Wednesday 27 November 2013

बदलाव की आहट

लोकतंत्र को जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन कहा गया है. लोकतंत्र की मूल भावना बची रहे, इसके लिए जरूरी है कि जनता चुनाव में पूरे उत्साह से भाग ले. जनता, ‘जनार्दन’ इसलिए है, क्योंकि उसके पास वोट की शक्ति है. पिछले कुछ वर्षो में विभिन्न राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के मतदान प्रतिशत पर गौर करें, तो एहसास होता है कि जनता का वोट की अपनी ताकत में यकीन बढ़ा है.
वह ‘कोऊ नृप होये हमें का हानी’ की पुरानी उदासीनता से बाहर आ रही है. उसका यकीन इस बात में बढ़ा है कि वह वोट के सहारे अपनी किस्मत बदल सकती है. इस विश्वास की तसदीक खुद आंकड़े कर रहे हैं. पिछले दो-तीन वर्षो में विभिन्न राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में लगभग हर जगह मतदान का नया रिकॉर्ड बना है. पंजाब में 77 फीसदी, उत्तराखंड में 70 फीसदी, हिमाचल में 75 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 59 फीसदी. यह सिलसिला थमता हुआ नहीं दिखता है. छत्तीसगढ़ के बाद मध्य प्रदेश और मिजोरम से भारी मतदान की खबरें आयी हैं. छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में नक्सलियों द्वारा चुनाव के बहिष्कार के एलान के बावजूद मतदान केंद्रों के बाहर जनता की लंबी कतारें देखी गयीं. इसने इस विश्वास को पुख्ता किया कि जनता बुलेट की जगह बैलेट के रास्ते पर चलना चाहती है. राज्य में इस बार रिकॉर्डतोड़ करीब 75 फीसदी मतदान दर्ज किया गया. अब मध्य प्रदेश में 71 प्रतिशत और मिजोरम में 81 फीसदी मतदान का नया रिकॉर्ड कायम हुआ है. एक स्तर पर इसे चुनाव आयोग की सफलता कहा जा सकता है, जिसने जागरूकता अभियान चला कर और उससे भी बढ़ कर निष्पक्ष एवं कमोबेश शांतिपूर्ण मतदान सुनिश्चित करके जनता में लोकतंत्र के महाकुंभ के प्रति आस्था फिर से जगायी है. मगर, बधाई की असल हकदार जनता है, जिसने मतदान द्वारा लोकतंत्र की जड़ता को भंग करने का उत्साह दिखाया है. राजनीतिक दलों के लिए मतदान केंद्रों की ओर बढ़े जनता के कदम के निहितार्थो को समझने की जरूरत है. लोकतंत्र के आलोचक यह कहते रहे हैं कि ‘जनता को अपनी जैसी ही सरकार मिलती है’. जाहिर है, जब जनता बदल रही हो, तो सरकारों और पार्टियों को भी खुद में बदलाव लाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा.

