम नागरिक को कैसे शक्ति दे सकता है। सच्चाई अगर देखी जाए तो आज सोनिया को देश सिर्फ इसलिए बर्दाश्त कर रहा है कि वह राजीव जी की पत्नी और इंदिरा गांधी की बहू हैं। राहुल और प्रियंका इसलिए महत्वपूर्ण है कि वह राजीव जी के बेटे और इंदिरा जी के नाती है। इसके सिवाय इन लोगों के निजी जीवन की ऐसी कोई खास उपलब्धि नहीं है, जिससे लोग इन्हें याद कर सकें। अगर इन लोगों का आचरण ऐसे ही रहा तो धीरे-धीरे इन लोगों का यह वजन भी उसी तरह से खत्म हो जाएगा, जैसे महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री के परिवार के लोगों का। राहुल को यह बताना चाहिए कि चुनाव का प्रचार करने के लिए आखिर देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्यों नहीं निकल रहे हैं। वह न तो मीडिया में दिख रहे हैं, न सोशल मीडिया में और न ही कार्यकर्ताओं के बीच। आखिर राहुल जी ने मनमोहन सिंह को कौन सी शक्ति दे रखी है कि वे इस कदर शक्तिहीन हो गए है कि चुनाव के दौरान अपनी बात भी नहीं कह पा रहे हैं। राहुल जी को यह भी बताना चाहिए कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में उनका संगठन कहां पर है, जिस प्रदेश से वह खुद चुनाव लड़ा करते हैं। सवाल है कि जो अपने संगठन और सरकार में बैठे लोगों को शक्ति नहीं देना चाहता है, वह आम आदमी को कैसे शक्ति दे सकेगा। पिछले दस साल से सरकार आखिर किसकी रही। राहुल जी जो सपने दिखा रहे हैं, उसे पूरा करने के लिए क्या दस साल कम होते हैं। ऐसा करके राहुल जी लोगों का ध्यान मौजूदा परिस्थियों से भटकाना चाह रहे, जिससे आम आदमी अब जान चुका है।
Thursday 10 April 2014
आजम साहब! गुस्ताखी मॉफ
अरे भाई आजम साहब, आपने यह क्या किया। यूपी को ऊपी कहने वाले समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह को आप पर नॉज है। शायद इसी वजह से 2012 में विधानसभा चुनाव से पहले आपको समाजवादी पार्टी में लाने के लिए उन्होंने भरपूर अंदाज में नाटक किया था। उस नाटक में आपका भी गजब का किरदार रहा। शिवपाल भाई ने नेता प्रतिपक्ष पद का त्याग पत्र लिखकर आप को दिया और आप ने उसे फाडकर फेंक दिया। बेशक ऐसा करना उस उस लॉजिमी था। मुलायम सिंह के कहने पर ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने आपको प्रयाग में लगने वाले कुंभ मेले का प्रभारी बनाया। अब जब भारतीय लोकतंत्र का महाकुंभ मेला चल रहा है तो आप अपने असली रंग में आ गए। उत्तर प्रदेश के किसी भी नागरिक को आपसे ऐसी उम्मीद नहीं रही। आप केवल मुसलमानों के मसीहा नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश के हिन्दुओं में भी आपकी लोकप्रियता है। दुख है के आपने अपनी इस लोकप्रियता का सकारात्मक उपयोग करने की कोशिश नहीं की। आपको लगता है कि मुस्लिम कट्टरवाद दिखाकर ही हम मुलायम सिंह के करीबी बने रह सकते हैं। यह आपकी भूल है। जिस दिन मुलायम सिंह को लगेगा कि आप उनके लिए वोट का इंतजाम नहीं कर सकते, उसी दिन से आपका काम खतम। कम से कम अब तो सुधर जाईए। ऐसी बातें बोलिए जो हर सम्पद्राय के लोगों को अच्छी लगे। जिस समय करगिल का युद्ध हुआ था, हमें याद है इस देश का हर नागरिक रोया था। क्या हिन्दू, क्या मुसलमान। क्या सिख, क्या ईसाई। भाई अखिलेश यादव की तारीफ करूंगा कि उन्होंने इस मसले पर अपनी राय बेबाकी से रखी। अगर आजम साहब आप मुसलमानों के हिमायती हैं तो आज तक मुजफ्फरनगर की धरती पर क्यों नहीं गए। जहां हमारी मुस्लिम माताओं ने अपने दिल के टुकड़ें को ठंड से मरते देखा। जहां हमारे मुसलमान नौजवान भाईयों ने आंख के सामने सपने को चूर होते देखा। अब चुनाव आ गया है तो आप मुसलमानों का मसीहा बनने की कोशिश में पूरी कौम को हाशिए पर लाने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा करने में आपकों शर्म आनी चाहिए शर्म।
Tuesday 8 April 2014
लोकतंत्र पर धनबल का काला साया
तमिलनाडु़ में लोकसभा चुनाव मैदान में उतरे 1318 उम्मीदवारों में से छह उम्मीदवार ऐसे हैं, जिनकी गणना करोड़पति नहीं बल्कि महाकरोड़पति में की जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। छह उम्मीदवारों के पास सौ करोड़ से अधिक की सम्पत्ति है। यह सम्पत्ति उनके द्वारा दिए गए शपथपत्र में घोषित की गयी है। इसके अलावा करोड़पति प्रत्याशियों की संख्या को तो कहने ही क्या है। नंदन नीलकेणि, अरुण जेटली, हेमामालिनी जैसे कई ऐसे उम्मीदवार हैं, जिनके पास करोड़ों की सम्पत्ति है। पिछले 67 सालों में हमारे लोकतंत्र में कई बड़े बदलाव आए हैं। एक तरफ दलितों, पिछड़ों की भागीदारी मजबूत हुई है, तो दूसरी तरफ यह धारणा भी बनी है कि भारतीय लोकतंत्र धनबल का दास बन गया है। एक-दो दशक पहले तक बाहुबल का बोलबाला था, लेकिन चुनाव आयोग की सक्रियता से इस पर काबू पा लिया गया। बूथ पर कब्जे और डरा-धमका कर वोट डलवाने की बातें पुरानी हो चुकी हैं। अब चुनावों पर धनबल का काला साया है। आज आर्थिक संसाधन से हीन, किसी व्यक्ति के लिए चुनाव लड़ने की कल्पना करना भी कठिन है। छोटी पार्टियों के लिए, नैतिकता में विश्वास रखनेवाली पार्टियों के लिए चुनाव गैरबराबरी का मैदान बन गया है। झारखंड में एक-एक प्रत्याशी सिर्फ बूथ प्रबंधन पर औसतन 30 लाख रुपए खर्च कर रहा है। यह तो वह रकम है जो नेता-कार्यकर्ता स्वीकार कर रहे हैं। वास्तविक आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा हो सकता है। आज लोकसभा चुनाव में खर्च की कानूनी अधिकतम सीमा 70 लाख रुपए कर दी गयी है। पर जमे-जमाए नेता इससे ज्यादा ही रकम खर्च करते हैं। अब जिन प्रत्याशियों और पार्टियों के पास इतना पैसा नहीं है, वो तो दौड़ में पहले ही पीछे हो जाते हैं। सवाल है कि आखिर चुनाव लड़ना इतना महंगा क्यों हो गया है? क्यों भाड़े के कार्यकर्ताओं की जरूरत पड़ रही है? क्यों वोटरों में पैसा बांटना पड़ता है? जवाब सीधा है अब मुख्यधारा की राजनीति बदलाव के लिए, अपने विचारों के लिए संघर्ष का औजार नहीं रह गयी है। यह धंधा बन गयी है। यानी, इस हाथ ले और उस हाथ दे। जब नेता जी चुनाव सिर्फ अपने निजी हित के लिए जीतना चाहते हैं, तो कार्यकर्ता और जनता भी क्यों न उनसे अधिक से अधिक उगाहने की सोचें। कुल मिला कर, राजनीति अब पूरी तरह पैसे का खेल बन चुकी है। बाहुबल हमारी राजनीति में सामंतवाद के वर्चस्व का प्रतीक था, तो अब धनबल राजनीति के पूंजीवाद में संक्रमण को बता रहा है। सांठगांठ पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) ने बड़े राजनीतिक दलों को इफरात धन उपलब्ध कराना शुरू कर दिया है। यह धन पूरी राजनीति को विकृत कर रहा है। अब व्यापक चुनाव सुधारों के बिना धनबल पर लगाम मुश्किल है। यह दौर राजनीति पर पूंजीपतियों के कब्जे का दौर कहा जाय तो गलत नहीं होगा। राजनीति पर कब्जा जमाने के बहाने कहीं न कहीं सत्ता पर काबिज होने की पूंजीपतियों की यह साजिश है। ऐसे में देश में वैचारिक राजनीति का धरातल क्या बचा रह पाएगा। यह एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है।
Sunday 6 April 2014
मनमोहन को लग गई परिवर्तन की 'आहट'
मनमोहन सिंह अर्थशास्त्री है। राजनीति में आने से पहले वह भारत जैसे महान देश के गवर्नर रहे। इस देश की महानता रही है कि जिसने परिवर्तन की आहट को महसूस किया और उसके अनुरुप खुद को ढाल लिया तो वह इतिहास पुरुष बन गया। अगर हम द्वापर युग की बात करे तो परिवर्तन की इसी आहट को महात्मा विदुर ने महसूस किया था। त्रेता युग में देखे तो परिवर्तन की इसी आहट को विभीषण ने महसूस किया था। वैसे भी भारत की महानता है कि यहां प्रकृति भी परिवर्तनशील है। यहां की ऋतुए परिवर्तनशील हैं। नदियां और पहाड़ और पठार परिवर्तनशील है। मौजूदा समय में शरद ऋतु परिवर्तित हो रही है और ग्रीष्म ऋतु दस्तक दे रहा है। सो इस गर्माहट के आहट को भांप जिम्मेदार नागरिक गर्मी की झुलसाती हुई तपिश से बचने का इंतजाम करने लगे हैं। कोई घर की एसी ठीक करा रहा है तो कोई कूलर ठीक करा रहा है। गांव में कोई चौबारा ठीक करा रहा है तो कोई ठंडे पानी का इंतजाम करने के लिए मटके की व्यवस्था कर रहा है। ऐसे ही इस देश की सत्ता के परिवर्तन का भी मौसम आ गया है। चुनाव का ऐलान हो गया है। अब रानीतिक दलों के पहलवान अपनी-अपनी बात लेकर मैदान में कूद गए है। फैसला यहां की आम जनता को करना है। यह जनता वही है जो पिछले