Wednesday 29 April 2015

नेपाल की त्रासदी से सबक लेना जरूरी

नेपाल में भूकंप की त्रासदी विभीषिका का एक भयानक दृश्य ही नहीं, बल्कि एक गंभीर चेतावनी भी है। प्राकृतिक आपदाओं पर मनुष्य का वश नहीं है, पर संभावित तबाही के असर को कम किया जा सकता है। समूचा भारत भूकंप-संभावित क्षेत्र है, करीब 60 फीसदी अधिक खतरे के दायरे में आता है, जिसमें देश के 38 शहर शामिल हैं। 2006 में गृह मंत्रलय के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा तैयार रिपोर्ट के अनुसार, इन शहरों में ज्यादातर निर्माण भूकंप-रोधी नहीं हैं, इसलिए भूकंप की स्थिति में ये भवन किसी भयावह बर्बादी का शिकार बन सकते हैं। विशेषज्ञ कहते हैं कि दिल्ली में 80 फीसदी भवन तीव्र भूकंप का झटका बर्दाश्त नहीं कर पायेंगे। जब देश की राजधानी में हालात ऐसे हैं, तो अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है कि अन्य शहरों की दशा क्या है। दिल्ली के अलावा श्रीनगर, गुवाहाटी, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता जैसे प्रमुख शहर भी संभावित खतरे वाले जोन में हैं। देश में शहरीकरण की तेज रफ्तार और विकास की अंधी दौड़ ने जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित किया है। महानगरों से कस्बों तक आबादी का घनत्व तेजी से बढ़ रहा है। इस वजह से तंग गलियों में भी रिहायशी और व्यावसायिक बहुमंजिली इमारतें धड़ल्ले से बन रही हैं, जहां  से आपदा के वक्त निकलना संभव नहीं। भारतीय मानक ब्यूरो ने 1962 में पहली बार भूकंप-रोधी निर्माण का दिशा-निर्देश जारी किया था, जिसे आखिरी बार 2005 में संशोधित किया था। लेकिन इन निर्देशों के बारे में जागरूकता न के बराबर है तथा निर्माण में संलग्न संस्थाएं इसके प्रति बेपरवाह हैं। अनधिकृत कॉलोनियों को छोड़ दें, सरकार और निजी कंपनियों द्वारा बनाये भवनों में भी ब्यूरो के निर्देशों की अवहेलना की जाती है। प्रशासन की लापरवाही और  भ्रष्टाचार के कारण निर्माण कंपनियां सुरक्षा मानदंडों की खुलेआम अनदेखी करती हैं। मोटी कमाई के लालच में बिल्डर न सिर्फ भूकंप-रोधी मानदंडों को नजरअंदाज करते हैं, बल्कि अन्य सुरक्षा तैयारियों को लेकर भी बेपरवाह होते हैं। लाखों नागरिको की जान जोखिम में डालने वाले इस आपराधिक कृत्य में अधिकारी और राजनेता बराबर के शरीक हैं। जरूरी है कि बहुमंजिली इमारतों की कड़ाई से जांच की जाये और सुरक्षा मानदंडों की अनदेखी करनेवालों पर ठोस कार्रवाई हो।

Sunday 26 April 2015

भूकंप क्यों आते हैं, कैसे इस खतरे से बचें!