Tuesday 26 November 2013

ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे राजीव गांधी

राजीव गांधी 1990-91 में खुद प्रधानमंत्री न बनकर ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे। उस समय राजनीतिक अस्थिरता के दौरान उन्होंने दो बार बसु को मनाने की कोशिश की थी। यह दावा बंगाल के डीजीपी और सीबीआई के डायरेक्टर रहे अरूण प्रसाद मुखर्जी ने अपनी जीवनी में किया है। हाल ही में प्रकाशित किताब "अननोन फेसेट्स ऑफ राजीव गांधी, ज्योति बसु, इंद्रजीत गुप्ता" मुखर्जी की डायरी पर आधारित है।गौरतलब है कि 1956 में आईपीएस ज्वाइन करने के साथ ही मुखर्जी ने डायरी लिखना शुरू किया था। इसमें दार्जिलिंग एसपी, बंगाल डीजीपी, राज्य सतर्कता आयुक्त, सीबीआई चीफ, गृह मंत्रालय में विशेष सचिव और आखिर में गृह मंत्री (इंद्रजीत गुप्त) के सलाहकार के तौर पर काम करने के दौरान राजीव गांधी, ज्योति बसु और इंद्रजीत गुप्त के साथ बातचीत के ब्यौरे मुखर्जी ने दर्ज किये हैं। अक्टूबर 1990 में मुखर्जी गृह मंत्रालय में विशेष सचिव के तौर पर कार्यरत थे।राजीव गांधी ने मुखर्जी से कहा कि वह ज्योति बसु के साथ उनकी बैठक तय करें। लेकिन वामपंथी नेता बसु ने कहा कि इस बारे में कोई भी निर्णय पार्टी की सेंट्रल कमेटी और पोलित ब्यूरो का होगा। इस मसले पर सीपीएम के वीटो के चलते राजीव गांधी की तीसरी पसंद चंद्रशेखर कांग्रेस की मदद से प्रधानमंत्री बने। 1991 में जब चंद्रशेखर को असफलता हाथ लगी, तो राजीव गांधी ने एक बार फिर ज्योति बसु से संपर्क किया, लेकिन बसु ने दोबारा यह निर्णय पार्टी के ऊपर डाल दिया। मुखर्जी ने लिखा है, राजीव का संदेश लेकर मैं पूर्व सांसद बिप्लव दास गुप्ता से उनके घर पर मिला। लेकिन मेरा अंदाजा सही साबित हुआ.. और बंगाल के हित में लेफ्ट फ्रंट को अपने पांव पसारने के लिए मिला दूसरा मौका अपनी मौत मरने को मजबूर हुआ। बंगाल के पूर्व डीजीपी के मुताबिक पांच साल बाद संसद में जारी गतिरोध के चलते क्षेत्रीय नेताओं (जिनमें मुलायम सिंह भी शामिल थे) ने बसु का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया, लेकिन सीपीएम सेंट्रल कमिटी ने फिर इसके खिलाफ मतदान किया। 1996 के आखिर में एक साक्षात्कार के दौरान बसु ने इसे "ऎतहासिक भूल" करार दिया। मुखर्जी ने इस बारे में लिखा है, ये सब जानते हैं कि ऎसी बडी गलतियां 1990-91 के दौरान दो बार हुईं जो कि सीपीएम की अदूरदर्शिता, छोटी सोच और बडी गलतियां करने की आदतों का परिणाम थी।

'पर्सन आफ दी ईयर' की सूची में मोदी

भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अब देश की सीमा लांघकर विदेशों में भी पहुंच गई है। दुनिया की जानी-मानी अमेरिकी पत्रिका टाइम ने पर्सन आफ दी ईयर उपाधि के लिए 42 नेताओं की सूची में मोदी का नाम शामिल किया है। एक ऑनलाइन पोल के आधार पर मोदी का नाम तय किया गया है। इस लिस्ट में मोदी ही एकमात्र भारतीय हैं। टाइम पत्रिका ने पूरी दुनिया से अपनी इस उपाधि के लिए 42 नेताओं, उद्यमियों और सेलेब्रिटी को चुना है और वह इसके विजेता की घोषणा अगले माह करेगी। मोदी का नाम इस लिस्ट के लिए पत्रिका ने शार्टलिस्ट किया है। इस उपाधि की दौड़ में टाइम पत्रिका द्वारा शामिल किए गए अन्य उम्मीदवारों में जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, पाकिस्तान की किशोरी शिक्षा कार्यकर्ता मलाला युसूफजई, अमेजन के सीईओ जैफ बिजोस और एनएसए व्हिस्ल ब्लोअर एडवर्ड स्नोडेन हैं। पत्रिका ने इस उपाधि के लिए मोदी के नाम को शार्टलिस्ट करने के साथ कहा है कि विवादास्पद हिंदू राष्ट्रवादी और भारतीय राज्य गुजरात के मुख्यमंत्री भारत की सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस को उखाड़ फेंकने के लिए संभावित उम्मीदवार हैं। खास बात ये भी है कि इस सूची में शामिल किए वालों में मोदी एकमात्र भारतीय हैं। लिस्ट में शामिल किए गए सभी लोगों के लिए पत्रि का ने वोटिंग लाइन खोल रखी है। जिसमें अबतक मोदी को 2650 मत मिले हैं। कुल वोटिंग का 25 फीसदी वोट हासिल कर मोदी ऑनलाइन रीडर पोल में आगे चल रहे हैं।