एक दशक से मंहगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी की तपिश से झुलस रही है। इस तपिशभरी झुलसन के बचने के लिए उसके पास एक मौका आया है। इससे बचने के लिए वह कैसा इंतजाम करेगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। पर इतना जरुर है कि इस देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस परिवर्तन की आहट लग गयी है। हम ऐसा इस आधार पर कह रहे हैं कि उनके लिए मोतीलाल नेहरु मार्ग पर एक बंगला तैयार किया जा रहा है, जहां वह 16 मई को आने वाले लोकसभा परिणाम से पहले ही सेवानिवृत्ति प्रवास के लिए जा सकते हैं। पीएमओ कार्यालय ने केंद्रीय लोकनिर्माण विभाग (सीपीडब्ल्यूडी) को 30 अप्रैल 2014 तक बंगले में सभी काम पूरा करने के निर्देश दिए हैं, ताकि मनमोहन सिंह इस तारीख के बाद कभी भी वहां स्थानांतरित हो सकें। सीपीडब्ल्यूडी, 3 मोतीलाल नेहरु मार्ग पर बंगले का नवीनीकरण कर रहा है जिसे दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने फरवरी में खाली किया था। मनमोहन सिंह और उनकी पत्नी गुरशरण कौर ने बंगले के चयन से पहले फरवरी में इसे देखा था । फिलहाल वे 7 रेसकोर्स रोड स्थित प्रधानमंत्री के आधिकारिक आवास में रह रहे हैं। सन 1920 में निर्मित चार शयनकक्षों वाला यह बंगला 3.5 एकड़ से अधिक क्षेत्र में फैला है और इसमें एक जैव विविधता पार्क भी है । इसमें कार्यालय की जगह है जो किसी प्रधानमंत्री की जरुरतों को पूरा करती है। बंगले पर दोबारा से रंग रोगन किया गया है और सभी तल, छत तथा प्लास्टर खराबी को दुरुस्त किया गया है। एसपीजी ने बंगले का कई बार सर्वेक्षण किया है। सीपीडब्ल्यूडी के अधिकारियों ने कहा कि एसपीजी जल्द ही जरुरतों की सूची सौंप सकती है, जिसके आधार पर सुरक्षा प्रबंधों के लिए ढांचा तैयार किया जाएगा। सुरक्षा इंतजामों में सीसीटीवी कैमरे और तलाशी बूथ शामिल होंगे। लुटियंस बंगले के आवंटन के साथ मनमोहन और उनकी पत्नी जीवनभर इस बंगले में रहने के हकदार होंगे। देश में चलरही सत्ता परिवर्तन की इस लहर को अगर मनमोहन सिंह ने समझ लिया है तो वह अकारण नहीं। आखिर पूरे जीवन उन्होंने इसी परिवर्तन को बारीकी से देखने का काम किया है और उसी के अनुरुप उसका अनुसरण भी किया है। मै समझ रहा हूं कि परिवर्तन की यह लहर अब बयार बन चुकी है। बयार चलेगी ही क्योंकि यह सत्ता के परिवर्तन की बयार है, मौसम के परिवर्तन की बयार है। इतना ही नही यह देश में एक राजनैतिक युग के परिवर्तन की बयार है।
Saturday 5 April 2014
कौन करेगा विश्व गुरू भारत की बात
आज भारत रो रहा है। इस देश पर हुकूमत करने का सपना पाले लोगों में से कोई भी भारत को विश्व गुरू बनाने की बात नहीं कर रहा है। कोई कांग्रेस मुक्त भारत की बात कर रहा है तो कोई मोदी मुक्त भारत बनाने के नाम पर वोट मांग रहा है। अरे भारतवासियों उस दिन को याद करो, जब दुनिया में हम चीख-चीख कर कहा करते थे, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई, आपस में हैं भाई-भाई। वह नारा कहां गया। 16वंी लोकसभा के चुनाव में कोई देश में मुसलमान के नाम पर वोट मांग रहा है तो कोई हिन्दू के नाम पर वोट मांग रहा है। कितना दुखद है कि पिछले कुछ वर्षों में भारत बेटियों की अस्मत बचाने में, पर्यटकों की इज्जत बचाने में, देश को भ्रष्टाचार से बचाने में नाकाम रहा है और इस देश को दुनिया में अपमान सहन करना पड़ा। आज भी देश में किसान रो रहा है। शिक्षित नौजवार रोजगार पाने के लिए दर-दर की ठोकर खा रहा है। महिलाए देह व्यापार करने के लिए मजबूर हो रही हैं। आदिवासी इलाकों में उनके जीवन के साथ क्रूर मजाक किया जा रहा है। वोट की खातिर दंगे कराए जा रहे हैं। इसके उलट देश में पूंजीपतियों ने भारतीय संस्कृति को अपनी मुटठी में ले लिया है। जिस देश में लोग पैदल चलकर वोट मांगा करते थे, आज वहां हेलीकॉप्टर से प्रचार करने का ग्लैमर दिखाया जा रहा है। वोट को शराब और नोटों से खरीदा जा रहा है। लोगों को लालच दी जा रही है। हैरत है कि किसी भी पार्टी के घोषणापत्र में (जो अब तक आ चुके हैं) भारत को विश्व गुरू का दर्जा दिलाने के दिशा में काम करने की बात नहीं की गयी है। किसी ने बेराजगार युवकों के हाथ में रोजगार उपलब्ध कराने की बात नहीं की है। किसी ने कृषि को रोजगार का दर्जा दिलाए जाने की बात नहीं की है। किसी ने राईट टू रोजगार की बात नहीं की है। महिलाओं पर चारों ओर हो रही हिंसा की घटनाओं पर रोक कैसे लगे, इसकी बात नहीं की है। बिगड़ते ग्रामीण परिवेश, नष्ट होते कुटीर उद्योग, धूमिल होती सांस्कृतिक विरासत को बचाने की बात किसी ने नहीं की है। सबसे दुखद तो यह रहा कि धर्म की ध्वजा को ऊंचा करने की बजाय एक धर्म गुरू ने तो बाकायदा एक पार्टी के लिए वोट देने का फतवा जारी कर दिया। उन्होंने ऐसा करके देश को साम्प्रदायिक विभाजन के कगार पर खड़ा कर दिया है। गांव में जहां लोग एक दूसरे परिवार को अपना भाई मानने की संस्कृति का पालन कर रहे हैं, वहीं देश के नेता उनके बीच विभाजन की रेखा खड़ा कर रहे हैं। हद है अगर सोच यही रही तो हमारा देश कहां जाएगा। देश के मतदाताओं को इस बात पर बहस करनी होगी और खूब सोच समझकर निर्णय लेना होगा। अगर निर्णय की इस घड़ी में चूक हो गयी तो पांच साल के लिए फिर पछतावा करना होगा।
Thursday 3 April 2014
सोमनाथ से विश्वनाथ जय यात्रा मोदी का चुनावी मंत्र
भारतीय इतिहास में दो घटनाओं का जिक्र ज्यादातर किया जाता है। एक है अयोध्यानरेश राजा दशरथ के पुत्र राम की पैदल यात्रा और दूसरा यदुनंदन भगवान श्रीकृष्ण का मथुरा छोड़कर द्वारिका को नई नगरी बसाना। प्राय: भारतवासी इसे धार्मिक कहानी समझकर बड़े चाव से सुना करते हैं पर भारतीय दर्शन के मर्मज्ञ इसकी व्याख्या राजनीति के उत्तम मानदंड को स्थापित करने के रुप में करते हैं। दशरथ नंदन भगवान राम की अयोध्या से श्रीलंका तक की यात्रा यूं ही नहीं रही। इस यात्रा के जरिए उन्होंने देश के उत्तरी भूभाग से लेकर दक्षिण के बीच एकात्म स्थापित किया। शायद यही कारण है कि आज उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक भगवान राम की पूजा होती है। दूसरा घटनाक्रम श्रीकृष्ण का लें तो मथुरा से द्वारिका जाने के पीछे भी यही कारण है। मथुरा से द्वारिका के बीच श्रीकृष्ण ने जो तादात्म्य स्थापित किया, उसका कोई और विकल्प नहीं हो सकता था। वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में यह दोनों घटनाए भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी की चुनावी यात्रा पर पूरी तरह से फिट बैठ रही है। इन दोनों घटनाओं का जिक्र करना हमने इस वजह से समीचीन समझा कि इन दिनों राजनीति के एक तबके द्वारा नरेन्द्र मोदी के दो स्थानों से चुनाव लड़ने पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं और उसके पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि दो स्थानों पर किसी भय के कारण चुनाव लड़ा जा रहा है। पर ऐसा नहीं है। हिन्दू आस्था में जिन 12 ज्योतिर्लिंगो की कल्पना की गई है। उनमें से एक गुजरात के सोमनाथ और दूसरा उत्तर प्रदेश के वाराणसी में विश्वनाथ के रुप में हैं। नरेन्द्र मोदी अकारण वाराणसी और वडोदरा दो स्थानों से चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। इसके पीछे वही परिकल्पना है कि सोमनाथ से लेकर विश्वनाथ के बीच एकात्म स्थापित हो सके। जो हवां मोदी के पक्ष में गुजरात से चली है, उसका असर उत्तर प्रदेश तक दिखाई दे। इसके लिए मोदी का वाराणसी से चुनाव लड़ना बेहद अनिवार्य है। इस चुनाव में मोदी ने सोमनाथ से विश्वनाथ की जय यात्रा को ही अपना चुनावी मूल मंत्र बना रखा है। अब तक आ रहे सर्वेक्षणों से साफ हो गया है कि मध्य और उत्तर भारत में मोदी की हवा चल रही है। इस हवा को रोकने के लिए कांग्रेस के साथ कई अन्य राज्य स्तर के छोटे दलों ने पूरी कोशिश की, पर उसका कहीं कोई असर देखने को नहीं मिल रहा है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश से तो कांग्रेस का सफाया होता दिख रहा है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और तमिलनाडु में जयललिता का असर देखने को मिल रहा है। ऐसे में कांग्रेस सशक्त विपक्ष की स्थिति में भी पहुंच पाने की हैसियत में नहीं दिख रही है। अमेरिका के झुकाव और कांग्रेस उम्मीदवारों में मची भगदड़ को देखने से भी साफ हो जा रहा कि मोदी की इस सोमनाथ से विश्वनाथ की जय यात्रा अब रुकने वाली नहीं है।