देश में जब भूकंप आने की खबरें आती हैं तो मन में एक सवाल कौंध जाता है कि आखिर क्यों आता है भूकंप? इसका उत्तर जानने के लिए हमें पृथ्वी की संरचना को समझना होगा। पूरी धरती 12 टैक्टोनिक प्लेटों पर स्थित है। इसके नीचे तरल पदार्थ लावा है। ये प्लेटें इसी लावे पर तैर रही हैं और इनके टकराने से ऊर्जा निकलती है जिसे भूकंप कहते हैं। अब सवाल उठता है कि आखिर ये प्लेटें क्यों टकराती हैं? दरअसल ये प्लेंटे बेहद धीरे-धीरे घूमती रहती हैं। इस प्रकार ये हर साल 4-5 मिमी अपने स्थान से खिसक जाती हैं। कोई प्लेट दूसरी प्लेट के निकट जाती है तो कोई दूर हो जाती है। ऐसे में कभी-कभी ये टकरा भी जाती हैं। ये प्लेटें सतह से करीब 30-50 किमी तक नीचे हैं। भूकंप का केंद्र वह स्थान होता है जिसके ठीक नीचे प्लेटों में हलचल से भूगर्भीय ऊर्जा निकलती है। इस स्थान पर भूकंप का कंपन ज्यादा होता है। कंपन की आवृत्ति ज्यों-ज्यों दूर होती जाती हैं, इसका प्रभाव कम होता जाता है। फिर भी यदि रिक्टर स्केल पर 7 या इससे अधिक की तीव्रता वाला भूकंप है तो आसपास के 40 किमी के दायरे में झटका तेज होता है। लेकिन यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि भूकंपीय आवृत्ति ऊपर की तरफ है या दायरे में। यदि कंपन की आवृत्ति ऊपर को है तो कम क्षेत्र प्रभावित होगा। मतलब साफ है कि हलचल कितनी गहराई पर हुई है। भूकंप की गहराई जितनी ज्यादा होगी सतह पर उसकी तीव्रता उतनी ही कम महसूस होगी। मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या भारत को भूकंप का सर्वाधिक खतरा है? इसके जवाब में हम पाते हैं कि इंडियन प्लेट हिमालय से लेकर अंटार्कटिक तक फैली है। यह पाकिस्तान बार्डर से सिर्फ टच करती है। यह हिमालय के दक्षिण में है। जबकि यूरेशियन प्लेट हिमालय के उत्तर में है। इंडियन प्लेट उत्तर-पूर्व दिशा में यूरेशियन प्लेट जिसमें चीन आदि बसे हैं कि तरफ बढ़ रही है। यदि ये प्लेट टकराती हैं तो भूकंप का केंद्र भारत में होगा। भूंकप के खतरे के हिसाब से भारत को चार जोन में विभाजित किया गया है। जोन दो-दक्षिण भारतीय क्षेत्र जो सबसे कम खतरे वाले हैं। जोन तीन-मध्य भारत, जोन चार-दिल्ली समेत उत्तर भारत का तराई क्षेत्र, जोन पांच-हिमालय क्षेत्र और पूर्वोत्तर क्षेत्र तथा कच्छ। जोन पांच सबसे ज्यादा खतरे वाले हैं। देश में भूकंप माइक्रोजोनिंग का कार्य शुरू किया गया है। इसमें क्षेत्रवार जमीन की संरचना आदि के हिसाब से जोनों के भीतर भी क्षेत्रों को भूकंप के खतरों के हिसाब से तीन माइक्रोजोन में विभाजित किया जाता है। दिल्ली, बेंगलूर समेत कई शहरों की ऐसी माइक्रोजोनिंग हो चुकी है। कम खतरे वाले क्षेत्र-दिल्ली रिज क्षेत्र, मध्यम खतरे वाले क्षेत्र-दक्षिण पश्चिम, उत्तर पश्चिम और पश्चिमी इलाका, ज्यादा खतरे वाले-उत्तर, उत्तर पूर्व, पूर्वी क्षेत्र। भूंकप की जांच रिक्टर स्केल से होती है। भूकंप के दौरान धरती के भीतर से जो ऊर्जा निकलती है, उसकी तीव्रता को इससे मापा जाता है। इसी तीव्रता से भूकंप के झटके की भयावहता का अंदाजा होता है। रिक्टर स्केल पर 5 से कम तीव्रता वाले भूकंपों को हल्का माना जाता है। साल में करीब 6000 ऐसे भूकंप आते हैं। जबकि 2 या इससे कम तीव्रता वाले भूकंपों को रिकार्ड करना भी मुश्किल होता है तथा उनके झटके महसूस भी नहीं किए जाते हैं। ऐसे भूकंप साल में 8000 से भी ज्यादा आते हैं। रिक्टर स्केल पर 5-5.9 के भूकंप मध्यम दर्जे के होते हैं तथा प्रतिवर्ष 800 झटके लगते हैं। जबकि 6-6.9 तीव्रता के तक के भूकंप बड़े माने जाते हैं तथा साल में 120 बार आते हैं। 7-7.9 तीव्रता के भूकंप साल में 18 आते हैं। जबकि 8-8.9 तीव्रता के भूकंप साल में एक आ सकता है। इससे बड़े भूकंप 20 साल में एक बार आने की आशंका रहती है। रिक्टर स्केल पर आमतौर पर 5 तक की तीव्रता वाले भूकंप खतरनाक नहीं होते हैं। लेकिन यह क्षेत्र की संरचना पर निर्भर करता है। यदि भूकंप का केंद्र नदी का तट पर हो और वहां भूकंपरोधी तकनीक के बगैर ऊंची इमारतें बनी हों तो 5 की तीव्रता वाला भूकंप भी खतरनाक हो सकता है। 8.5 वाला भूकंप 7.5 वाले भूकंप से करीब 30 गुना ज्यादा शक्तिशाली होता है। भूकंप के खतरे से कैसे बचा जा सकता है। इस पर विचार करना जरुरी है। हमें यह निर्धारित करना होगा कि नए घरों को भूकंप रोधी बनाएं। जिस स्थान पर घर बना रहे हैं उसकी जांच करा लें कि वहां जमीन की संरचना भूकंप के लिहाज से मजबूत है या नहीं।