उम्मीद की किरण का स्वागत

ईरान के परमाणु कार्यक्र म को लेकर उसके और पश्चिमी देशों के बीच हुए समझौते से पूरे विश्व ने ही राहत की सांस ली होगी। ईरान के साथ हुए अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस, जर्मनी, चीन और यूरोपीय संघ का यह समझौता हालांकि फिलहाल छह महीने के लिए ही है, लेकिन इससे उस तनाव के स्थायी समाधान की उम्मीद अवश्य जगी है, जिसने पिछले लगभग एक दशक से शांति के पक्षधरों की धड़कनें बढ़ा रखी थीं। दरअसल इस समझौते की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि दोनों ही पक्षों को टकराव से हट कर  संवाद के जरिये इस समस्या का स्थायी समाधान खोजने के लिए छह माह का समय मिल जायेगा। इस अवधि के लिए ईरान जहां अपने यूरेनियम  संवर्धन कार्यक्रम को सीमित करने और अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के विशेषज्ञों के साथ सहयोग के लिए सहमत हो गया है, वहीं अमेरिका समेत ये ताकतवर देश उस पर लागू प्रतिबंधों में कुछ ढील देने पर मान गये हैं। जिनेवा में चार  दिनों से भी ज्यादा चली बातचीत के बाद रविवार को इस ऐतिहासिक समझौते पर पहुंचा जा सका। परमाणु कार्यक्रम को लेकर ईरान और अमेरिका के बीच वाक्युद्ध जिस तरह तनातनी में बदल रहा था, उससे शांतिप्रिय देशों का आशंकित होना स्वाभाविक ही था। इसीलिए कुछ देशों ने दबाव बनाया कि संवाद के जरिये समाधान खोजने की कोशिश की जानी चाहिए । कहना नहीं होगा कि वह कोशिश आखिर कारगर भी साबित हुई। इस समझौते के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा भी कि इस राजनय से विश्व को और अधिक सुरक्षित बनाने का मार्ग प्रशस्त करने में सफलता मिली है। साथ ही इससे ईरान के शांतिप्रिय परमाणु कार्यक्रम की पुष्टि भी बेहतर ढंग से हो पायेगी, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वह परमाणु हथियार न बना सके। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि ईरान के विदेश मंत्री मोहम्मद जावेद जरीफ ने सफाई दी है कि उनके देश ने यूरेनियम संवर्धन का अपना अधिकार छोड़ा नहीं है, लेकिन ईरान की यह प्रतिबद्धता कि वह अपनी यूरेनियम संवर्धन क्षमता पांच प्रतिशत तक ही सीमित रखेगा, जो ऊर्जा उत्पादन के लिए तो पर्याप्त है, लेकिन उससे परमाणु बम नहीं बनाया जा सकता—निश्चय ही उसके रुख में नरमी का संकेत है। इसके अलावा ईरान अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के विशेषजों को अपने परमाणु संयंत्रों की दैनिक निगरानी के अवसर उपलब्ध कराने पर भी सहमत हो गया है। जाहिर है, परमाणु कार्यक्रम को लेकर विश्व समुदाय की चिंता और बढ़ते दबाव को ईरान ने महसूस किया है। हालांकि इस आधार पर कोई अंतिम निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी, लेकिन दोनों ही पक्षों द्वारा अपनी-अपनी हठधर्मिता छोडऩे का संवाद के जरिये समस्या के शांतिपूर्ण समाधान का मार्ग प्रशस्त होने के रूप में तो स्वागत किया ही जाना चाहिए। दरअसल भारत शुरू से ऐसे ही प्रयासों की पैरवी करता रहा है। इन प्रयासों की शुरुआती सफलता जहां भविष्य के लिए उम्मीद की किरण जगाती है, वहीं इस्राइल की प्रतिक्रिया चिंताजनक है। इस्राइल ने इस समझौते को ईरान के जाल में फंसने जैसा बताया है। बेशक अंतिम परिणति तो अभी भविष्य के गर्भ में ही है, लेकिन एक शांतिपूर्ण सकारात्मक प्रयास से जगी उम्मीद की किरण का तो स्वागत ही किया जाना चाहिए।

