Monday 31 March 2014

टिकट बंटवारे पर मनमानी से अपना दल में अन्तर्कलह

रमेश पाण्डेय
कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बाद प्रत्याशी चयन में मनमानी को लेकर उत्तर प्रदेश के क्षेत्रीय दल के रुप में उभरकर सामने आए अपना दल में अन्तर्कलह तेज हो गया है। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने अपना दल से एलायंस किया है। इस एलायंस में मिर्जापुर और प्रतापगढ़ दो सीटे भाजपा ने अपना दल के लिए छोड़ी है। मिर्जापुर संसदीय सीट से पार्टी की विधायक अनुप्रिया पटेल चुनाव लड़ रही हैं। प्रतापगढ़ में मुंबई के उद्योगपति कुंवर हरिवंश सिंह को पार्टी ने टिकट दिया है। इस बात को लेकर पार्टी की प्रदेश इकाई ने विद्रोह कर दिया है। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष साजिद खान ने सोमवार को अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। साजिद खान का कहना है कि प्रतापगढ़ से पार्टी ने जिसे टिकट दिया है, वह पार्टी का प्राथमिक सदस्य भी कभी नहीं रहा। टिकट बांटते समय पार्टी संगठन की राय भी नहीं ली गयी। इतना ही नहीं प्रदेश अध्यक्ष रहे साजिद खान का कहना है कि अनुप्रिया पटेल के पति ने पार्टी पर कब्जा कर लिया है। वह मनमानी ढंग से पैसा लेकर टिकट का बंटवारा कर रहे हैं। साजिद ने यह भी आशंका जताई है कि अनुप्रिया के पति पार्टी के संस्थापक डा. सोनेलाल की पत्नी कृष्णा पटेल की हत्या भी करवा सकते हैं। टिकट बंटवारे को लेकर हुए इस अन्तर्कलह से पार्टी की साख पर असर पड़ा है। ऐसे में अपना दल के परंपरागत वोट प्रभावित हो सकते हैं।

Friday 28 March 2014

बात निकली है तो बहुत दूर तलक जाएगी

रमेश पाण्डेय
राष्ट्रीय स्वयं संघ ने भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों की घोषणा से पहले यह फार्मूला सुझाया था कि 70 वर्ष की उम्र पार कर चुके नेताओं को सीधे चुनाव न लड़ाया जाए। ऐसे लोगों को राजनीति में जीवित रखने के लिए पिछले दरवाजे यानि राज्यसभा के जरिए संसद में भेजे जाने का सुझाव संघ ने दिया था। संघ के इस सुझाव पर लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी सरीखे कई नेता नाखुश हुए। इन नेताओं ने इस कदर नाराजगी जताई कि संघ के फार्मूले को भाजपा अमल में नहीं ला सकी। अन्तत: चुनाव के मौके पर किसी नए बखेड़े से बचने के लिए संघ भी अपने इस फार्मूले को लागू करने के लिए दबाव नहीं बनाया। अब जब चुनावी जंग छिड़ गई है और उम्मीदवारों ने मैदान में आकर तरकश संभाल लिया है तो कांग्रेस के वरिष्ठ नेता,  केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने एक इंटरव्यू में कहा है कि राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में उनकी कैबिनेट युवा होगी। उनका कहना है कि किसी भी संगठन में नई जान डालने के लिए पीढी में बदलाव बहुत जरुरी होता है। अन्यथा संगठन जड़ हो जाएगा। इसमें कोई शक नहीं है कि कांग्रेस की पीढ़ी में बदलाव हो रहा है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। इसे बढ़ावा दिया जाना चाहिए।     बेबाक ढंग से टिप्पणी करने वाले रमेश अगले महीने साठ साल के हो जाएंंगे। उन्हें राहुल गांधी का करीबी समझा जाता है। रमेश चाहते हैं कि 70 साल से ज्यादा उम्र के नेता नए लोगों के लिए रास्ता बनाए। उन्होंने ऐसे नेताओं के लिए सलाहकार के ओहदे की वकालत की है। केन्द्रीय मंत्री के इस बयान पर बचाव करते हुए कांग्रेस ने जयराम रमेश के विचार को उनकी निजी राय बताया है। यह तो दो अलग-अलग वाकिए हैं, पर सच यह है कि बात निकली है तो दूर तलक जाएगी। 16वीं लोकसभा चुनाव में पौने दो करोड़ मतदाता ऐसे है जिनकी उम्र 18 से 19 वर्ष के बीच है। सवाल है कि देश के हर प्रोफेशन में उम्र की न्यूनतम और अधिकतम सीमा यानि अर्हता और रिटायरमेंट की आयु निर्धारित है। फिर सवाल है कि राजनीति में रिटायरमेंट की उम्र का निर्धारण क्यों नही। आज तो यह बात सामान्य लग रही है, पर वह दिन दूर नहीं जब इस पर आवाज उठेगी, आन्दोलन होंगे और मजबूर होकर राजनीतिक दलों को नेताओं के रिटायरमेंट की उम्र का निर्धारण करना होगा। कम से कम चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों पर तो यह लागू ही होना चाहिए। तारीफ की जानी चाहिए वित्त मंत्री पी. चिदंबरम की, जिन्होंने खुद समय रहते इस बात को स्वीकार कर लिया कि उनकी उम्र 65 वर्ष से अधिक की हो गयी है, वह अब चुनाव लड़ पाने के लिए सक्षम नहीं है। दुर्भाग्य है कि राजनीतिक दलों की ओर से जो प्रतिक्रिया आयी वह स्वागतयोग्य नहीं रही। चुनाव मैदान में उतरे सभी उम्मीदवार नव मतदाताओं को रिझाने की कोशिश कर रहे हैं। नौजवानों को कभी रोजगार देने के नाम पर तो कभी लैपटाप और बेरोजगारी भत्ता देने के नाम पर लुभाया जा रहा है। सोचिए अगर युवा मतदाताओं ने यह निर्णय कर लिया कि अब वह उस कुर्सी पर खुद बैठेगा, जिस पर बैठे लोग उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन दे रहे हैं तो स्थिति क्या होगी। निश्चित रुप से आने वाले समय में ऐसा होने वाला है।