Tuesday 7 April 2015

उनकी मौत भी हमारे ‘जिल्ले इलाही’ को जगा नहीं पा रही

खुदा तो सिर्फ जीवन देता है, पालन-पोषण तो किसान करता है। दुनिया को पालने वाले किसान मौत को गले लगा रहे हैं और हम डिनर पर टीवी के सामने बैठकर क्रिकेट के छक्कों पर ताली बजा रहे हैं। हम टीवी फोड़ देते हैं, बरतन तोड़ देते हैं, सोशल साइट्स पर अनसोशल हो जाते हैं, हमारी देशभक्ति जोर मारने लगती जब हमारी टीम हार जाती है। लेकिन हमारा खून नहीं खौलता जब हमें डिनर कराने वाला जिन्दगी की जंग हार जाता है। हमारा अन्नदाता जब फांसी के फंदे को अपने गले का हार बना लेता है, हम चुप रहते हैं, फिर भी हम संवेदनशील कहे जाते हैं, कथित सभ्य भी। जिसने सबको बनाया और जो मौत और तकदीर पर नियंत्रण रखता है, उस खुदा को भी उस वक्त खून के आंसू निकल आते होंगे जब अन्नदाता काल के गाल में समा जाता है। भारत कृषि प्रधान देश है, किसान हमारे अन्नदाता हैं। इन सारे जुमलों को सुनकर अब हंसी छूट जाती है। गुस्सा आता है। खून खौलता है। सियासत से अदब की दोस्ती बेमेल लगती है, कभी देखा है पत्थर पे भी कोई बेल लगती है। कोई भी अंदरूनी गंदगी बाहर नहीं होती, हमें इस हुकूमत की भी किडनी फेल लगती है। सरकार में राज्य से लेकर केंद्र तक को देखें, इसे अलहदा ना समझें क्योंकि सत्ता का स्वरूप एक ही होता है। बेमौसम हुई बारिश के बाद जम्हूरियत की आंखें उम्मीदबर हैं और दिल बेचैन। जुबां खामोश हैं, पर जेहन में सवालों का शोर। बेमौसम बारिश और ओलों से यूपी से लेकर एमपी तक में किसान मौत को गले लगा रहे हैं लेकिन उनकी मौत भी हमारे ‘जिल्ले इलाही’ को जगा नहीं पा रही है। किसानों का इरादा जख्मों पर मरहम लगाने का है, लोग भी हर तरह ‘साहेब’ के मुंह से इमदाद सुनने को बेसब्र हैं। अपने उघड़े जख्मों पर मरहम लगाने की उम्मीद लगा रहे हैं, दवा तो नसीब नहीं हुई लेकिन मध्य प्रदेश के कलेक्टर साहेब ने उस पर नमक जरूर रगड़ दिया। डीएम साहेब आॅडियो स्टिंग में कह रहे हैं, हम तो तंग आ गए हैं रोज-रोज की.....जो मरेगा इसी की वजह से मरेगा क्या... इतने बच्चे पैदा किए तो टेंशन से प्राण तो निकलेंगे ही...पांच-पांच, छह-छह छोरा-छोरी पैदा कर लेते हैं...और आत्महत्या कर हमको बदनाम करते हैं..। ये टेक्नोलॉजी है कि साहेब पकड़े गए। वैसे कमोबेश हम सूबे के साहेब की यही सोच है। मन की बात के जरिए जम्हूरियत से सीधे संवाद कर रहे हैं हमारे जिल्ले इलाही लेकिन उनतक हमारे मन की बात को कौन बताए। जब बीच वाले साहेब की सोच यही है। प्रधानमंत्री ने कॉरपोरेट को सुरक्षा देने के लिए अपनी पूरी ‘स्किल’ लगा दी है। पूंजीपतियों ने इसे अपने ‘स्केल’ पर खूब सराहा है। किसानों के मरने की ‘स्पीड’ वैसे ही बनी हुई है। किसान मरता है तो मरने दो। बस गाय बचा लो। गाय धर्म है, वोट है, फिर सत्ता में आने का जरिया है। किसानों की मौत से संसद का सीना ‘दु:ख और दर्द से छलनी हो जाय’ यह हादसा क्यों नहीं होता! किसानों के जज्बात को, इज्जत से जिन्दा रहने की जिद को नए रास्ते क्यों नहीं मिलते, अभी तक मैं समझ नहीं पाया। मेरे बाबा जी अक्सर कहा करते थे कि उत्तम खेती, मध्यम बान, निखिद चाकरी भीख निदान. पूर्वांचल के लोग इस कहावत को अच्छी तरह से समझ जाएंगे। फिर ऐसा क्या हुआ कि सबका ‘दाता’ भिखारी बनता गया। मुल्क के हुक्मरानों को न केवल इस गहराती गई त्रासदी का पता था बल्कि काफी हद तक वे ही इसके लिए जिम्मेदार भी थे। इतनी बड़ी आबादी के खेती पर निर्भर होने के बावजूद किसानों को लेकर केवल राजनीतिक रोटियां सेंकी गईं, क्योंकि परिणाम नीति और नीयत की पोल खोल देते हैं। मुझे घिन आती है उस देश की व्यवस्था पर जिसके गोदामों में अरबों का अनाज सड़ जाता है पर सरकार भुखमरी के शिकार लोगों में वितरित नहीं करती? साहेब कोई किसान यूं ही नहीं मरता। उसे मरने पर मजबूर करती है आपकी व्यवस्था, उसे मारता है बेटी की डोली न उठ पाने का दर्द, उसे मारता है अपने बच्चे को रोटी नहीं दे पाने की कसक, उसे मारती है अपने दुधमुंहे बच्चे को दूध देने के लिए बनिये की दुकान पर मंगलसूत्र रखने को मां की मजबूरी, उसे मारती है हमारी और आपकी चुप्पी।