इतिहास-भूगोल नहीं, आलू चाहिए

इन दिनों अपने देश में राजनेताओं के बीच इतिहास और भूगोल की जानकारी को लेकर जोरदार बहस छिड़ी हुई है. किस नेता को देश के इतिहास और भूगोल की कितनी जानकारी है, इस पर दावों, प्रतिदावों, खंडन और मंडन का दौर जारी है. बिहार से लेकर गुजरात और दिल्ली तक के नेताओं व उनके समर्थकों में इस बात की होड़ मची है कि  उनके नेता के पास देश के इतिहास-भूगोल की सबसे बेहतर जानकारी है. पता नहीं यह राजनीति है या कोई बौद्धिक बहस? वैसे मुङो यह बहस बौद्धिक कम और केबीसी मार्का क्विज ज्यादा लग रही है. इतिहास-भूगोल जैसे विषयों पर बहस करने के लिए देश में बुद्धिजीवियों की कोई कमी तो है नहीं. वे इस विषय में पारंगत भी हैं. जिनका यह काम है, उन्हें करने दीजिए. कहा भी गया है, जिसका काम उसी को साजे. राजनेताओं का काम है जनता को समस्याओं से निजात दिलाने का. जिसका दावा भी वे करते हैं. पर अब उन्हें जनता से कोई मतलब नहीं रह गया है. इसलिए तो अब कोई जन-नेता नहीं पैदा होता, अब जाति-नेता पैदा हो रहे हैं. अभी देशवासियों के लिए इतिहास-भूगोल की जानकारी से अधिक अहम है आलू-प्याज का भाव जानना. आलू और प्याज के बिना रहने की कल्पना आम लोग कर भी नहीं सकते. पेट भरने के लिए इससे सुलभ  और सर्वग्राह्य कुछ भी नहीं. सत्तू से लेकर खिचड़ी, और समोसा से लेकर खाने की हर थाली आलू-प्याज के बिना अधूरी मानी जाती है. प्याज तो पहले भी गाह-बगाहे रुलाती रही है, लेकिन आलू इस कदर पहली बार महंगा हुआ है. जनता आलू-प्याज को लेकर परेशान है और हमारे नेता लोग इतिहास-भूगोल के ज्ञान पर बेमतलब की बहस लेकर बैठे हैं. जब पेट भरा हो, तभी कोई बहस भी अच्छी लगती है. भ्रष्टाचार से लेकर कालाधन, और बढ़ती महंगाई से लेकर आतंकवाद तक कई समस्याएं अपने यहां मुंह बाये खड़ी हैं, लेकिन मीडिया में इतिहास को लेकर बहस जारी है. इन फालतू की बहसों से न तो देश का भला होना है और न ही निवाला मिलना है. मजे की बात तो यह है कि बात- बात पर अपने ब्लाग के जरिए नया तराना छेड़ने- वाले या फिर ट्वीट करनेवाले आलू-प्याज के मामले में चुप क्यों हैं? मुझे तो लगता है कि वे कभी आलू-प्याज खरीदें, तब न जनता की पीड़ा का एहसास हो. उनके लिए तो एक कॉल पर हर तरह की सेवा और सुविधा उपलब्ध हो जाती है, तो आलू-प्याज कहां से ध्यान में आयेगा? नेताओं के बीच इस तरह ज्ञान पर बहस पहली बार शुरू हुई है. असल में जनता की परेशानी पर बोलने का नैतिक आधार खो चुके इन नेताओं को सुर्खियों में बने रहने के लिए नया-नया तिकड़म आजमाना पड़ता है. नेताओं को एक सुझाव. अगर आलू-प्याज पर इतनी बहस कीजिए, तो शायद आमजन के बीच पैठ बन जाए.

Monday 25 November 2013

अखिलेश से परेशान मुलायम !



अखिलेश से परेशान मुलायम !

यूपी के दंगों ने सत्ताधारी दल समजवादी पार्टी की मुस्किले बढ़ा दी हैं| सपा के दो वर्त्तमान सांसदों ने ऐसी हालत में पार्टी के टिकट से चुनाव लड़ने से मना कर दिया है| सूत्रों के हवाले से मिल रही खबरों को यदि सही माने तो इसके बाद कई और सांसद इसी कतार में खड़े हैं| इन सांसदों को लगता है कि अखिलेश यादव कि छवि उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती है| इससे पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव की पेशानी पर बल आ गया है| सूत्र बताते हैं कि इसके मद्देनजर मुलायम ने अब कमान अपने हाथों में ले ली है| इसके बाद मुलायम स्वयं सक्रिय हो गए हैं और घटनाक्रम पर अपनी पैनी नज़र बनाये हुए हैं| सपा नेताओं के मुताबिक जल्द ही कुछ सीटों पर प्रत्याशी बदले जा सकते हैं| सपा के कुछ नेताओं ने हमें नाम न उजागर करने कि शर्त पर बताया कि अखिलेश मुस्लिम और ओबीसी के साथ सम्बन्ध खराब कर चुके हैं। हाल में ही हुए दंगों और अखिलेश के कुछ निर्णयों ने इन दोनों के बीच गलत सन्देश दिया है| सपा के रणनीतिकारों ने इस बात को धयान में रखते हुए ही मुलायम के भाषण में मुस्लिम और ओबीसी को विशेष स्थान दिया| इस का नतीजा ये हुआ कि मुलायम इस समय जो कुछ भी मंच से बोलते हैं उनमें ये दोनों प्रमुखता से होते हैं| मुलायम की परेशानी ये भी है कि बीजेपी पीएम प्रत्याशी नरेंद्र मोदी जिस तरह से यूपी में अपना जनाधार बढ़ा रहे हैं उससे मुलायम को लगने लगा है कि मोदी उनके लिए परेशानी का सबब बन सकते हैं| मुलायम के करीबी कहते हैं कि मोदी के खिलाफ अखिलेश अधिक कारगर नहीं साबित हो सकते ऐसे में नेता जी ही काम सम्भाले तभी भला होगा वरना चुनाव हाथ से निकला ही समझों| मुलायम ने सपा संगठन पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए बूथ स्तर पर अपने सूत्र सक्रीय कर दिए हैं जो उनको पल पल कि खबर दे रहे हैं| मुलायम को जो आउटपुट मिल रही है उसके मुताबिक जमीनी स्तर पर अखिलेश बहुत अच्छी छवि नहीं रखते हैं| अब ये देखना होगा कि लोकसभा चुनाव में सपा मुलायम की मेहनत पर पानी फेरती है या फिर उनको मनचाहे परिणाम मिलते हैं|