Tuesday 1 April 2014
दिल पर रखकर हाथ कहिए, देश क्या आजाद है
रमेश पाण्डेय
हम हर साल आजादी की वर्षगांठ बड़ी धूमधाम से मनाते आए हैं, बड़े गर्व के साथ खुद को आजाद कहलवाते हैं लेकिन अफसोस कि जब सच सामने आता है तो हमारे पास मुंह तक छिपाने के लिए कोई जगह नहीं बचती। हम दुनिया की उन घूरती आंखों का सामना नहीं कर पाते जो हमें अभी भी उसी नजर से देखती हैं जिस नजर से किई गुनाहगार को देखा जाता है और देखे भी क्यों ना। यह भी तो हमारा ही गुनाह है जो हम आजादी के इस मतलब को समझ नहीं पाए, भूख से बिलखते लोगों के पेट की आग को शांत नहीं कर पाए। जिस मुल्क को हम अपना आशियाना बनाकर रहते हैं उस मुल्क को हम गरीबी और लाचारी की हालत में छोड़ देते हैं। अभी पिछले दिनों आई हंगर ग्लोबल इंडेक्स की रिपोर्ट ऐसे बद्तर हालातों का ही एक नमूना थी जिसके अनुसार भुखमरी के आंकड़ों में भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों से भी कहीं ज्यादा आगे निकल गया है और अब जिस नई रिपोर्ट की बात हम यहां करने जा रहे हैं। उसके अनुसार दुनिया में जितने भी गुलाम है उनमें से आधे भारत में हैं। बहुत से लोगों के लिए यह रिपोर्ट हैरानी का सबब बन सकती है लेकिन दुनिभर में मौजूद करीब 30 लाख गुलामों में से आधे गुलाम भारत की आबादी का हिस्सा हैं। वैश्विक स्तर के सूचकांक के अनुसार 30 लाख की यह आबादी उन लोगों की है जिन्हें जबरदस्ती मजदूर बनाया गया है, पैसे ना चुका पाने के कारण बंधुआ मजदूर बनाकर रखा गया है, मानव तस्करी के बाद न्यूनतम पैसों में अपना गुलाम बनाकर रखा गया है। ऑस्ट्रेलिया के मानवाधिकार संगठन द्वारा हुए इस अध्ययन के बाद यह बात प्रमाणित हुई है कि भारत में जो गुलाम मौजूद हैं उन्हें या तो मानव तस्करी के बाद वेश्यावृत्ति में ढकेला गया है या फिर घरेलू सहायक के तौर पर उनका शोषण किया जाता है. इतना ही नहीं इससे भी ज्यादा दुखद तथ्य यह है कि ऐसे मजदूरों की संख्या भी बहुत ज्यादा है जिन्हें परिवार समेत बंधुआ मजदूरी करनी पड़ती हैं और उनकी आने वाली पीढ़ी को भी यह दर्द सहना पड़ता है क्योंकि वह कुछ पैसे लेनदार को नहीं चुका पाए थे। स्वतंत्रता का अधिकार प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार है। वह अपनी मर्जी से जहां चाहे वहां जा सकता है, अपने बात दूसरों तक पहुंचा सकता है,पढ़ सकता है कुछ बन सकता है। लेकिन उनका क्या जो आज भी एक कठपुतली की भांति अपने मालिक के ही इशारों पर नाच रहे हैं। उनका क्या जो आजादी के इतने वर्षों बाद भी आजादी की सांस लेने के लिए एक खुली खिड़की का इंतजार कर रहे हैं, उनका क्या जो जिनकी चीख बंद दीवारों के बीच कैद होकर रह जाती है? भारत का यह चेहरा वाकई बेहद दर्दनाक है लेकिन फिर भी हम शान से कहते हैं कि हम आजाद है। 16वीं लोकसभा के चुनाव में हमे पल प्रतिपल इस पर विचार करने की जरुरत है कि आखिर आजाद देश में 65 साल बाद भी यह स्थिति क्यों बनी हुई है। इसके लिए कौन से कारक जिम्मेदार हैं। साथियों अब समय आ गया जब हम जाति, मजहब और धर्म से ऊपर उठकर बिना किसी लालच और लाग लपेट के यह सोंचे की कौन सा उम्मीदवार देश के लिए बेहतर होगा। इसकी सबसे बड़ी और अहम जिम्मेदार उन दस करोड़ नौजवान साथियों की है जो पहली बार अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे।
हम हर साल आजादी की वर्षगांठ बड़ी धूमधाम से मनाते आए हैं, बड़े गर्व के साथ खुद को आजाद कहलवाते हैं लेकिन अफसोस कि जब सच सामने आता है तो हमारे पास मुंह तक छिपाने के लिए कोई जगह नहीं बचती। हम दुनिया की उन घूरती आंखों का सामना नहीं कर पाते जो हमें अभी भी उसी नजर से देखती हैं जिस नजर से किई गुनाहगार को देखा जाता है और देखे भी क्यों ना। यह भी तो हमारा ही गुनाह है जो हम आजादी के इस मतलब को समझ नहीं पाए, भूख से बिलखते लोगों के पेट की आग को शांत नहीं कर पाए। जिस मुल्क को हम अपना आशियाना बनाकर रहते हैं उस मुल्क को हम गरीबी और लाचारी की हालत में छोड़ देते हैं। अभी पिछले दिनों आई हंगर ग्लोबल इंडेक्स की रिपोर्ट ऐसे बद्तर हालातों का ही एक नमूना थी जिसके अनुसार भुखमरी के आंकड़ों में भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों से भी कहीं ज्यादा आगे निकल गया है और अब जिस नई रिपोर्ट की बात हम यहां करने जा रहे हैं। उसके अनुसार दुनिया में जितने भी गुलाम है उनमें से आधे भारत में हैं। बहुत से लोगों के लिए यह रिपोर्ट हैरानी का सबब बन सकती है लेकिन दुनिभर में मौजूद करीब 30 लाख गुलामों में से आधे गुलाम भारत की आबादी का हिस्सा हैं। वैश्विक स्तर के सूचकांक के अनुसार 30 लाख की यह आबादी उन लोगों की है जिन्हें जबरदस्ती मजदूर बनाया गया है, पैसे ना चुका पाने के कारण बंधुआ मजदूर बनाकर रखा गया है, मानव तस्करी के बाद न्यूनतम पैसों में अपना गुलाम बनाकर रखा गया है। ऑस्ट्रेलिया के मानवाधिकार संगठन द्वारा हुए इस अध्ययन के बाद यह बात प्रमाणित हुई है कि भारत में जो गुलाम मौजूद हैं उन्हें या तो मानव तस्करी के बाद वेश्यावृत्ति में ढकेला गया है या फिर घरेलू सहायक के तौर पर उनका शोषण किया जाता है. इतना ही नहीं इससे भी ज्यादा दुखद तथ्य यह है कि ऐसे मजदूरों की संख्या भी बहुत ज्यादा है जिन्हें परिवार समेत बंधुआ मजदूरी करनी पड़ती हैं और उनकी आने वाली पीढ़ी को भी यह दर्द सहना पड़ता है क्योंकि वह कुछ पैसे लेनदार को नहीं चुका पाए थे। स्वतंत्रता का अधिकार प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार है। वह अपनी मर्जी से जहां चाहे वहां जा सकता है, अपने बात दूसरों तक पहुंचा सकता है,पढ़ सकता है कुछ बन सकता है। लेकिन उनका क्या जो आज भी एक कठपुतली की भांति अपने मालिक के ही इशारों पर नाच रहे हैं। उनका क्या जो आजादी के इतने वर्षों बाद भी आजादी की सांस लेने के लिए एक खुली खिड़की का इंतजार कर रहे हैं, उनका क्या जो जिनकी चीख बंद दीवारों के बीच कैद होकर रह जाती है? भारत का यह चेहरा वाकई बेहद दर्दनाक है लेकिन फिर भी हम शान से कहते हैं कि हम आजाद है। 16वीं लोकसभा के चुनाव में हमे पल प्रतिपल इस पर विचार करने की जरुरत है कि आखिर आजाद देश में 65 साल बाद भी यह स्थिति क्यों बनी हुई है। इसके लिए कौन से कारक जिम्मेदार हैं। साथियों अब समय आ गया जब हम जाति, मजहब और धर्म से ऊपर उठकर बिना किसी लालच और लाग लपेट के यह सोंचे की कौन सा उम्मीदवार देश के लिए बेहतर होगा। इसकी सबसे बड़ी और अहम जिम्मेदार उन दस करोड़ नौजवान साथियों की है जो पहली बार अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे।
Monday 31 March 2014
टिकट बंटवारे पर मनमानी से अपना दल में अन्तर्कलह
रमेश पाण्डेय
कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बाद प्रत्याशी चयन में मनमानी को लेकर उत्तर प्रदेश के क्षेत्रीय दल के रुप में उभरकर सामने आए अपना दल में अन्तर्कलह तेज हो गया है। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने अपना दल से एलायंस किया है। इस एलायंस में मिर्जापुर और प्रतापगढ़ दो सीटे भाजपा ने अपना दल के लिए छोड़ी है। मिर्जापुर संसदीय सीट से पार्टी की विधायक अनुप्रिया पटेल चुनाव लड़ रही हैं। प्रतापगढ़ में मुंबई के उद्योगपति कुंवर हरिवंश सिंह को पार्टी ने टिकट दिया है। इस बात को लेकर पार्टी की प्रदेश इकाई ने विद्रोह कर दिया है। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष साजिद खान ने सोमवार को अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। साजिद खान का कहना है कि प्रतापगढ़ से पार्टी ने जिसे टिकट दिया है, वह पार्टी का प्राथमिक सदस्य भी कभी नहीं रहा। टिकट बांटते समय पार्टी संगठन की राय भी नहीं ली गयी। इतना ही नहीं प्रदेश अध्यक्ष रहे साजिद खान का कहना है कि अनुप्रिया पटेल के पति ने पार्टी पर कब्जा कर लिया है। वह मनमानी ढंग से पैसा लेकर टिकट का बंटवारा कर रहे हैं। साजिद ने यह भी आशंका जताई है कि अनुप्रिया के पति पार्टी के संस्थापक डा. सोनेलाल की पत्नी कृष्णा पटेल की हत्या भी करवा सकते हैं। टिकट बंटवारे को लेकर हुए इस अन्तर्कलह से पार्टी की साख पर असर पड़ा है। ऐसे में अपना दल के परंपरागत वोट प्रभावित हो सकते हैं।
कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बाद प्रत्याशी चयन में मनमानी को लेकर उत्तर प्रदेश के क्षेत्रीय दल के रुप में उभरकर सामने आए अपना दल में अन्तर्कलह तेज हो गया है। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने अपना दल से एलायंस किया है। इस एलायंस में मिर्जापुर और प्रतापगढ़ दो सीटे भाजपा ने अपना दल के लिए छोड़ी है। मिर्जापुर संसदीय सीट से पार्टी की विधायक अनुप्रिया पटेल चुनाव लड़ रही हैं। प्रतापगढ़ में मुंबई के उद्योगपति कुंवर हरिवंश सिंह को पार्टी ने टिकट दिया है। इस बात को लेकर पार्टी की प्रदेश इकाई ने विद्रोह कर दिया है। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष साजिद खान ने सोमवार को अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। साजिद खान का कहना है कि प्रतापगढ़ से पार्टी ने जिसे टिकट दिया है, वह पार्टी का प्राथमिक सदस्य भी कभी नहीं रहा। टिकट बांटते समय पार्टी संगठन की राय भी नहीं ली गयी। इतना ही नहीं प्रदेश अध्यक्ष रहे साजिद खान का कहना है कि अनुप्रिया पटेल के पति ने पार्टी पर कब्जा कर लिया है। वह मनमानी ढंग से पैसा लेकर टिकट का बंटवारा कर रहे हैं। साजिद ने यह भी आशंका जताई है कि अनुप्रिया के पति पार्टी के संस्थापक डा. सोनेलाल की पत्नी कृष्णा पटेल की हत्या भी करवा सकते हैं। टिकट बंटवारे को लेकर हुए इस अन्तर्कलह से पार्टी की साख पर असर पड़ा है। ऐसे में अपना दल के परंपरागत वोट प्रभावित हो सकते हैं।
Friday 28 March 2014
बात निकली है तो बहुत दूर तलक जाएगी
रमेश पाण्डेय
राष्ट्रीय स्वयं संघ ने भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों की घोषणा से पहले यह फार्मूला सुझाया था कि 70 वर्ष की उम्र पार कर चुके नेताओं को सीधे चुनाव न लड़ाया जाए। ऐसे लोगों को राजनीति में जीवित रखने के लिए पिछले दरवाजे यानि राज्यसभा के जरिए संसद में भेजे जाने का सुझाव संघ ने दिया था। संघ के इस सुझाव पर लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी सरीखे कई नेता नाखुश हुए। इन नेताओं ने इस कदर नाराजगी जताई कि संघ के फार्मूले को भाजपा अमल में नहीं ला सकी। अन्तत: चुनाव के मौके पर किसी नए बखेड़े से बचने के लिए संघ भी अपने इस फार्मूले को लागू करने के लिए दबाव नहीं बनाया। अब जब चुनावी जंग छिड़ गई है और उम्मीदवारों ने मैदान में आकर तरकश संभाल लिया है तो कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने एक इंटरव्यू में कहा है कि राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में उनकी कैबिनेट युवा होगी। उनका कहना है कि किसी भी संगठन में नई जान डालने के लिए पीढी में बदलाव बहुत जरुरी होता है। अन्यथा संगठन जड़ हो जाएगा। इसमें कोई शक नहीं है कि कांग्रेस की पीढ़ी में बदलाव हो रहा है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। इसे बढ़ावा दिया जाना चाहिए। बेबाक ढंग से टिप्पणी करने वाले रमेश अगले महीने साठ साल के हो जाएंंगे। उन्हें राहुल गांधी का करीबी समझा जाता है। रमेश चाहते हैं कि 70 साल से ज्यादा उम्र के नेता नए लोगों के लिए रास्ता बनाए। उन्होंने ऐसे नेताओं के लिए सलाहकार के ओहदे की वकालत की है। केन्द्रीय मंत्री के इस बयान पर बचाव करते हुए कांग्रेस ने जयराम रमेश के विचार को उनकी निजी राय बताया है। यह तो दो अलग-अलग वाकिए हैं, पर सच यह है कि बात निकली है तो दूर तलक जाएगी। 16वीं लोकसभा चुनाव में पौने दो करोड़ मतदाता ऐसे है जिनकी उम्र 18 से 19 वर्ष के बीच है। सवाल है कि देश के हर प्रोफेशन में उम्र की न्यूनतम और अधिकतम सीमा यानि अर्हता और रिटायरमेंट की आयु निर्धारित है। फिर सवाल है कि राजनीति में रिटायरमेंट की उम्र का निर्धारण क्यों नही। आज तो यह बात सामान्य लग रही है, पर वह दिन दूर नहीं जब इस पर आवाज उठेगी, आन्दोलन होंगे और मजबूर होकर राजनीतिक दलों को नेताओं के रिटायरमेंट की उम्र का निर्धारण करना होगा। कम से कम चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों पर तो यह लागू ही होना चाहिए। तारीफ की जानी चाहिए वित्त मंत्री पी. चिदंबरम की, जिन्होंने खुद समय रहते इस बात को स्वीकार कर लिया कि उनकी उम्र 65 वर्ष से अधिक की हो गयी है, वह अब चुनाव लड़ पाने के लिए सक्षम नहीं है। दुर्भाग्य है कि राजनीतिक दलों की ओर से जो प्रतिक्रिया आयी वह स्वागतयोग्य नहीं रही। चुनाव मैदान में उतरे सभी उम्मीदवार नव मतदाताओं को रिझाने की कोशिश कर रहे हैं। नौजवानों को कभी रोजगार देने के नाम पर तो कभी लैपटाप और बेरोजगारी भत्ता देने के नाम पर लुभाया जा रहा है। सोचिए अगर युवा मतदाताओं ने यह निर्णय कर लिया कि अब वह उस कुर्सी पर खुद बैठेगा, जिस पर बैठे लोग उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन दे रहे हैं तो स्थिति क्या होगी। निश्चित रुप से आने वाले समय में ऐसा होने वाला है।
राष्ट्रीय स्वयं संघ ने भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों की घोषणा से पहले यह फार्मूला सुझाया था कि 70 वर्ष की उम्र पार कर चुके नेताओं को सीधे चुनाव न लड़ाया जाए। ऐसे लोगों को राजनीति में जीवित रखने के लिए पिछले दरवाजे यानि राज्यसभा के जरिए संसद में भेजे जाने का सुझाव संघ ने दिया था। संघ के इस सुझाव पर लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी सरीखे कई नेता नाखुश हुए। इन नेताओं ने इस कदर नाराजगी जताई कि संघ के फार्मूले को भाजपा अमल में नहीं ला सकी। अन्तत: चुनाव के मौके पर किसी नए बखेड़े से बचने के लिए संघ भी अपने इस फार्मूले को लागू करने के लिए दबाव नहीं बनाया। अब जब चुनावी जंग छिड़ गई है और उम्मीदवारों ने मैदान में आकर तरकश संभाल लिया है तो कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने एक इंटरव्यू में कहा है कि राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में उनकी कैबिनेट युवा होगी। उनका कहना है कि किसी भी संगठन में नई जान डालने के लिए पीढी में बदलाव बहुत जरुरी होता है। अन्यथा संगठन जड़ हो जाएगा। इसमें कोई शक नहीं है कि कांग्रेस की पीढ़ी में बदलाव हो रहा है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। इसे बढ़ावा दिया जाना चाहिए। बेबाक ढंग से टिप्पणी करने वाले रमेश अगले महीने साठ साल के हो जाएंंगे। उन्हें राहुल गांधी का करीबी समझा जाता है। रमेश चाहते हैं कि 70 साल से ज्यादा उम्र के नेता नए लोगों के लिए रास्ता बनाए। उन्होंने ऐसे नेताओं के लिए सलाहकार के ओहदे की वकालत की है। केन्द्रीय मंत्री के इस बयान पर बचाव करते हुए कांग्रेस ने जयराम रमेश के विचार को उनकी निजी राय बताया है। यह तो दो अलग-अलग वाकिए हैं, पर सच यह है कि बात निकली है तो दूर तलक जाएगी। 16वीं लोकसभा चुनाव में पौने दो करोड़ मतदाता ऐसे है जिनकी उम्र 18 से 19 वर्ष के बीच है। सवाल है कि देश के हर प्रोफेशन में उम्र की न्यूनतम और अधिकतम सीमा यानि अर्हता और रिटायरमेंट की आयु निर्धारित है। फिर सवाल है कि राजनीति में रिटायरमेंट की उम्र का निर्धारण क्यों नही। आज तो यह बात सामान्य लग रही है, पर वह दिन दूर नहीं जब इस पर आवाज उठेगी, आन्दोलन होंगे और मजबूर होकर राजनीतिक दलों को नेताओं के रिटायरमेंट की उम्र का निर्धारण करना होगा। कम से कम चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों पर तो यह लागू ही होना चाहिए। तारीफ की जानी चाहिए वित्त मंत्री पी. चिदंबरम की, जिन्होंने खुद समय रहते इस बात को स्वीकार कर लिया कि उनकी उम्र 65 वर्ष से अधिक की हो गयी है, वह अब चुनाव लड़ पाने के लिए सक्षम नहीं है। दुर्भाग्य है कि राजनीतिक दलों की ओर से जो प्रतिक्रिया आयी वह स्वागतयोग्य नहीं रही। चुनाव मैदान में उतरे सभी उम्मीदवार नव मतदाताओं को रिझाने की कोशिश कर रहे हैं। नौजवानों को कभी रोजगार देने के नाम पर तो कभी लैपटाप और बेरोजगारी भत्ता देने के नाम पर लुभाया जा रहा है। सोचिए अगर युवा मतदाताओं ने यह निर्णय कर लिया कि अब वह उस कुर्सी पर खुद बैठेगा, जिस पर बैठे लोग उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन दे रहे हैं तो स्थिति क्या होगी। निश्चित रुप से आने वाले समय में ऐसा होने वाला है।
Thursday 27 March 2014
क्या चुनाव में इनकी भी होगी बात?