Thursday 27 March 2014

क्या चुनाव में इनकी भी होगी बात?


रमेश पाण्डेय
देश में दो ऐसे क्षेत्र हैं जिनका नाम विशेष कारणों से बदला गया। एक है मगध जो बौद्ध बिहारों की अधिकता के कारण बिहार बन गया और दूसरा है दक्षिण कौशल जो छत्तीस गढों को अपने में समाहित रखने के कारण छत्तीसगढ़ कहलाया। यह दोनों क्षेत्र अति प्राचीन काल से ही भारत को गौरवान्वित करते रहे। छत्तीसगढ़ वैदिक और पौराणिक काल में  भी विभिन्न संस्कृतियों के विकास का केन्द्र रहा। यहां के प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेष इस बात को इंगित करते हैं कि यहां पर वैष्णव, शैव, शाक्त और बौद्ध के साथ ही आर्य तथा अनार्य संस्कृतियों का भी प्रभाव रहा। पौराणिक सम्पदा से समृद्ध होने के साथ ही यह क्षेत्र खनिज सम्पदा से  भी समृद्ध रहा है।  घने वनाच्छादित और प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ राज्य में जनजातीय संस्कृति का पोषण, संवर्धन और उनके विकास कार्यक्रमों के संचालन की अपार संभावनाएं है। 16वीं लोकसभा के गठन के लिए चुनावी जंग छिड़ी हुई है। दुख है कि इस जंग में यहां की समृद्धि का केन्द्र जनजातीय संस्कृति का विकास कोई मुद्दा नहीं है। आदिवासियों को चिकित्सा, शिक्षा और रोजगार की सुविधा मुहैय्या कराया जाना किसी भी दल के प्रमुख एजेंडे में  नही है। यहां भी उम्मीदवार राजनैतिक दलों के अगुवा की तरह कीचड़ उछाल संस्कृति को आधार बनाकर चुनाव मैदान में हैं। छत्तीसगढ़ की भौगोलिक और सामाजिक स्थित पर नजर डाले तो स्पष्ट होता है कि यहां की एक तिहाई जनसंख्या अनुसूचित जनजातियों की है। यहां प्रदेश की कुल जनसंख्या का 31.76 प्रतिशत अनुसूचित जनजातियों का है। मध्यप्रदेश ,महाराष्ट्र, उड़ीसा, गुजरात और झारखंड के बाद छत्तीसगढ़ का स्थान जनजातियों की जनसंख्या के आधार पर छठे नम्बर पर आता है। कुल जनसंख्या प्रतिशत के आधार पर छत्तीसगढ़ का मिजोरम, नागालैंड, मेघालय औरअरूणचल प्रदेश के बाद देश में पांचवा स्थान है। नवगठित छत्तीसगढ़ राज्य की कुल जनसंख्या वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार 2,08,33,803 थी, जिसमें अजजा की जनसंख्या 66,16,596 है जो कि राज्य की जनसंख्या का 31.76 प्रतिशत है तथा देश की अजजा