Sunday 24 November 2013

कर न सके हम प्याज का सौदा.....





कर सके हम प्याज का सौदा, कीमत ही कुछ ऐसी थी/ लाल टमाटर छोड़ आये हम, किस्मत ही कुछ ऐसी थी.. आजकल हर मैंगो मैन (आम आदमी) की व्यथा कुछ ऐसी ही है. कुछ दिन पहले तक दाल-चावल की महंगाई का रोना रोनेवाले लोग सब्जियों की कीमतों में भारी इजाफे के बाद अब उसी दाल की दुहाई दे रहे हैं, शुक्र है कि दाल है, वरना शनिवार से गुरुवार तक उपवास ही करना पड़ता. आज हर कोई भले ही महंगाई से परेशान हो, पर एक शख्स ऐसा है जिस पर कोई असर नहीं हो रहा. आप जानना चाहेंगे उसके बारे में? वह है ईमानदार आदमी. उसे कल भी वस्तुएं महंगी लगती थीं, आज भी लगती हैं. वह कहता है, जमीर बेच कर पनीर नहीं खरीद सकता. भले ही भूखा रहना पड़े. जब जमीर ही मर जायेगा तो शरीर जिंदा रह कर क्या करेगा? आखिर बापू का प्रिय भजन वैष्णवजन तो तेणो कहिए जो पीर परायी जाणो रे.. कब काम आयेगा. बापू तो रहे नहीं, लाचारी में अन्ना हजारे को अपना आदर्श माननेवाला यह ईमानदार आदमी कभी अनशन, तो कभी उपवास, तो कभी धरना-प्रदर्शन के बहाने भोजन से मुक्ति पाने का बहाना ढूंढ़ता है. कल की ही बात है, एक टीवी चैनलवाले ने उसके मुंह में माइक ठूंसते हुए पूछा, आपको भूख हड़ताल से इतना लगाव क्यूं है भला? बोला, आज भी जिस देश की एक चौथाई आबादी को भूखे पेट सोना पड़ता हो, उस देश में भूख हड़ताल से बेहतर विरोध का कोई साधन नहीं हो सकता. इस देश की सरकार सो रही है. हमारे ही वोटों से जीत कर जन प्रतिनिधि का तमगा पहने ज्यादातर सांसद और विधायक संसद और विधानसभा की कैंटीनों में भयंकर सब्सिडीवाला खाना खाते हैं. इसलिए उन्हें लगता है कि जब इतना सस्ता खाना मिल रहा है, तो भला आम जनता महंगाई का हल्ला क्यों मचा रही है?
भले ही प्राकृतिक विपदा से तबाह उत्तराखंड को सरकार राहत दिला सकी हो, पर बढती महंगाई और सब्जियों और दूध के दाम में हो रही बेतहाशा वृद्धि के मद्देनजर कैलेंडर और पोस्टर योजना शुरू करने की योजना बना रही है. लोग सब्जियों की शक्ल भूल जायें इसलिए इनके पोस्टर छपवा कर घर-घर पहुंचाये जायेंगे. दूध भी आम आदमी की पहुंच से बाहर हो रहा है. बड़ों के लिए तो नहीं, पर बच्चों को इसकी खास जरूरत होती है. ऐसे में सरकार पोलियो ड्राप्स की तरह दूध ड्राप्स पिलाने के लिए मिशन दूध शुरू करने की तैयारी में है. महीने में एक दिन तय किया जायेगा, जब लोग अपने बच्चों को नजदीकी केंद्रों पर ले जा कर दूध ड्राप्स पिलवायेंगे. इसका स्लोगन भी दो बूंद जिंदगी की रखा जायेगा. ये बात अलग है कि इससे बच्चों को जिंदगी मिले मिले, सरकार को जरूर मिलेगी.