रमेश पाण्डेय
देश में दो ऐसे क्षेत्र हैं जिनका नाम विशेष कारणों से बदला गया। एक है मगध जो बौद्ध बिहारों की अधिकता के कारण बिहार बन गया और दूसरा है दक्षिण कौशल जो छत्तीस गढों को अपने में समाहित रखने के कारण छत्तीसगढ़ कहलाया। यह दोनों क्षेत्र अति प्राचीन काल से ही भारत को गौरवान्वित करते रहे। छत्तीसगढ़ वैदिक और पौराणिक काल में भी विभिन्न संस्कृतियों के विकास का केन्द्र रहा। यहां के प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेष इस बात को इंगित करते हैं कि यहां पर वैष्णव, शैव, शाक्त और बौद्ध के साथ ही आर्य तथा अनार्य संस्कृतियों का भी प्रभाव रहा। पौराणिक सम्पदा से समृद्ध होने के साथ ही यह क्षेत्र खनिज सम्पदा से भी समृद्ध रहा है। घने वनाच्छादित और प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ राज्य में जनजातीय संस्कृति का पोषण, संवर्धन और उनके विकास कार्यक्रमों के संचालन की अपार संभावनाएं है। 16वीं लोकसभा के गठन के लिए चुनावी जंग छिड़ी हुई है। दुख है कि इस जंग में यहां की समृद्धि का केन्द्र जनजातीय संस्कृति का विकास कोई मुद्दा नहीं है। आदिवासियों को चिकित्सा, शिक्षा और रोजगार की सुविधा मुहैय्या कराया जाना किसी भी दल के प्रमुख एजेंडे में नही है। यहां भी उम्मीदवार राजनैतिक दलों के अगुवा की तरह कीचड़ उछाल संस्कृति को आधार बनाकर चुनाव मैदान में हैं। छत्तीसगढ़ की भौगोलिक और सामाजिक स्थित पर नजर डाले तो स्पष्ट होता है कि यहां की एक तिहाई जनसंख्या अनुसूचित जनजातियों की है। यहां प्रदेश की कुल जनसंख्या का 31.76 प्रतिशत अनुसूचित जनजातियों का है। मध्यप्रदेश ,महाराष्ट्र, उड़ीसा, गुजरात और झारखंड के बाद छत्तीसगढ़ का स्थान जनजातियों की जनसंख्या के आधार पर छठे नम्बर पर आता है। कुल जनसंख्या प्रतिशत के आधार पर छत्तीसगढ़ का मिजोरम, नागालैंड, मेघालय औरअरूणचल प्रदेश के बाद देश में पांचवा स्थान है। नवगठित छत्तीसगढ़ राज्य की कुल जनसंख्या वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार 2,08,33,803 थी, जिसमें अजजा की जनसंख्या 66,16,596 है जो कि राज्य की जनसंख्या का 31.76 प्रतिशत है तथा देश की अजजा की जनसंख्या का 8.44 प्रतिशत है। छत्तीसगढ़ राज्य में जनजातीय समूह में अगरिया, बैगा, मैना, भूमिया, भूईहर, पालिहा, पांडो, भतरा, भंुजिया, बिआर, बियार, बिझवार, बिरहुल, बिरहोर, धनवार, गदाबा, गदबा, गोंड, अगरिया, असूर, बड़ी, मारिया, बड़ामारिया, भटोला, बिसोनहान मारिया, छोटा मारिया, दंडामी मारिया, घुरू, दोरला, हिलमारिया, कंडरा, कलंगा, खटोला, कोईतार, कोया, खिरवार हिरवारा, कुचामारिया, कुचाकी मारिया, माडि़या, मुरिया, नगारची, नागवंशी, ओझाा, राज, सोन्झारी, झोका, भाटिया, भोटिया, बड़े माडि़या बडडे माडि़या, हल्बा, कमार, कंवर, कवर, कौर, चेरवा, राठिया, तंवर, छत्री, खैरवार, कोंदर, खरिया, कांेध, खांड, कांध, कोल, कोरवा, कोड़ाकू, मांझी, मझवार, मुण्डा, नगेसिया, नगासिया, उरांव, धनका, धनगड़, पाव, परधान, पथारी, सरोती, पारधी, बहेलिया, चितापाधी, लंगोली पारधी, फासपारधी, तिकारी, ताकनकर, टाकिया, परजा, सोंटा और संवरा जनजातियां निवास करती हैं । इन जातियों में से पांच जनजातियों क्रमश: कमार, अबूझमाडि़या, पहाड़ी कोरवा, बिरहारे और बैगा को विशेष पिछड़ी जनजाति के रूप में भरत सरकार द्वारा मान किया गया है। कीर, मीणा, पनिका तथा पारधी क्षेत्रीय बंधन मुक्त जनजाति है। छत्तीसगढ़ राज्य के सभी सोलह जिलों में जनजातियों का निवास है। इसमें क्रमश दंतेवाड़ा (77.58 प्रतिशत), बस्तर (66.59), कांकेर (57.71), जशपुर (66.59), तथा सरगुजा (55.4 प्रतिशत), में आधे से अधिक तथा कम संख्या की दृष्टि में दुर्ग (12.43 प्रतिशत ), जांजगीर-चांपा (13.25), रायपुर (14.84), बिलासपुर (19.55), जिला है। कोरिया में 47.28 , कोरबा में 42.43, रायगढ़ में 36.85, राजनांदगांव में 26.54, धमतरी में 26.44 और कवर्धा में 21.04 प्रतिशत जनजाति रहतीं है। आज भी आदिवासी इलाकों के रहवासी झरिया से पानी लेकर पीने को मजबूर हैं। इनका शारीरिक शोषण होना आम बात है। सामान्य प्रसव के लिए भी इन इलाकों में पर्याप्ह सुविधा नहीं है। आज भी आदिवासियों के ज्यादातर परिवारों की आजीविका जंगल पर आश्रित है। देश प्रगति कर रहा है। इस प्रगति में इन आदिवासियों के एक-एक वोट का भी महत्व है। पर लोकसभा के चुनाव में यह मुद्दे गौड़ नजर आ रहे हैं।
कांग्रेस के घोषणापत्र में 'चालबाजी'
रमेश पाण्डेय
दो शब्द हैं, चालाकी और चालबाजी। इन दोनों शब्द के निहितार्थ तो एक जैसे हैं पर मायने अलहदा है। चालाकी वह है जो प्रभावित व्यक्ति को सहज मालूम हो जाया करती है, पर चालबाजी वह है जिसका एहसास प्रभावित व्यक्ति लंबी अवधि बीत जाने के बाद कर पाता है। 16वंी लोकसभा के चुनाव में कुछ ऐसा ही कांग्रेस पार्टी देश की जनता के साथ कर रही है। कांग्रेस के घोषणापत्र को देखकर ऐसा लगने लगा है। पिछले दस सालों में तेजी से दो समस्याएं उभरकर सामने आयी हैं। एक वह है जिससे हर नागरिक परेशान है और दूसरी वह है जिससे हर नागरिक जूझ रहा है। इन दोनों समस्याओं के लिए सीधे तौर पर देश की सत्ता पर बैठी यूपीए-1 और यूपीए-2 की सरकार जिम्मेदार है। जिन समस्याओं का जिक्र ऊपर किया गया है। वह हैं मंहगाई और भ्रष्टाचार। मंहगाई से हर नागरिक परेशान है और भ्रष्टाचार से हर कोई जूझ रहा है। पिछले दस साल के कांग्रेस की अगुवाई में बनी केन्द्र की सरकार की उपलब्धियों पर नजर डाले तो पेट्रोलियम पदार्थों में बेतहाशा वृद्धि, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में बेतहासा मंहगाई, रसोई गैस की कीमत में तेजी से उछाल, व्यापारिक क्षेत्र में एफडीआई को आमंत्रण, उर्वरक पर सब्सिडी में कटौती, घोटालों की बरसात जैसी उपलब्धियां इस सरकार के खाते में हैं। इन दस सालों में देश ने न तो शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की, न चिकित्सा के क्षेत्र में, न रोजगार के क्षेत्र में। सवाल उठता है कि तो आखिर पिछले दस वर्षों में इस सरकार ने किया क्या। चुनाव के समय में पार्टियों का घोषणा पत्र उस दल की नीति और सिद्धांतों का आईना होता है। कांग्रेस का जो घोषणापत्र आया है उसमें न तो दल की नीतियां है और न ही सिद्धांत। अगर कुछ है तो बस एक ही तथ्य नजर आता है कि घोषणापत्र के जरिए सत्ता पर पहुंचने की प्यास। कांग्रेस का घोषणापत्र अब तक के इतिहास में तो कभी ऐसा नहीं रहा। पिछले दस साल से सत्ता पर काबिज कांग्रेस की हालत 2014 के लोकसभा चुनाव में काफी खराब है। हार की आशंका को देखते हुए पार्टी के कई नेता चुनाव लड़ने तक तैयार नहीं हैं। ऐसे में कांग्रेस पार्टी ने घोषणा पत्र के जरिए आखरी पाशा फेंका है। कांग्रेस ने घोषणा पत्र के माध्यम से निम्न और मध्यम वर्ग के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश की है। अब देखना यह है कि कांग्रेस की घोषणाओं से लोग कितने आकर्षित होते हैं और पार्टी को सबसे बुरी संभावित हार से बचा पाते या नहीं?
घोषणापत्र में कहा गया है कि कांग्रेस सत्ता में आयी तो कम आय वाले लोगों के लिए आर्थिक सुरक्षा का प्रावधान होगा, राइट टू हेल्थ, राइट टू होम, राइट टू सोशल सेक्यूरिटी होगी, वृद्ध और विकलांगों के लिए फिक्स पेंशन योजना का प्रावधान होगा, उच्च विकास दर को वापस लाएंगे, अगले तीन साल में आठ फीसद विकास दर करेंगे, भ्रष्टाचार निरोधी विधेयक सबसे बड़ी प्राथमिकता होगी, एससी, एसटी और ओबीसी के लिए रोजगार बढ़ाएंगे, जरूरतमंदों को ही सब्सिडी देंगे, 10 लाख आबादी वाले शहरों में हाईस्पीड ट्रेन चलाएंगे, भूमिहीनों को घर दिया जाएगा, ब्लैकमनी को रोकने के लिए विशेष अधिकारी की नियुक्ति करेंगे, अगले पांच साल में सभी भारतीयों को बैंक एकाउंट की सुविधा प्रदान करेंगे, मैनुफैक्चरिंग क्षेत्र में दस फीसद विकास करेंगे। यह सारे वायदे कांग्रेस ने करके ऐसा साबित करने की कोशिश की कि वह देश के नागरिकों की सबसे बड़ी हितैषी है। इस घोषणापत्र में इस बात का उल्लेख नहीं किया गया है कि देश में तेजी से बंद हो रहे उद्योगों को पुनर्जीवित करेंगे या नहीं। परंपरागत उद्योगों की दशा को सुधारेंगे या नहीं, कृषि पर आधारित आबादी को सुविधाएं देेंगे या नहीं। तेजी से बढ़ रही बेरोजगारों की फौज के लिए रोजगार उपलब्ध कराएंगे या नहीं। देश की सीमा पर बने असुरक्षित माहौल पर कैसे नियंत्रण कायम करेंगे आदि-आदि। कांग्रेस ने इस घोषणापत्र में ऐसी चालबाजी की है कि जिसका ऐहसास लोगों को लंबी अवधि के बाद हो सकेगा। घोषणापत्र में की गई इस चालबाजी को देश के नागरिकों खासकर युवा मतदाताओं को समझना होगा। देश में पहली बार वोट डालने जा रहे तकरीबन ढाई करोड 18 से 19 वर्ष की उम्र वाले मतदाताओं को यह बात समझनी होगी कि कांग्रेस की नीतियों और सिद्धांतों में उसके लिए क्या है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो एक बार फिर देश का मतदाता राजनीतिक छल का शिकार होगा।
Monday 24 March 2014
भाजपा के शोकगीत पर संघ का भागवत पाठ
रमेश पाण्डेय