की जनसंख्या का 8.44 प्रतिशत है। छत्तीसगढ़ राज्य में जनजातीय समूह में अगरिया, बैगा, मैना, भूमिया, भूईहर, पालिहा, पांडो, भतरा, भंुजिया, बिआर, बियार, बिझवार, बिरहुल, बिरहोर, धनवार, गदाबा, गदबा, गोंड, अगरिया, असूर, बड़ी, मारिया, बड़ामारिया, भटोला, बिसोनहान मारिया, छोटा मारिया, दंडामी मारिया, घुरू, दोरला, हिलमारिया, कंडरा, कलंगा, खटोला, कोईतार, कोया, खिरवार हिरवारा, कुचामारिया, कुचाकी मारिया, माडि़या, मुरिया, नगारची, नागवंशी, ओझाा, राज, सोन्झारी, झोका, भाटिया, भोटिया, बड़े माडि़या बडडे माडि़या, हल्बा, कमार, कंवर, कवर, कौर, चेरवा, राठिया, तंवर, छत्री, खैरवार, कोंदर, खरिया, कांेध, खांड, कांध, कोल, कोरवा, कोड़ाकू, मांझी, मझवार, मुण्डा, नगेसिया, नगासिया, उरांव, धनका, धनगड़, पाव, परधान, पथारी, सरोती, पारधी, बहेलिया, चितापाधी, लंगोली पारधी, फासपारधी, तिकारी, ताकनकर, टाकिया, परजा, सोंटा और संवरा जनजातियां निवास करती हैं । इन जातियों में से पांच जनजातियों क्रमश: कमार, अबूझमाडि़या, पहाड़ी कोरवा, बिरहारे और बैगा को विशेष पिछड़ी जनजाति के रूप में भरत सरकार द्वारा मान किया गया है। कीर, मीणा, पनिका तथा पारधी क्षेत्रीय बंधन मुक्त जनजाति है। छत्तीसगढ़ राज्य के सभी सोलह जिलों में जनजातियों का निवास है। इसमें क्रमश दंतेवाड़ा (77.58 प्रतिशत), बस्तर (66.59), कांकेर (57.71), जशपुर (66.59), तथा सरगुजा (55.4 प्रतिशत), में आधे से अधिक तथा कम संख्या की दृष्टि में दुर्ग (12.43 प्रतिशत ), जांजगीर-चांपा (13.25), रायपुर (14.84), बिलासपुर (19.55), जिला है। कोरिया में 47.28 , कोरबा में 42.43, रायगढ़ में 36.85, राजनांदगांव में 26.54, धमतरी में 26.44 और कवर्धा में 21.04 प्रतिशत जनजाति रहतीं है। आज भी आदिवासी इलाकों के रहवासी झरिया से पानी लेकर पीने को मजबूर हैं। इनका शारीरिक शोषण होना आम बात है। सामान्य प्रसव के लिए भी इन इलाकों में पर्याप्ह सुविधा नहीं है। आज भी आदिवासियों के ज्यादातर परिवारों की आजीविका जंगल पर आश्रित है। देश प्रगति कर रहा है। इस प्रगति में इन आदिवासियों के एक-एक वोट का भी महत्व है। पर लोकसभा के चुनाव में यह मुद्दे गौड़ नजर आ रहे हैं।






कांग्रेस के घोषणापत्र में 'चालबाजी'