Thursday 2 April 2015

सोनिया पर गिरिराज की टिप्पणी अकारण नहीं

1 अप्रैल 2015 को बिहार के हाजीपुर में आयोजित एक कार्यक्रम में बीजेपी के नेता व मोदी कैबिनेट के मंत्री गिरिराज सिंह ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर नस्ली टिप्पणी की। गिरिराज का टिप्पणी क्या करना, देश की राजनीति गरमा गई। कांग्रेस और मोदी सरकार के विपक्षी अन्य सभी दलों के नेताओं ने मोदी सरकार पर हमला बोलना तेज कर दिया। बात इतनी बढ़ गयी कि गिरिराज सिंह को माफी मांगना पड़ा और भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने दूरभाष पर फटकार भी लगाई। यह घटना बेंगलुरु में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक होने से ठीक दो दिन पहले की है। ऐसे में यह सोचना समीचीन है कि आखिर गिरिराज सिंह ने सोनिया पर ऐसी टिप्पणी क्यों की। सोनिया पर भाजपा की ओर से इस तरह की टिप्पणी पहली बार  नहीं बल्कि समय-समय पर की जाती रहती है। ऐसे में यह दिखता है कि गिरिराज ने यह टिप्पणी अकारण नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति के तहत की है। 20 अप्रैल से मोदी सरकार बजट सत्र शुरु होने जा रहा है। भूमि अधिग्रहण विधेयक को पारित कराना मोदी सरकार ने अपनी प्रतिष्ठा बना लिया है। पिछली बार राज्यसभा में भूमि अधिग्रहण विधेयक पारित नहीं हो सका तो कैबिनेट की बैठक में फिर नौ संशोधनों के साथ नए भूमि अधिग्रहण विधेयक को हरी झंडी दे दी गई है। लोकसभा में यह विधेयक पास हो जाएगा, पर राज्यसभा में फिर दिक्कत आएगी। इस मुद्दे को लेकर कुछ किसान संगठन, अन्ना हजारे और कांग्रेस ने आन्दोलन छेड़ रखा है। जनता का ध्यान भी कमोवेश इसी मुद्दे पर केन्द्रित हो रहा था, क्योंकि वर्तमान में इसके अलावा कोई अन्य मुद्दा चर्चा में नहीं रहा। अब अचानक गिरिराज सिंह ने ऐसा नया मुद्दा कांग्रेस के हाथ में पकड़ा दिया है कि कुछ दिनों तक कांग्रेसी अब इसी मुद्दे पर केन्दित रहेंगे। ऐसे में देश की जनता का मूड भी इस मुद्दे से दूसरे मुद्दे की ओर चला गया।