Monday 18 November 2013

छत्तीसगढ़ में ’कमल‘ को मुरझा पाना ‘पंजे’ के बस से बाहर
 



देश में धान का कटोरा नाम से प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ की जनता बुधवार को पांच साल के लिए अपना भाग्यविधाता चुनेगी। सभी प्रमुख राजनैतिक दल के नेताओं ने जनता को लुभाने के लिए अपनी-अपनी बात कह दी है। नेताओं ने एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाने के साथ ही तीखे व्यंग बाण छोड़ने के साथ ही तंज भी कसे। पर जनता है कि कुछ बोलती ही नहीं। उसके मन में कौन बसा है, किसे अपना आशीर्वाद देने का मन बनाया है, यह सब पर्दे पर नहीं आ सका है। ऐसे में नेता पशोपेश में हैं। चुनाव की घोषणा हुई तो मुख्य रूप से कांग्रेस पार्टी ने छत्तीसगढ़ की सत्तारूढ़ रमन सरकार पर हमले तेज कर दिया, कांग्रेस को लगा कि जनता रमन सिंह की सरकार के कामकाज से नाराज है, लिहाजा लोग कांग्रेस को हाथोंहाथ ले लेंगे, पर ऐसा नजर नहीं आया। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस खुद ही गुटबाजी का शिकार है। ऐसे में राहुल गांधी का भी कोई करिश्मा काम नहीं आया। रमन के पक्ष में निश्चित रूप से भाजपा के घोषित पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने छत्तीसगढ़ में पहुंचकर माहौल बनाया। वैसे रमन सिंह की सरकार का कामकाज भी ऐसा रहा कि जनता बहुतायत में उससे संतुष्ट नजर आ रही है। रमन सिंह की सरकार का एक कार्य जिसने सबसे अधिक गरीब और मजदूर वर्ग के लोगों को प्रभावित कर रखा है, वह है रमन सरकार द्वारा जगह-जगह दाल-भात केन्द्र का खुलवाना। इन केन्द्रों पर गरीब और मजदूर वर्ग आसानी से इस मंहगाई के दौर में भी भरपेट भोजन कर ले रहा है। इसके साथ ही नक्सली घटनाओं को छोड़ दे तो अपराध की घटनाओं में काफ कमी आयी है। आम आदमी के अधिकार सुरक्षित हुए हैं। बेबाकी से आम आदमी अपनी बात अधिकारियों और नेताओं तक पहुंचा दे रहा है। यह सब रमन सरकार की लोकप्रियता का ही मापदंड है। अभी तक जो रूझान सामने देखने को मिल रहे हैं, उससे साफ नजर आने लगा है कि कमल को मुरझा पाना पंजे के बस की बात नहीं रह गयी है। हलांकि परिणाम किसके पक्ष में होगा यह स्पष्ट नहीं किया जा सकता पर अभी तक सबसे भारी रमन का ही पक्ष नजर आ रहा है। छत्तीसगढ़ में भाजपा और कांग्रेस के अलावा बसपा जैसे कुछ अन्य दलों ने भी कुछ अन्य दलों ने भी उम्मीदवार उतारे हैं, पर उनका कोई निर्णायक बिन्दु समझ में नहीं आ रहा है।