16वीं लोकसभा के लिए हो रहा चुनाव कई मायनों में अनोखा है। इस चुनाव की स्मृतियां लंबे समय तक याद की जाएंगी। इसके पीछे तीन कारण है। पहला कारण यह कि 10 वर्ष से देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का इस चुनाव में कोई अहम रोल नहीं है। दूसरा यह कि तमाम अन्तरविरोधों के बावजूद नरेन्द्र मोदी का झंडा कोई नहीं झुका सका। तीसरा यह कि भाजपा के शोकगीत पर संघ का भागवत पाठ नसीहत देता रहा। टिकट बंटवारे को लेकर भाजपा में छिड़ा अन्तर्द्वन्द कम होने का नाम नहीं ले रहा है। जब लालकृष्ण आडवाणी, जसवंत सिंह सरीखे नेता अपना धैर्य खो बैठे तो छोटे नेताओं के बारे में कहना ही क्या है। आडवाणी को जो मलाल है, वह तो समझ में आ रहा है कि उनकी आंखों के आगे मोदी को कद इतना बढ़ गया कि वह भाजपा के आइकन बन गए। यह कहीं न कहीं अंदर से आडवाणी को चौन से जीने नहीं दे रहा है। दूसरे जो लोग नाराज होने का नाटक कर रहे हैं, उसके पीछे मूल कारण यह है कि वे इस (मोदी) लहर में पार लगना चाह रहे थे, सो उनकी मंशा पूरी नहीं हो पा रही है। हम बात अगर मुरली मनोहर जोशी की करें तो साफ है कि जो खुद अपनी सीट नहीं बचा सकता, वह भाजपा के लिए अन्य सीटों को कैसे प्रभावित कर सकेगा। ठीक यही दशा बिहार के लालमनि चौबे की है। इन सब के बीच 24 मार्च को संघ प्रमुख भागवत ने आडवाणी को जो पाठ सुनाया, उससे आडवाणी ही नहीं बल्कि नाराजगी का नाटक कर रहे कई और नेताओं को संकेत में संदेश देने की कोशिश हुई है। भाजपा में कुछ वरिष्ठ नेताओं को किनारे किए जाने से उपजे विवाद के बीच राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि यात्रा को सफल बनाने के लिए समय के अनुरुप बदलाव जरुरी है। भागवत ने यह बात उस समय कही, जब वहां लालकृष्ण आडवाणी की मौजूदगी रही। आरएसएस के मुख्यपत्र ऑर्गेनाइजर और पांचजन्य द्वारा आयोजित कार्यक्रम में भागवत ने कहा, ऐसा कहा जाता है कि बदलाव जरुरी है। समय के अनुसार जो भी बदलाव जरुरी होते हैं, उन्हें करना चाहिए ताकि यात्रा सफल और स्थिर हो। ऐसे समय में जब भाजपा आडवाणी और जसवंत सिंह जैसे वरिष्ठ नेताओं को एक किनारे करने के साथ एक तरह के बदलाव का सामना कर रही है, भागवत की टिप्पणियां महत्व रखती हैं। आडवाणी पिछले हफ्ते खुद को भोपाल से उम्मीदवार न बनाए जाने से नाराज हो गए थे। उन्हें उनकी इच्छा के विपरीत भोपाल की जगह गांधीनगर से खड़ा किया गया है। जसवंत सिंह राजस्थान के बाडमेर से चुनाव लड़ना चाहते थे लेकिन उन्हें वहां से उम्मीदवार नहीं बनाया गया जिसके बाद सिंह ने भाजपा छोड़ दी और निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनावी मैदान मंें उतर गए। भागवत ने इन सब से बेफिक्र होकर कहा कि समय के अनुसार बदलाव होना चाहिए लेकिन श्ढांचाश् पहले जैसा ही होना चाहिए। भागवत ने इससे एक कदम और आगे बढ़ते हुए यह भी कहा कि यही स्थापित विचार है कि बदलाव जरुरी है। निरंतर बदलती दुनिया का मूल सत्य शाश्वत है और जो बदलता नहीं। बदलाव अच्छे के लिए होना चाहिए। एक तरह से भागवत ने यह संकेत देकर साफ कर दिया कि मोदी के नेतृत्व में जो कदम उठाया जा रहा है, वह कहीं से गलत नहीं है। एक तरह से संघ प्रमुख भागवत की यह टिप्पणी भाजपा के कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाने का काम करेगी। इस समय जब चुनावी जंग छिड़ी हुई है और सेना के सारे सैनिक मोरचे पर डटे हैं, ऐसे में सेनापति को हतोत्साहित करने के बजाय उसे उत्साहित करने की जरुरत है। जो हो रहा है वह अच्छा है या बुरा है। इसका मूल्यांकन तो परिणाम आने के बाद ही किया जाएगा।
Sunday 23 March 2014
शिक्षा की बदहाली चुनावी मुद्दा नहीं?
रमेश पाण्डेय
शिक्षा देश और समाज की उन्नति का आईना हुआ करती है। भारत की आजादी के 65 वर्ष बाद यहां की आबादी साढ़े तीन गुना बढ़कर 1.20 अरब हो गई है। बच्चों को पढ़ाने वाले शिक्षकों के करीब छह लाख पद रिक्त हैं। सर्व शिक्षा अभियान पर हर साल 27 हजार करोड़ रुपए खर्च किए जाने के बावजूद 80 लाख बच्चे स्कूलों के दायरे से बाहर हैं, लेकिन राजनीतिक दलों के समक्ष यह महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा नहीं है। अफसोस है कि कोई भी राजनीतिक दल शिक्षा को इस चुनाव में चर्चा का विषय नहीं बना रहा है। प्राथमिक शिक्षा हो या उच्च शिक्षा, हमारे देश में शिक्षा में कई तरह की कमियां और खामियां है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा महत्वपूर्ण चुनौती है। वंचित और समाज के सबसे निचले पायदान के बच्चों की शिक्षा दूर की कौड़ी बनी हुई है। चुनाव में यह महत्वपूर्ण मुद्दा होना चाहिए, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल इस विषय को उठा ही नहीं रहा है। विधायक और सांसद अपने क्षेत्र विकास कोष से प्राथमिक शिक्षा के विकास और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर क्या खर्च कर रहे हैं, यह बात कोई नहीं बता रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोई भी दल जनता और बच्चों के भविष्य से जुड़े इन विषयों पर चर्चा नहीं कर रहा है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आंकडों के मुताबिक, देश में अभी भी शिक्षकों के 6 लाख रिक्त पदों में करीब आधे बिहार एवं उत्तरप्रदेश में है। पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, झारखंड, महाराष्ट्र समेत कई अन्य राज्यों में स्कूलों को शिक्षकों की भारी कमी का सामना करना पड़ रहा है। देश में 34 प्रतिशत स्कूल ऐसे हैं जहां लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है। सुदूर क्षेत्रों में काफी जगहों पर स्कूल एक कमरे में चल रहे हैं और कई स्थानों पर तो पेड़ों के नीचे ही बच्चों को पढ़ाया जाता है। उच्च शिक्षा में सुधार से जुड़े कई विधेयक काफी समय से लंबित है और संसद में यह पारित नहीं हो पा रहे हैं। आईआईटी, आईआईएम, केंद्रीय विश्वविद्यालयों समेत उच्च शिक्षा के स्तर पर भी शिक्षकों के करीब 30 प्रतिशत पद रिक्त हैं। साथ ही शोध की स्थिति काफी खराब है। उच्च शिक्षा में सुधार पर सुझाव देने के लिए गठित समिति ने जून 2009 में 94 पन्नों की उच्च शिक्षा पुनर्गठन एवं पुनरुद्धार रिपोर्ट पेश कर दी थी। लेकिन कई वर्ष बीत जाने के बाद भी अभी तक स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है। इस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देश के समक्ष बड़ी चुनौती बनी हुई है। कोई इस बारे में नहीं बोल रहा। हाल ही में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को देश के समक्ष बड़ी चुनौती करार दिया था। आजादी के छह दशक से अधिक समय गुजरने के बावजूद देश में स्कूली शिक्षा की स्थिति चुनौतीपूर्ण बनी हुई है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आंकडों के अनुसार, देश भर में केवल प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर शिक्षकों के तीन लाख पद रिक्त हैं। कौशल विकास एक ऐसा मुद्दा है जिसमें भारत काफी पीछे है। युवाओं के बड़े वर्ग में बढ़ती हुई बेरोजगारी को दूर करने के लिए कौशल विकास पाठ्यक्रमों की वकालत की जा रही है। शिक्षकों का काफी समय तो पोलियो खुराक पिलाने, मतदाता सूची तैयार करने, जनगणना और चुनाव कार्य सम्पन्न कराने समेत विभिन्न सरकारी कार्यक्रमों पर अमल करने में लग जाता है और वे पठन पाठन के कार्य में कम समय दे पाते हैं। आंकड़ों के मुताबिक, देश के 12 राज्यों में 25 प्रतिशत से अधिक बच्चे मध्याह्न भोजन योजना के दायरे से बाहर हैं। इस योजना को स्कूलों में छात्रों के दाखिले और नियमित उपस्थिति को प्रोत्साहित करने की अहम कड़ी माना जाता है। देश की आधी मुस्लिम आबादी की साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से काफी कम है और उच्च शिक्षा में अल्पसंख्यक वर्ग के बच्चों की सकल नामांकन दर गैर-मुस्लिम बच्चों की तुलना में आधी है। शिक्षा की बदहाली देश की अहम समस्या है। आसन्न आम चुनाव में यह राजनीतिक दलों के लिए महत्वपूर्ण मुद्दा होना चाहिए।
Thursday 20 March 2014
चुनावी शोर में गायब असल मुद्दे
रमेश पाण्डेय