रमेश पाण्डेय
दो शब्द हैं, चालाकी और चालबाजी। इन दोनों शब्द के निहितार्थ तो एक जैसे हैं पर मायने अलहदा है। चालाकी वह है जो प्रभावित व्यक्ति को सहज मालूम हो जाया करती है, पर चालबाजी वह है जिसका एहसास प्रभावित व्यक्ति लंबी अवधि बीत जाने के बाद कर पाता है। 16वंी लोकसभा के चुनाव में कुछ ऐसा ही कांग्रेस पार्टी देश की जनता के साथ कर रही है। कांग्रेस के घोषणापत्र को देखकर ऐसा लगने लगा है। पिछले दस सालों में तेजी से दो समस्याएं उभरकर सामने आयी हैं। एक वह है जिससे हर नागरिक परेशान है और दूसरी वह है जिससे हर नागरिक जूझ रहा है। इन दोनों समस्याओं के लिए सीधे तौर पर देश की सत्ता पर बैठी यूपीए-1 और यूपीए-2 की सरकार जिम्मेदार है। जिन समस्याओं का जिक्र ऊपर किया गया है। वह हैं मंहगाई और भ्रष्टाचार। मंहगाई से हर नागरिक परेशान है और भ्रष्टाचार से हर कोई जूझ रहा है। पिछले दस साल के कांग्रेस की अगुवाई में बनी केन्द्र की सरकार की उपलब्धियों पर नजर डाले तो पेट्रोलियम पदार्थों में बेतहाशा वृद्धि, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में बेतहासा मंहगाई, रसोई गैस की कीमत में तेजी से उछाल, व्यापारिक क्षेत्र में एफडीआई को आमंत्रण, उर्वरक पर सब्सिडी में कटौती, घोटालों की बरसात जैसी उपलब्धियां इस सरकार के खाते में हैं। इन दस सालों में देश ने न तो शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की, न चिकित्सा के क्षेत्र में, न रोजगार के क्षेत्र में। सवाल उठता है कि तो आखिर पिछले दस वर्षों में इस सरकार ने किया क्या। चुनाव के समय में पार्टियों का घोषणा पत्र उस दल की नीति और सिद्धांतों का आईना होता है। कांग्रेस का जो घोषणापत्र आया है उसमें न तो दल की नीतियां है और न ही सिद्धांत। अगर कुछ है तो बस एक ही तथ्य नजर आता है कि घोषणापत्र के जरिए सत्ता पर पहुंचने की प्यास। कांग्रेस का घोषणापत्र अब तक के इतिहास में तो कभी ऐसा नहीं रहा। पिछले दस साल से सत्ता पर काबिज कांग्रेस की हालत 2014 के लोकसभा चुनाव में काफी खराब है। हार की आशंका को देखते हुए पार्टी के कई नेता चुनाव लड़ने तक तैयार नहीं हैं। ऐसे में कांग्रेस पार्टी ने घोषणा पत्र के जरिए आखरी पाशा फेंका है। कांग्रेस ने घोषणा पत्र के माध्यम से निम्न और मध्यम वर्ग के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश की है। अब देखना यह है कि कांग्रेस की घोषणाओं से लोग कितने आकर्षित होते हैं और पार्टी को सबसे बुरी संभावित हार से बचा पाते या नहीं?
घोषणापत्र में कहा गया है कि कांग्रेस सत्ता में आयी तो कम आय वाले लोगों के लिए आर्थिक सुरक्षा का प्रावधान होगा, राइट टू हेल्थ, राइट टू होम, राइट टू सोशल सेक्यूरिटी होगी, वृद्ध और विकलांगों के लिए फिक्स पेंशन योजना का प्रावधान होगा, उच्च विकास दर को वापस लाएंगे, अगले तीन साल में आठ फीसद विकास दर करेंगे, भ्रष्टाचार निरोधी विधेयक सबसे बड़ी प्राथमिकता होगी, एससी, एसटी और ओबीसी के लिए रोजगार बढ़ाएंगे, जरूरतमंदों को ही सब्सिडी देंगे, 10 लाख आबादी वाले शहरों में हाईस्पीड ट्रेन चलाएंगे, भूमिहीनों को घर दिया जाएगा, ब्लैकमनी को रोकने के लिए विशेष अधिकारी की नियुक्ति करेंगे, अगले पांच साल में सभी भारतीयों को बैंक एकाउंट की सुविधा प्रदान करेंगे, मैनुफैक्चरिंग क्षेत्र में दस फीसद विकास करेंगे। यह सारे वायदे कांग्रेस ने करके ऐसा साबित करने की कोशिश की कि वह देश के नागरिकों की सबसे बड़ी हितैषी है। इस घोषणापत्र में इस बात का उल्लेख नहीं किया गया है कि देश में तेजी से बंद हो रहे उद्योगों को पुनर्जीवित करेंगे या नहीं। परंपरागत उद्योगों की दशा को सुधारेंगे या नहीं, कृषि पर आधारित आबादी को सुविधाएं देेंगे या नहीं। तेजी से बढ़ रही बेरोजगारों की फौज के लिए रोजगार उपलब्ध कराएंगे या नहीं। देश की सीमा पर बने असुरक्षित माहौल पर कैसे नियंत्रण कायम करेंगे आदि-आदि। कांग्रेस ने इस घोषणापत्र में ऐसी चालबाजी की है कि जिसका ऐहसास लोगों को लंबी अवधि के बाद हो सकेगा। घोषणापत्र में की गई इस चालबाजी को देश के नागरिकों खासकर युवा मतदाताओं को समझना होगा। देश में पहली बार वोट डालने जा रहे तकरीबन ढाई करोड 18 से 19 वर्ष की उम्र वाले मतदाताओं को यह बात समझनी होगी कि कांग्रेस की नीतियों और सिद्धांतों में उसके लिए क्या है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो एक बार फिर देश का मतदाता राजनीतिक छल का शिकार होगा।