Tuesday 12 November 2013

मुद्दों से भटकी, व्यक्ति पर अटकी राजनीति

हिटलर का एक प्रचारमंत्री था गोबेल्स। प्रचार-तंत्र को कैसे सफल बनाया जा सकता है, इसका एक उदाहरण था वह। उसका सबसे बड़ा और सबसे चर्चित, प्रचार-मंत्र था— एक झूठ को यदि सौ बार बोला जाये तो वह सच बन जाता है। राजनीति में इस मंत्र को कई-कई बार आजमाया गया है, और आजमाने वाला अकसर निराश नहीं हुआ है। हमारे देश में तो राजनेता अकसर इसी मंत्र के सहारे अपनी राजनीति चलाते देखे जाते हैं। इस मंत्र को अधिक धारदार और असरदार बनाने के लिए हमारे राजनेताओं ने एक बात और जोड़ दी है इसमें—वे यह मानकर चलते हैं कि बात को जितनी जोर से कहा जायेगा, उतनी ही ज्यादा सच्ची मानी जायेगी वह, और उतना ही ज्यादा असर होगा उसका। इसीलिए हमारे नेता अकसर जोर से बोलते हैं— टी.वी. स्टूडियो में बैठकर भी वे धीरे से, शांति से अपनी बात नहीं कह सकते। हमारे राजनेता अकसर बोलना नहीं, चिल्लाना पसंद करते हैं। चुनावों के मौसम में यह ‘अकसर ‘हमेशा’ में बदल जाता है। इसीलिए, हर चुनावी सभा, चाहे वह किसी भी पार्टी की या किसी भी नेता की क्यों न हो, शोर-शराबे वाली सभा बनकर रह जाती है। एक और खास बात होती है हमारी चुनावी सभाओं की— नेता यह मानकर चलते हैं कि श्रोता यानी जनता अपना विवेक घर छोड़कर आती है। ऐसे में जर्मनी के गोबेल्स का मंत्र तो ज्यादा कारगर होता ही है, हमारे नेता यह मानकर चलते हैं कि जनता को आसानी से मूर्ख बनाया जा सकता है। यह सही है कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है और अकसर वह बातों को भूल जाना पसंद करती है, लेकिन इसका अर्थ यह लगाना उचित नहीं होगा कि जनता को कुछ याद नहीं रहता। जनता वह सब याद रखती है जो याद रखने लायक होता है। यह जानने के अलावा हमारे नेताओं को एक बात समझनी भी होगी। उनकी लच्छेदार बातें, उनके लटके-झटके, और उनका चिल्लाना तालियों का सबब तो बन सकता है, उससे बात नहीं बनती। बात तो बड़ी-बड़ी सभाओं से भी नहीं बनती। जितनी बड़ी सभा, उतना बड़ा नेता वाली बात भी अब कुछ मायने नहीं रखती। वह जमाना लद गया जब नेताओं के भाषण सुनने के लिए भीड़ जुटती थी। सब जानते हैं कि अब भीड़ जुटायी जाती है। भले ही हमारे नेता ‘जन समुद्र’ देखकर सुखद आश्चर्य व्यक्त करते रहें या फिर ‘धूप में तपते’ लोगों के प्रति ‘आभार’ व्यक्त करते रहें, पर कहीं न कहीं वे इस तथ्य को जानते हैं कि यह जन-समुद्र उनके अपने लोगों ने ‘बड़ी मेहनत’ से जुटाया है। जुटायी एक और ‘भीड़’ भी जाती है आजकल—टी.वी. चैनलों की भीड़। इसके लिए भीड़ के आयोजकों को यह प्रचारित करना पड़ता है कि भीड़ शानदार होगी और नेता का भाषण भी। इसके अलावा चैनल एक बात यह भी देखते हैं कि किस नेता के साथ कितनी टीआरपी नत्थी है। एक बार जब उन्हें लगता है कि फलां नेता टीआरपी वाला है तो स्वयमेव खिंचते चले आते हैं। घंटा-घंटा भर के भाषण लाइव दिखाये जाते हैं और फिर घंटों उन भाषणों पर चर्चा होती है। चौबीसों घंटे चैनल चलाने की कुछ तो मजबूरी होती है— नेता भीड़ जुटाते हैं, चैनल टीआरपी!
जनतांत्रिक व्यवस्था में ये सारी बातें परेशान करने वाली हैं, लेकिन परेशानी उन बातों से भी है जो चुनावी सभाओं में हमारे नेता करते हैं। उम्मीद की जाती है कि नेता जनता को यह बताएंगे कि देश के सामने खड़ी समस्याओं से निपटने के लिए उनके पास क्या दृष्टि है, क्या योजनाएं हैं? अब तक उन्होंने ‘सेवा’ के नाम पर क्या किया है, आगे वे क्या करना चाहते हैं? उनकी अर्थनीति क्या है, वैदेशिक संबंधों के बारे में वे क्या सोचते हैं? हमारी शिक्षा-नीति में क्या कमी रह गयी है? समन्वित विकास के लिए हमें क्या करना चाहिए? आर्थिक विषमता कैसे दूर होगी? सामाजिक एकता को बढ़ावा देने के लिए क्या किया