आम चुनाव का माहौल देश की समस्याओं और जनता को मथ रहे मुद्दों का दर्पण होता है, लेकिन क्या मौजूदा माहौल को देखकर कहा जा सकता है कि देश के असल मुद्दों पर यह चुनाव होने जा रहा है। मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी सिर्फ आडवाणी, मोदी और मुलायम की उम्मीदवारी और आम आदमी पार्टी के शोर से ही भरा पड़ा है। देश के असल मुद्दे कहीं छुप गए हैं। पखवरे भर पहले हुई ओलावृष्टि ने मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के किसानों पर कहर बरपाया। दोनों राज्यों में रबी की तैयार फसल बर्बाद हो गई। इसके बावजूद चुनावी माहौल में किसान कहीं मुद्दा ही नहीं है। उसकी बर्बाद हुई खेती और जीविका सवाल नहीं है। सिर्फ दो हफ्तों में महाराष्ट्र में 25 से ज्यादा हताश किसानों ने आत्महत्या कर ली है। विदर्भ, आंध्रप्रदेश और पंजाब में पिछली सदी के आखिरी दशक में हुई किसानों की आत्महत्याओं को तब जमकर तूल दिया गया था। इसका असर यह हुआ कि तीनों ही राज्यों में सरकारें बदल गई थीं। 2011 की जनगणना के मुताबिक तमाम उदारीकरण और औद्योगीकरण के बावजूद करीब 67 फीसदी जनसंख्या की जीविका अब भी खेती-किसानी पर ही टिकी हुई है। जाहिर है कि इसी अनुपात में देश का करीब सत्तर फीसदी वोटर भी खेती-किसानी से सीधे जुड़ा हुआ है। इसके बावजूद अगर किसानों के मुद्दे चुनावी विमर्श से गायब हों, राजनीतिक दलों के एजेंडे में उनकी पूछ ना हो और उससे भी बड़ी बात यह कि इन मुद्दों को लेकर मीडिया भी संजीदा ना हो तो इनकी भूमिका पर सवाल उठना लाजिमी है। चुनावी माहौल और मीडिया से किसानों के मुद्दों का गायब होना शस्य श्यामला भारतीय धरती और संस्कृति के लिए बड़ा सवाल है। चुनावी माहौल ही क्यों उदारीकरण ने किसानों के मुद्दों को दरकिनार कर दिया है। जिनके जरिए इस देश के 125 करोड़ लोगों का पेट भरता हो, वे लोग और उनकी समस्याएं भारतीय राजनीति में इन दिनों हाशिए पर हैं। समाजवादी राजनीति के वर्चस्व के दौर में किसानों-मजदूरों और पिछड़ों की आवाज उठाए बिना सत्ताधारी कांग्रेस का भी काम नहीं चलता था। वामपंथी दलों का तो निशान ही खेती-किसानी से जुड़ा हुआ है। लेकिन भारतीय राजनीति में उनकी आवाज लगातार कमजोर हुई है। हालांकि किसानों की समस्याओं को वे अब भी संजीदगी से उठाते रहते हैं। लेकिन उदारवाद के दौर में उभरी राजनीति और मीडिया ने इन आवाजों से लगातार अपने को दूर कर लिया है। ऐसा करते वक्त वे भूल जाते हैं कि विकास का चाहे जितना भी चमकदार चेहरा हो, लेकिन जब तक पेट भरा नहीं होगा विकास इंसान के चेहरे पर चमक नहीं ला सकता। देश का बेहतरीन गेहूं, आटा और सूजी उत्पादन करने वाला मध्यप्रदेश का किसान बदहाल रहेगा तो उदारीकरण के दौर के रसूखदार इंसान के लिए स्वादिष्ट रोटियां कहां से आएंगी, लजीज उपमा के लिए सूजी कहां से आएगी, लेकिन दुर्भाग्यवश इसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है। इस तरफ ध्यान न देने वाले भूल जाते हैं कि अगर किसानों ने कमर कस ली तो ना तो उदारीकरण का चमकदार चेहरा बच पाएगा और न उदारीकरण के पैरोकार। एक जमाना था जब चुनाव में हल जोतता हुआ किसान, दो बैलों की जोड़ी, गाय बछड़ा, हलधर जैसे चुनाव चिन्ह हुआ करते थे। चौधरी चरण सिंह यह कहा करते थे कि देश की सत्ता का रास्ता गांव की गलियों और खेत की पगडंडियों से होकर गुजरता था। आम चुनाव में कृषि और किसान से जुड़े मुद्दों का शोर रहा करता था। 16वीं लोकसभा के गठन के लिए होने जा रहे चुनाव में यह सारे मुद्दे गायब हैं। यह न केवल समाज के लिए दुखद है बल्कि देश के लिए भी नुकसानदायक साबित होगा। इस बार का आम चुनाव एक दूसरे पर दोषारोपण और कीचड़ उठालने जैसे मुद्दे पर जाकर टिक गया है। निर्णय जनता को लेना है कि वह क्या पसंद कर रही है।
आम चुनाव का माहौल देश की समस्याओं और जनता को मथ रहे मुद्दों का दर्पण होता है, लेकिन क्या मौजूदा माहौल को देखकर कहा जा सकता है कि देश के असल मुद्दों पर यह चुनाव होने जा रहा है। मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी सिर्फ आडवाणी, मोदी और मुलायम की उम्मीदवारी और आम आदमी पार्टी के शोर से ही भरा पड़ा है। देश के असल मुद्दे कहीं छुप गए हैं। पखवरे भर पहले हुई ओलावृष्टि ने मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के किसानों पर कहर बरपाया। दोनों राज्यों में रबी की तैयार फसल बर्बाद हो गई। इसके बावजूद चुनावी माहौल में किसान कहीं मुद्दा ही नहीं है। उसकी बर्बाद हुई खेती और जीविका सवाल नहीं है। सिर्फ दो हफ्तों में महाराष्ट्र में 25 से ज्यादा हताश किसानों ने आत्महत्या कर ली है। विदर्भ, आंध्रप्रदेश और पंजाब में पिछली सदी के आखिरी दशक में हुई किसानों की आत्महत्याओं को तब जमकर तूल दिया गया था। इसका असर यह हुआ कि तीनों ही राज्यों में सरकारें बदल गई थीं। 2011 की जनगणना के मुताबिक तमाम उदारीकरण और औद्योगीकरण के बावजूद करीब 67 फीसदी जनसंख्या की जीविका अब भी खेती-किसानी पर ही टिकी हुई है। जाहिर है कि इसी अनुपात में देश का करीब सत्तर फीसदी वोटर भी खेती-किसानी से सीधे जुड़ा हुआ है। इसके बावजूद अगर किसानों के मुद्दे चुनावी विमर्श से गायब हों, राजनीतिक दलों के एजेंडे में उनकी पूछ ना हो और उससे भी बड़ी बात यह कि इन मुद्दों को लेकर मीडिया भी संजीदा ना हो तो इनकी भूमिका पर सवाल उठना लाजिमी है। चुनावी माहौल और मीडिया से किसानों के मुद्दों का गायब होना शस्य श्यामला भारतीय धरती और संस्कृति के लिए बड़ा सवाल है। चुनावी माहौल ही क्यों उदारीकरण ने किसानों के मुद्दों को दरकिनार कर दिया है। जिनके जरिए इस देश के 125 करोड़ लोगों का पेट भरता हो, वे लोग और उनकी समस्याएं भारतीय राजनीति में इन दिनों हाशिए पर हैं। समाजवादी राजनीति के वर्चस्व के दौर में किसानों-मजदूरों और पिछड़ों की आवाज उठाए बिना सत्ताधारी कांग्रेस का भी काम नहीं चलता था। वामपंथी दलों का तो निशान ही खेती-किसानी से जुड़ा हुआ है। लेकिन भारतीय राजनीति में उनकी आवाज लगातार कमजोर हुई है। हालांकि किसानों की समस्याओं को वे अब भी संजीदगी से उठाते रहते हैं। लेकिन उदारवाद के दौर में उभरी राजनीति और मीडिया ने इन आवाजों से लगातार अपने को दूर कर लिया है। ऐसा करते वक्त वे भूल जाते हैं कि विकास का चाहे जितना भी चमकदार चेहरा हो, लेकिन जब तक पेट भरा नहीं होगा विकास इंसान के चेहरे पर चमक नहीं ला सकता। देश का बेहतरीन गेहूं, आटा और सूजी उत्पादन करने वाला मध्यप्रदेश का किसान बदहाल रहेगा तो उदारीकरण के दौर के रसूखदार इंसान के लिए स्वादिष्ट रोटियां कहां से आएंगी, लजीज उपमा के लिए सूजी कहां से आएगी, लेकिन दुर्भाग्यवश इसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है। इस तरफ ध्यान न देने वाले भूल जाते हैं कि अगर किसानों ने कमर कस ली तो ना तो उदारीकरण का चमकदार चेहरा बच पाएगा और न उदारीकरण के पैरोकार। एक जमाना था जब चुनाव में हल जोतता हुआ किसान, दो बैलों की जोड़ी, गाय बछड़ा, हलधर जैसे चुनाव चिन्ह हुआ करते थे। चौधरी चरण सिंह यह कहा करते थे कि देश की सत्ता का रास्ता गांव की गलियों और खेत की पगडंडियों से होकर गुजरता था। आम चुनाव में कृषि और किसान से जुड़े मुद्दों का शोर रहा करता था। 16वीं लोकसभा के गठन के लिए होने जा रहे चुनाव में यह सारे मुद्दे गायब हैं। यह न केवल समाज के लिए दुखद है बल्कि देश के लिए भी नुकसानदायक साबित होगा। इस बार का आम चुनाव एक दूसरे पर दोषारोपण और कीचड़ उठालने जैसे मुद्दे पर जाकर टिक गया है। निर्णय जनता को लेना है कि वह क्या पसंद कर रही है।
Wednesday 5 March 2014
फैसला अंतिम आदमी के हाथ में
लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ एक बार फिर से भारतीय लोकतंत्र
की यात्रा में वह पड़ाव आ गया है, जब करीब सवा अरब आबादी वाले देश में
अस्सी करोड़ से ज्यादा मतदाता ‘भारत-भाग्य विधाताओं’ के बारे में फैसला
करेंगे. बीसवीं सदी के शुरुआती साठ वर्षो तक भारतीय लोकतंत्र अपनी सफलता से
दुनिया को चौंकाता रहा. दुनिया के बड़े विचारक और नेता तब यह मानने को तैयार नहीं थे कि अनपढ़
और गरीबों से भरे किसी देश में लोकतांत्रिक राज-व्यवस्था संभव भी हो सकती
है. लेकिन भारत की संविधान-सभा में बैठे देश के कर्णधारों को अपने नागरिकों
के विवेक पर भरपूर भरोसा था. उस वक्त संविधान-सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र
प्रसाद ने कहा था कि हमारे अधिकतर मतदाता अनपढ़ और गरीब भले हों, लेकिन
अपने विवेक से वे समाज के हक में अच्छे-बुरे का भेद समझते हैं. इन्होंने
अपने ऊपर जताये गये इस भरोसे को सच करते हुए आजादी के बाद लोकतंत्र को सफल
करते हुए पूरी दुनिया के विचारकों और नेताओं को चौंकाया. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में आज फिर से मतदाताओं के सामने परीक्षा
की घड़ी है. अब उन्हें साबित करना होगा कि उनका विवेक आत्महित और देशहित के
बीच के नाजुक संबंध को पहचानता है. अगर विवेक ने दगा किया, तो आनेवाले
पांच वर्षो तक यह मलाल कायम रहेगा कि जिसे चुन कर संसद में भेजा था, वह
मिट्टी का माधो निकला. दरअसल, यदि राजनीति लोगों की अपेक्षाओं पर खरा नहीं
उतरती, तो प्रश्न-चिह्न् उनके विवेक पर भी लगता है, क्योंकि अंतिम निर्णय
उनके वोटों से ही निकला है. उनके लिए यह घड़ी लुभावने वादों, चमकदार चेहरों, नित नये बनते मुहावरों
की सच्चाइयों को परख कर अपने क्षेत्र, प्रदेश और देश के हित में तालमेल
बैठाते हुए सोलहवीं लोकसभा के गठन के लिए फैसला सुनाने का है. मतदाताओं को
साबित करना होगा कि पंच-परमेश्वर के रूप में वह जाति, धर्म और क्षेत्र के
दायरे से ऊपर उठ कर देशहित में फैसला सुनाता है. अत: सोलहवीं लोकसभा के गठन
के लिए मतदान के लिए जायें, तो सबसे पहले यह सोचें कि आपके वोट से इस पूरे
देश के भाग्य का फैसला होना है और उसके भाग्य का भी, जिसे हमारे
राष्ट्रपिता ने कतार में खड़ा ‘अंतिम आदमी’ कहा है!