Monday 24 March 2014

भाजपा के शोकगीत पर संघ का भागवत पाठ


रमेश पाण्डेय
16वीं लोकसभा के लिए हो रहा चुनाव कई मायनों में अनोखा है। इस चुनाव की स्मृतियां  लंबे समय तक याद की जाएंगी। इसके पीछे तीन कारण है। पहला कारण यह कि 10 वर्ष से देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का इस चुनाव में कोई अहम रोल नहीं है। दूसरा यह कि तमाम अन्तरविरोधों के बावजूद नरेन्द्र मोदी का झंडा कोई नहीं झुका सका। तीसरा यह कि भाजपा के शोकगीत पर संघ का भागवत पाठ नसीहत देता रहा। टिकट बंटवारे को लेकर भाजपा में छिड़ा अन्तर्द्वन्द कम होने का नाम नहीं ले रहा है। जब लालकृष्ण आडवाणी, जसवंत सिंह सरीखे नेता अपना धैर्य खो बैठे तो छोटे नेताओं के बारे में कहना ही क्या है। आडवाणी को जो मलाल है, वह तो समझ में आ रहा है कि उनकी आंखों के आगे मोदी को कद इतना बढ़ गया कि वह भाजपा के आइकन बन गए। यह कहीं न कहीं अंदर से आडवाणी को चौन से जीने नहीं दे रहा है। दूसरे जो लोग नाराज होने का नाटक कर रहे हैं, उसके पीछे मूल कारण यह है कि वे इस (मोदी) लहर में पार लगना चाह रहे थे, सो उनकी मंशा पूरी नहीं हो पा रही है। हम बात अगर मुरली मनोहर जोशी की करें तो साफ है कि जो खुद अपनी सीट नहीं बचा सकता, वह भाजपा के लिए अन्य सीटों को कैसे प्रभावित कर सकेगा। ठीक यही दशा बिहार के लालमनि चौबे की है। इन सब के बीच 24 मार्च को संघ प्रमुख भागवत ने आडवाणी को जो पाठ सुनाया, उससे आडवाणी ही नहीं बल्कि नाराजगी का नाटक कर रहे कई और नेताओं को संकेत में संदेश देने की कोशिश हुई है। भाजपा में कुछ वरिष्ठ नेताओं को किनारे किए जाने से उपजे विवाद के बीच राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि यात्रा को सफल बनाने के लिए समय के अनुरुप बदलाव जरुरी है। भागवत ने यह बात उस समय कही, जब वहां लालकृष्ण आडवाणी की मौजूदगी रही। आरएसएस के मुख्यपत्र ऑर्गेनाइजर और पांचजन्य द्वारा आयोजित कार्यक्रम में भागवत ने कहा, ऐसा कहा जाता है कि बदलाव जरुरी है। समय के अनुसार जो भी बदलाव जरुरी होते हैं, उन्हें करना चाहिए ताकि यात्रा सफल और स्थिर हो। ऐसे समय में जब भाजपा आडवाणी और जसवंत सिंह जैसे वरिष्ठ नेताओं को एक किनारे करने के साथ एक तरह के बदलाव का सामना कर रही है, भागवत की टिप्पणियां महत्व रखती हैं। आडवाणी पिछले हफ्ते खुद को भोपाल से उम्मीदवार न बनाए जाने से नाराज हो गए थे। उन्हें उनकी इच्छा के विपरीत भोपाल की जगह गांधीनगर से खड़ा किया गया है। जसवंत सिंह राजस्थान के बाडमेर से चुनाव लड़ना चाहते थे लेकिन उन्हें वहां से उम्मीदवार नहीं बनाया गया जिसके बाद सिंह ने भाजपा छोड़ दी और निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनावी मैदान मंें उतर गए। भागवत ने इन सब से बेफिक्र होकर कहा कि समय के अनुसार बदलाव होना चाहिए लेकिन श्ढांचाश् पहले जैसा ही होना चाहिए। भागवत ने इससे एक कदम और आगे बढ़ते हुए यह भी कहा कि यही स्थापित विचार है कि बदलाव जरुरी है। निरंतर बदलती दुनिया का मूल सत्य शाश्वत है और जो बदलता नहीं। बदलाव अच्छे के लिए होना चाहिए। एक तरह से भागवत ने यह संकेत देकर साफ कर दिया कि मोदी के नेतृत्व में जो कदम उठाया जा रहा है, वह कहीं से गलत नहीं है। एक तरह से संघ प्रमुख भागवत की यह टिप्पणी भाजपा के कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाने का काम करेगी। इस समय जब चुनावी जंग छिड़ी हुई है और सेना के सारे सैनिक मोरचे पर डटे हैं, ऐसे में सेनापति को हतोत्साहित करने के बजाय उसे उत्साहित करने की जरुरत है। जो हो रहा है वह अच्छा है या बुरा है। इसका मूल्यांकन तो परिणाम आने के बाद ही किया जाएगा।

