Wednesday 18 June 2014

शून्य है अखिलेश सरकार का इकबाल

पिछले दिनों दिल्ली में आयोजित निवेश सम्मेलन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को प्रदेश में तकरीबन 60 हजार करोड़ रुपए के निवेश की उम्मीद जगी है। राज्य सरकार के साथ 54,056 करोड़ रुपए के 19 एमओयू पर हस्ताक्षर करने वाली अधिकांश कंपनियां वही हैं जो पहले से किसी न किसी रूप से प्रदेश से जुड़ी हुई हैं। इस निवेश सम्मेलन से गदगद होने वाले मुख्यमंत्री को इसकी चिंता होनी चाहिए कि आखिर नए निवेशक प्रदेश में निवेश करने से क्यों घबरा रहे हैं? जो उद्योग-धंधे प्रदेश में हैं वे बंद होने की कगार पर क्यों हैं और निवेशक पलायन करने को क्यों मजबूर हैं? एक ओर जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हुनरमंद भारत का रोडमैप देश के सामने रख रहे हैं, वहीं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री खोखले दावों के आधार पर यह दावा कर रहे हैं कि जब तक उत्तर प्रदेश हुनरमंद नहीं होगा, देश हुनरमंद नहीं होगा। कितनी बड़ी विडंबना है कि जिस प्रदेश में कानून एवं व्यवस्था की जगह अराजकता का साम्राज्य हो, बिजली, पानी, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए लोग तरस रहे हों, उस प्रदेश का मुख्यमंत्री राज्य को उत्तम प्रदेश बताने का दावा करे? मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने 27 महीने के कार्यकाल में कोई छाप क्यों नहीं छोड़ पाए? क्यों उनकी सरकार का इकबाल शून्य पर है? क्या उनकी सरकार का सारा ध्यान तबादला, बहाली और नोएडा, ग्रेटर नोएडा में जमीनें आवंटित करने आदि पर केंद्रित नहीं है? राज्य में बिजली का गहन संकट है, विद्युत उत्पादन करने वाले संयंत्र ठप हैं या अपनी क्षमता से कम उत्पादन कर रहे हैं। प्रदेश में 12,700 मेगावाट प्रतिदिन बिजली की जरूरत है, सरकार केवल 10,700 मेगावाट बिजली ही उपलब्ध करवा पा रही है। बिजली चोरी और लीकेज के कारण सरकार को सालाना 7000 करोड़ रुपए की क्षति हो रही है। सड़कें टूटी-फूटी हैं या नदारद हैं। समझ में नहीं आता कि सड़कों में गढ्डे हैं या गढ्डों में सड़क है। बदायूं की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद आए-दिन राज्य के किसी न किसी इलाके में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोज दिख रही है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को बदायूं की घटना के बाद राज्य के प्रधान सचिव अनिल कुमार गुप्ता को स्थानांतरित करने में 6 दिन और स्थानीय थानाप्रभारी गंगासिंह यादव का तबादला करने में 8 दिन का समय लगा। उत्तर प्रदेश में पहले थानाप्रभारी का चयन उसके कामकाज के रिकॉर्ड के आधार पर होता था। 2012 में सत्ता में आने के बाद समाजवादी पार्टी ने इस व्यवस्था को बदल डाला। आज उत्तर प्रदेश में कुल 1560 थाने हैं और उनमें से 800 थानों की कमान यादवों के हाथ में है। उनकी नियुक्ति जाति के आधार पर की गई या मेरिट पर, निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं है। क्यों उनकी नियुक्ति उनके गृह जिले या पड़ोसी जिले में की गई? बदायूं की घटना में स्थानीय पुलिस का निष्क्रिय रहना उसी का दुष्परिणाम है। दुष्कर्म और हत्या के तीन आरोपियों में से दो यादव हैं, कसूरवार स्थानीय पुलिस वालों में दोनों यादव हैं। क्या यह महज संयोग है? प्रदेश में सपा कार्यकतार्ओं व नेताओं की दबंगई आम बात है। इलाहाबाद के एक थाने में घुसकर स्थानीय सपा नेता गाली-गलौच कर एक कैदी को छुड़ा ले जाता है और प्रशासन खामोश रहता है, यह कोई इकलौती घटना नहीं है। जो अधिकारी ऐसी अराजकता को चुनौती देने का दुस्साहस करता है उसे सपा सरकार प्रताड़ित करती है।

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