Wednesday 5 February 2014
बरसेंगे लॉलीपॉप, और निकालेगी हमारी-आपकी जेब से ही
लगातार 10 हिट फिल्में दे सकनेवाला निर्माता-निर्देशक भी नहीं बता सकता कि हिट फिल्म बनाने का फॉर्मूला क्या है! लैपटॉप के वादे पर भैया अखिलेश की सरकार बन जाती है, लेकिन लैपटॉप बंट
जाने के बाद वही जनता भैया अखिलेश से बिदकी नजर आती है! हाल-फिलहाल कोई
चुनाव हुआ तो नहीं, लेकिन कई जनमत सर्वेक्षण ऐसा ही हाल बता रहे हैं. कहीं
पर चावल-गेहूं एक-दो रुपये प्रति किलो के भाव पर देने से सरकार बच जाती है,
तो कहीं कोई गहलोत साहब हर तरह का ‘जनकल्याण’ करके भी ऐतिहासिक हार का
मुकुट पहन लेते हैं. राजस्थान में चुनाव से पहले करीब सवा करोड़ सीएफएल
बल्ब बंटे, जिनमें गहलोत जी चमक रहे थे, लेकिन इससे उनकी चुनावी किस्मत
नहीं चमक सकी. खबर पढ़ने को मिली कि अब भी कुछ लाख बल्ब राज्य सरकार के
गोदामों में पड़े हैं. वसुंधरा सरकार परेशान है कि वह गहलोत की तसवीरों
वाले इन बल्बों का करे तो क्या करे! ऐसे में बेचारे राजनेताओं के पास केवल यही विकल्प बचता है कि पुराने
फॉमरूलों को आजमाते रहें और उसके बाद अपनी अच्छी किस्मत के लिए प्रार्थना
करें. केंद्र की यूपीए सरकार अभी यही कर रही है. गैस सिलिंडरों की संख्या
नौ से बढ़ा कर 12 करने का फैसला किया गया. इस उपकार का सेहरा युवराज के सिर
पर बांधा गया. भले ही कोई पूछता रहे कि हुजूर, नौ की सीमा तो आपकी ही
सरकार ने लगायी थी, तो आपका कौन-सा फैसला गलत है, पहले वाला या अभी वाला!
जो भी हो, इस फैसले से यूपीए सरकार को यह कहने का एक मौका मिलेगा कि वह
जनता की तकलीफों पर मरहम लगाती है. सीएनजी और पीएनजी के दाम घटा दिये गये.
दाम बढ़ाये किसने थे, यह सवाल अब भूल जाइये न! क्या पता आनेवाले दिनों में
पेट्रोल के दाम भी कुछ घटा दिये जायें! केंद्र सरकार ने अपने कर्मचारियों को भी तोहफे बांटना शुरू कर दिया है.
पीएफ पर ब्याज दर बढ़ाने की घोषणा हाल में की गयी है. पिछले साल सितंबर में
उनके लिए महंगाई भत्ता 10 प्रतिशत बढ़ाने का फैसला किया गया था. अब खबर है
कि महंगाई भत्ता 10 प्रतिशत और बढ़ाया जायेगा और इसकी घोषणा अगले महीने हो
सकती है. पांच महीने के अंदर ही इसकी दोबारा समीक्षा कर्मचारी-हितों की
चिंता में की जा रही है, या वोटों की चिंता में? महंगाई क्यों बढ़ी, इस
सवाल को लेकर आप क्यों परेशान हो रहे हैं? आप तो महंगाई भत्ता लेकर खुश
रहें.अब ताजा खबर यह है कि सरकार ने सातवां वेतन आयोग गठित कर दिया है. वैसे
तो नया वेतन आयोग 10 साल बाद गठित किया जाता है. छठवां वेतन आयोग अक्तूबर,
2006 में गठित हुआ था, इसलिए केंद्र सरकार चाहती तो सातवां वेतन आयोग बनाने
का फैसला ढाई साल बाद करती. लेकिन आपको याद ही होगा कि छठवें वेतन आयोग की
सिफारिशें लागू हो जाने का फायदा 2009 के चुनाव में मिला था. ओह, माफ
करें, जनता की याद्दाश्त ज्यादा नहीं होती, होनी भी नहीं चाहिए! आप बस इतना याद रखें कि इस सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून बना दिया है.
साथ में याद रखने लायक और कौन-कौन सी बातें हैं, यह आपको विज्ञापनों से पता
चलता रहेगा. सरकार आपको याद दिलाती रहेगी कि मेट्रो बीते 10 सालों में चली
है. याद रहे कि दिल्ली में मेट्रो रेल का श्रेय लेने की होड़ यूपीए-1 की
सरकार बनने से भी पहले केंद्र की एनडीए और दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार के
बीच चली थी. सरकार आपको याद दिलाती रहेगी कि अब मनरेगा के तहत अस्थायी मजदूरी गांव
में मिल जाती है. लेकिन आप सरकार से यह न पूछें कि देश में बीते पांच वर्षो
में कितना रोजगार सृजन हुआ है. बीते 10 वर्षो में समावेशी विकास
(इन्क्लूसिव ग्रोथ) कब रोजगार-विहीन विकास (जॉबलेस ग्रोथ) में बदला और कब
विकास ही ठहर गया, इस तरह के सवाल न ही पूछें तो अच्छा है.
चला-चली की बेला में यूपीए-2 सरकार लोगों के लिए अभी और भी बहुत-से लॉलीपॉप बांट दे, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं. आश्चर्य तो तब होगा, जब वह ऐसा न करे. यह उसके लिए बिना जोखिमवाला खेल है. इस दानवीरता से अगर वह वापस सरकार बनाने की हालत में आ जाये तो खेल बन गया समङिाए. हालांकि आज ऐसी उम्मीद शायद कट्टर कांग्रेसजनों को भी नहीं होगी! लेकिन अगर ऐसा करने से उसे होनेवाला नुकसान ही कुछ हल्का हो जाये तो क्या बुरा है! रही बात इस दानवीरता का सरकारी खजाने पर होनेवाला असर संभालने की, तो वह चिंता तो आनेवाली सरकार की होगी. वैसे भी रिवाज के अनुसार हर नयी सरकार आते ही बयान देती है कि उसे खजाना खाली मिला है. सबसे ज्यादा हैरानी इस बात पर है कि वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने मौजूदा सरकार के कार्यकाल में प्रत्यक्ष कर संहिता (डीटीसी) पारित होने के बारे में नाउम्मीदी जता दी है. डीटीसी पारित करके मध्य वर्ग के लिए आय कर में छूट की सीमा बढ़ाने का फैसला उनके लिए एक बड़ा चुनावी हथियार बन सकता था. डीटीसी की तैयारियों का काम तो साल भर पहले ही पूरा हो चुका था. इसे लेकर कोई खास राजनीतिक गतिरोध भी नहीं रहा है. भाजपा के यशवंत सिन्हा की अध्यक्षतावाली संसदीय समिति ने अपना काम साल भर पहले ही पूरा कर दिया था और वे सरकार से पूछते रहे हैं कि इस विधेयक को पेश क्यों नहीं किया जा रहा! इससे तो लगता है कि डीटीसी का स्वरूप ऐसा नहीं बन पा रहा था, जो लोक-लुभावन हो. यानी भविष्य में भी डीटीसी लागू होने पर किसी बड़ी राहत की उम्मीद आम लोगों को नहीं करनी चाहिए. संभव है कि सरकार एक हाथ से थोड़ा देकर दूसरे हाथ से ज्यादा ले ले. दरअसल डीटीसी में एक तरफ आय कर छूट की सीमा बढ़ाने का प्रस्ताव है, तो दूसरी तरफ दुनिया भर की कर रियायतों को खत्म करने की भी बात है. इसलिए शायद स्थिति ऐसी बन रही हो कि डीटीसी लागू होने से काफी लोगों के लिए आय कर का बोझ घटने के बदले कुछ बढ़ ही जाये. खैर, अभी चुनावी बादलों ने घुमड़ना शुरू कर दिया है. कुछ लॉलीपॉप बरसेंगे, कुछ वादे बरसेंगे. लॉलीपॉप के पैसे अगली सरकार देगी, और निकालेगी हमारी-आपकी जेब से ही.
चला-चली की बेला में यूपीए-2 सरकार लोगों के लिए अभी और भी बहुत-से लॉलीपॉप बांट दे, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं. आश्चर्य तो तब होगा, जब वह ऐसा न करे. यह उसके लिए बिना जोखिमवाला खेल है. इस दानवीरता से अगर वह वापस सरकार बनाने की हालत में आ जाये तो खेल बन गया समङिाए. हालांकि आज ऐसी उम्मीद शायद कट्टर कांग्रेसजनों को भी नहीं होगी! लेकिन अगर ऐसा करने से उसे होनेवाला नुकसान ही कुछ हल्का हो जाये तो क्या बुरा है! रही बात इस दानवीरता का सरकारी खजाने पर होनेवाला असर संभालने की, तो वह चिंता तो आनेवाली सरकार की होगी. वैसे भी रिवाज के अनुसार हर नयी सरकार आते ही बयान देती है कि उसे खजाना खाली मिला है. सबसे ज्यादा हैरानी इस बात पर है कि वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने मौजूदा सरकार के कार्यकाल में प्रत्यक्ष कर संहिता (डीटीसी) पारित होने के बारे में नाउम्मीदी जता दी है. डीटीसी पारित करके मध्य वर्ग के लिए आय कर में छूट की सीमा बढ़ाने का फैसला उनके लिए एक बड़ा चुनावी हथियार बन सकता था. डीटीसी की तैयारियों का काम तो साल भर पहले ही पूरा हो चुका था. इसे लेकर कोई खास राजनीतिक गतिरोध भी नहीं रहा है. भाजपा के यशवंत सिन्हा की अध्यक्षतावाली संसदीय समिति ने अपना काम साल भर पहले ही पूरा कर दिया था और वे सरकार से पूछते रहे हैं कि इस विधेयक को पेश क्यों नहीं किया जा रहा! इससे तो लगता है कि डीटीसी का स्वरूप ऐसा नहीं बन पा रहा था, जो लोक-लुभावन हो. यानी भविष्य में भी डीटीसी लागू होने पर किसी बड़ी राहत की उम्मीद आम लोगों को नहीं करनी चाहिए. संभव है कि सरकार एक हाथ से थोड़ा देकर दूसरे हाथ से ज्यादा ले ले. दरअसल डीटीसी में एक तरफ आय कर छूट की सीमा बढ़ाने का प्रस्ताव है, तो दूसरी तरफ दुनिया भर की कर रियायतों को खत्म करने की भी बात है. इसलिए शायद स्थिति ऐसी बन रही हो कि डीटीसी लागू होने से काफी लोगों के लिए आय कर का बोझ घटने के बदले कुछ बढ़ ही जाये. खैर, अभी चुनावी बादलों ने घुमड़ना शुरू कर दिया है. कुछ लॉलीपॉप बरसेंगे, कुछ वादे बरसेंगे. लॉलीपॉप के पैसे अगली सरकार देगी, और निकालेगी हमारी-आपकी जेब से ही.
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