Sunday 23 March 2014

शिक्षा की बदहाली चुनावी मुद्दा नहीं?


रमेश पाण्डेय
शिक्षा देश और समाज की उन्नति का आईना हुआ करती है। भारत की आजादी के 65 वर्ष बाद यहां की आबादी साढ़े तीन गुना बढ़कर 1.20 अरब हो गई है। बच्चों को पढ़ाने वाले शिक्षकों के करीब छह लाख पद रिक्त हैं। सर्व शिक्षा अभियान पर हर साल 27 हजार करोड़ रुपए खर्च किए जाने के बावजूद 80 लाख बच्चे स्कूलों के दायरे से बाहर हैं, लेकिन राजनीतिक दलों के समक्ष यह महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा नहीं है। अफसोस है कि कोई भी राजनीतिक दल शिक्षा को इस चुनाव में चर्चा का विषय नहीं बना रहा है। प्राथमिक शिक्षा हो या उच्च शिक्षा, हमारे देश में शिक्षा में कई तरह की कमियां और खामियां है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा महत्वपूर्ण चुनौती है। वंचित और समाज के सबसे निचले पायदान के बच्चों की शिक्षा दूर की कौड़ी बनी हुई है। चुनाव में यह महत्वपूर्ण मुद्दा होना चाहिए, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल इस विषय को उठा ही नहीं रहा है। विधायक और सांसद अपने क्षेत्र विकास कोष से प्राथमिक शिक्षा के विकास और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर क्या खर्च कर रहे हैं, यह बात कोई नहीं बता रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोई भी दल जनता और बच्चों के भविष्य से जुड़े इन विषयों पर चर्चा नहीं कर रहा है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आंकडों के मुताबिक, देश में अभी भी शिक्षकों के 6 लाख रिक्त पदों में करीब आधे बिहार एवं उत्तरप्रदेश में है। पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, झारखंड, महाराष्ट्र समेत कई अन्य राज्यों में स्कूलों को शिक्षकों की भारी कमी का सामना करना पड़ रहा है। देश में 34 प्रतिशत स्कूल ऐसे हैं जहां लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है। सुदूर क्षेत्रों में काफी जगहों पर स्कूल एक कमरे में चल रहे हैं और कई स्थानों पर तो पेड़ों के नीचे ही बच्चों को पढ़ाया जाता है।       उच्च शिक्षा में सुधार से जुड़े कई विधेयक काफी समय से लंबित है और संसद में यह पारित नहीं हो पा रहे हैं। आईआईटी, आईआईएम, केंद्रीय विश्वविद्यालयों समेत उच्च शिक्षा के स्तर पर भी शिक्षकों के करीब 30 प्रतिशत पद रिक्त हैं। साथ ही शोध की स्थिति काफी खराब है। उच्च शिक्षा में सुधार पर सुझाव देने के लिए गठित समिति ने जून 2009 में 94 पन्नों की उच्च शिक्षा पुनर्गठन एवं पुनरुद्धार रिपोर्ट पेश कर दी थी। लेकिन कई वर्ष बीत जाने के बाद भी अभी तक स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है। इस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देश के समक्ष बड़ी चुनौती बनी हुई है। कोई इस बारे में नहीं बोल रहा।     हाल ही में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को देश के समक्ष बड़ी चुनौती करार दिया था। आजादी के छह दशक से अधिक समय गुजरने के बावजूद देश में स्कूली शिक्षा की स्थिति चुनौतीपूर्ण बनी हुई है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आंकडों के अनुसार, देश भर में केवल प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर शिक्षकों के तीन लाख पद रिक्त हैं। कौशल विकास एक ऐसा मुद्दा है जिसमें भारत काफी पीछे है। युवाओं के बड़े वर्ग में बढ़ती हुई बेरोजगारी को दूर करने के लिए कौशल विकास पाठ्यक्रमों की वकालत की जा रही है। शिक्षकों का काफी समय तो पोलियो खुराक पिलाने, मतदाता सूची तैयार करने, जनगणना और चुनाव कार्य सम्पन्न कराने समेत विभिन्न सरकारी कार्यक्रमों पर अमल करने में लग जाता है और वे पठन पाठन के कार्य में कम समय दे पाते हैं। आंकड़ों के मुताबिक, देश के 12 राज्यों में 25 प्रतिशत से अधिक बच्चे मध्याह्न भोजन योजना के दायरे से बाहर हैं। इस योजना को स्कूलों में छात्रों के दाखिले और नियमित उपस्थिति को प्रोत्साहित करने की अहम कड़ी माना जाता है। देश की आधी मुस्लिम आबादी की साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से काफी कम है और उच्च शिक्षा में अल्पसंख्यक वर्ग के बच्चों की सकल नामांकन दर गैर-मुस्लिम बच्चों की तुलना में आधी है। शिक्षा की बदहाली देश की अहम समस्या है। आसन्न आम चुनाव में यह राजनीतिक दलों के लिए महत्वपूर्ण मुद्दा होना चाहिए।  

Thursday 20 March 2014

चुनावी शोर में गायब असल मुद्दे

रमेश पाण्डेय
आम चुनाव का माहौल देश की समस्याओं और जनता को मथ रहे मुद्दों का दर्पण होता है, लेकिन क्या मौजूदा माहौल को देखकर कहा जा सकता है कि देश के असल मुद्दों पर यह चुनाव होने जा रहा है। मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी सिर्फ आडवाणी, मोदी और मुलायम की उम्मीदवारी और आम आदमी पार्टी के शोर से ही भरा पड़ा है। देश के असल मुद्दे कहीं छुप गए हैं। पखवरे भर पहले हुई ओलावृष्टि ने मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के किसानों पर कहर बरपाया। दोनों राज्यों में रबी की तैयार फसल बर्बाद हो गई। इसके बावजूद चुनावी माहौल में किसान कहीं मुद्दा ही नहीं है। उसकी बर्बाद हुई खेती और जीविका सवाल नहीं है। सिर्फ दो हफ्तों में महाराष्ट्र में 25 से ज्यादा हताश किसानों ने आत्महत्या कर ली है। विदर्भ, आंध्रप्रदेश और पंजाब में पिछली सदी के आखिरी दशक में हुई किसानों की आत्महत्याओं को तब जमकर तूल दिया गया था। इसका असर यह हुआ कि तीनों ही राज्यों में सरकारें बदल गई थीं। 2011 की जनगणना के मुताबिक तमाम उदारीकरण और औद्योगीकरण के बावजूद करीब 67 फीसदी जनसंख्या की जीविका अब भी खेती-किसानी पर ही टिकी हुई है। जाहिर है कि इसी अनुपात में देश का करीब सत्तर फीसदी वोटर भी खेती-किसानी से सीधे जुड़ा हुआ है। इसके बावजूद अगर किसानों के मुद्दे चुनावी विमर्श से गायब हों, राजनीतिक दलों के एजेंडे में उनकी पूछ ना हो और उससे भी बड़ी बात यह कि इन मुद्दों को लेकर मीडिया भी संजीदा ना हो तो इनकी भूमिका पर सवाल उठना लाजिमी है। चुनावी माहौल और मीडिया से किसानों के मुद्दों का गायब होना शस्य श्यामला भारतीय धरती और संस्कृति के लिए बड़ा सवाल है। चुनावी माहौल ही क्यों उदारीकरण ने किसानों के मुद्दों को दरकिनार कर दिया है। जिनके जरिए इस देश के 125 करोड़ लोगों का पेट भरता हो, वे लोग और उनकी समस्याएं भारतीय राजनीति में इन दिनों हाशिए पर हैं। समाजवादी राजनीति के वर्चस्व के दौर में किसानों-मजदूरों और पिछड़ों की आवाज उठाए बिना सत्ताधारी कांग्रेस का भी काम नहीं चलता था। वामपंथी दलों का तो निशान ही खेती-किसानी से जुड़ा हुआ है। लेकिन भारतीय राजनीति में उनकी आवाज लगातार कमजोर हुई है। हालांकि किसानों की समस्याओं को वे अब भी संजीदगी से उठाते रहते हैं। लेकिन उदारवाद के दौर में उभरी राजनीति और मीडिया ने इन आवाजों से लगातार अपने को दूर कर लिया है। ऐसा करते वक्त वे भूल जाते हैं कि विकास का चाहे जितना भी चमकदार चेहरा हो, लेकिन जब तक पेट भरा नहीं होगा विकास इंसान के चेहरे पर चमक नहीं ला सकता। देश का बेहतरीन गेहूं, आटा और सूजी उत्पादन करने वाला मध्यप्रदेश का किसान बदहाल रहेगा तो उदारीकरण के दौर के रसूखदार इंसान के लिए स्वादिष्ट रोटियां कहां से आएंगी, लजीज उपमा के लिए सूजी कहां से आएगी, लेकिन दुर्भाग्यवश इसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है। इस तरफ ध्यान न देने वाले भूल जाते हैं कि अगर किसानों ने कमर कस ली तो ना तो उदारीकरण का चमकदार चेहरा बच पाएगा और न उदारीकरण के पैरोकार। एक जमाना था जब चुनाव में हल जोतता हुआ किसान, दो बैलों की जोड़ी, गाय बछड़ा, हलधर जैसे चुनाव चिन्ह हुआ करते थे। चौधरी चरण सिंह यह कहा करते थे कि देश की सत्ता का रास्ता गांव की गलियों और खेत की पगडंडियों से होकर गुजरता था। आम चुनाव में कृषि और किसान से जुड़े मुद्दों का शोर रहा करता था। 16वीं लोकसभा के गठन के लिए होने जा रहे चुनाव में यह सारे मुद्दे गायब हैं। यह न केवल समाज के लिए दुखद है बल्कि देश के लिए भी नुकसानदायक साबित होगा। इस बार का आम चुनाव एक दूसरे पर दोषारोपण और कीचड़ उठालने जैसे मुद्दे पर जाकर टिक गया है। निर्णय जनता को लेना है कि वह क्या पसंद कर रही है।

Wednesday 5 March 2014

फैसला अंतिम आदमी के हाथ में

लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ एक बार फिर से भारतीय लोकतंत्र की यात्रा में वह पड़ाव आ गया है, जब करीब सवा अरब आबादी वाले देश में अस्सी करोड़ से ज्यादा मतदाता ‘भारत-भाग्य विधाताओं’ के बारे में फैसला करेंगे. बीसवीं सदी के शुरुआती साठ वर्षो तक भारतीय लोकतंत्र अपनी सफलता से दुनिया को चौंकाता रहा. दुनिया के बड़े विचारक और नेता तब यह मानने को तैयार नहीं थे कि अनपढ़ और गरीबों से भरे किसी देश में लोकतांत्रिक राज-व्यवस्था संभव भी हो सकती है. लेकिन भारत की संविधान-सभा में बैठे देश के कर्णधारों को अपने नागरिकों के विवेक पर भरपूर भरोसा था. उस वक्त संविधान-सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि हमारे अधिकतर मतदाता अनपढ़ और गरीब भले हों, लेकिन अपने विवेक से वे समाज के हक में अच्छे-बुरे का भेद समझते हैं. इन्होंने अपने ऊपर जताये गये इस भरोसे को सच करते हुए आजादी के बाद लोकतंत्र को सफल करते हुए पूरी दुनिया के विचारकों और नेताओं को चौंकाया. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में आज फिर से मतदाताओं के सामने परीक्षा की घड़ी है. अब उन्हें साबित करना होगा कि उनका विवेक आत्महित और देशहित के बीच के नाजुक संबंध को पहचानता है. अगर विवेक ने दगा किया, तो आनेवाले पांच वर्षो तक यह मलाल कायम रहेगा कि जिसे चुन कर संसद में भेजा था, वह मिट्टी का माधो निकला. दरअसल, यदि राजनीति लोगों की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरती, तो प्रश्न-चिह्न् उनके विवेक पर भी लगता है, क्योंकि अंतिम निर्णय उनके वोटों से ही निकला है. उनके लिए यह घड़ी लुभावने वादों, चमकदार चेहरों, नित नये बनते मुहावरों की सच्चाइयों को परख कर अपने क्षेत्र, प्रदेश और देश के हित में तालमेल बैठाते हुए सोलहवीं लोकसभा के गठन के लिए फैसला सुनाने का है. मतदाताओं को साबित करना होगा कि पंच-परमेश्वर के रूप में वह जाति, धर्म और क्षेत्र के दायरे से ऊपर उठ कर देशहित में फैसला सुनाता है. अत: सोलहवीं लोकसभा के गठन के लिए मतदान के लिए जायें, तो सबसे पहले यह सोचें कि आपके वोट से इस पूरे देश के भाग्य का फैसला होना है और उसके भाग्य का भी, जिसे हमारे राष्ट्रपिता ने कतार में खड़ा ‘अंतिम आदमी’ कहा है!