जाना चाहिए? साम्प्रदायिकता की समस्या सुलझाने में हम कहां चूक कर गये? जातीयता की समस्या का समाधान कैसे हो सकता है? ऐसे ढेरों सवाल हैं जिनके उत्तर नेतृत्व को देने होते हैं। पर हमारे नेताओं के भाषणों में ये शब्द तो होते हैं, लेकिन शब्दों के पीछे जो प्राणशक्ति होनी चाहिए, वह कहीं नहीं दिखायी देती। यह प्राण-शक्ति ईमानदारी से आती है— और हमारी त्रासदी यह है कि हमारे देश में ईमानदार नेतृत्व का अभाव है। एक नेता आता है, अपनी पारिवारिक त्रासदी और शहादत की दुहाई देकर हमारी संवेदना जीतने की कोशिश करता है। दूसरा नेता आकर आंसू पोंछने की बात करने लगता है। न पहला यह समझना चाहता है कि शहादत अनमोल होती है, न उसकी कीमत लगायी जा सकती है न चुकायी जा सकती है, और न दूसरा यह समझता है कि समाज और देश के आंसू शब्दों के रूमालों से नहीं पुंछते। जो पचास साल में नहीं हो पाया उसे पांच सालों में करने की बात सुनने में अवश्य अच्छी लगती है, पर यह कोई क्यों नहीं बताता कि पांच साल वाला यह जादू होगा कैसे। हमारी चुनावी राजनीति की त्रासदी यह भी है कि बुनियादी मुद्दों की बात हमारा नेतृत्व नहीं कर रहा, वह सिर्फ मुद्दे लपकता दिखायी दे रहा है। पिछले कुछ दिनों में ‘शहजादे’ और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार’ के बीच मुद्दे लपकने वाली इस राजनीति की रस्साकशी का खेल देश ने खूब देखा है। ‘उम्मीदवार’ को ‘शहजादे’ का अपनी मां के आंसुओं की बात करना गलत लगता है, पर चाय बेचने वाले अपने बचपन की दुहाई देकर गरीबी को जानने की बात करना नहीं; इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों पर हुए अत्याचार की बात तो उन्हें याद रहती है पर दस साल पहले हुए गोधरा-कांड के बाद गुजरात में हुई सांप्रदायिक हिंसा को वे याद नहीं रखना चाहते। इस तरह की बातें याद रहनी चाहिए, ताकि हम इस बारे में सावधान रहें कि ऐसा फिर कभी न हो। लेकिन, आम चुनाव की देहरी पर खड़े देश में जो बात न भूलना जरूरी है वह यह है कि देश की जरूरत समतावादी समाज है, जिसमें सबको आगे बढऩे का समुचित अवसर मिले, देश की जरूरत समन्वित विकास है; देश की जरूरत एक स्वस्थ और प्रगतिशील समाज का निर्माण है। इन मुद्दों पर हमारा नेतृत्व बात क्यों नहीं करता? सतही और भावनात्मक मुद्दे उछालकर अथवा वैयक्तिक आरोपों-प्रत्यारोपों के सहारे राजनीतिक नफे-नुकसान का समीकरण बिठाने वाले हमारे नेता एक स्वस्थ राष्ट्र-राज्य के लिए जरूरी मुद्दों के बारे में कब सोचेंगे? हवाई जहाज से बुंदेलखंड की नदियां देखकर वहां के किसानों की आत्महत्याओं का कारण जानने की कोशिश करने वाले हमारे नेता जमीन पर उतरकर स्थितियों की गंभीरता को कब समझेंगे? देश को आज जमीनी मुद्दों से जुड़े ठोस चिंतन करने वाले नेतृत्व की आवश्यकता है।

Monday 11 November 2013

बंद हो मनरेगा और एमडीएम

देश में गरीबी दूर करने और शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए केन्द्र सरकार के निर्देशन में दो प्रमुख योजनाएं संचालित है। इनका नाम हर कोई जानता है। पहली योजना है मनरेगा और दूसरी योजना है मिड-डे-मील योजना। दोनों योजनाओं पर देश में प्रतिवर्ष कई लाख करोड़ रूपये का अपव्यय किया जा रहा है। यहां अपव्यय शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया क्योंकि जो धन व्यय किया जा रहा है, उसका कोई सकारात्मक परिणाम नजर नहीं आ रहा है। जब मनरेगा योजना लागू की जा रही थी तो जोर-शोर से खूब प्रचार किया जा रहा था कि इससे न केवल मजदूरों की तकदीर बदल जाएगी, बल्कि अविकसित गावों की तस्वीर भी बदल जाएगी। अब आप से हम यह सवाल करते हैं कि आप अपने आसपास के गांव और वहां रह रहे मजदूरों दोनों की स्थिति का मूल्यांकन करिये और देखिये कि पिछले दस सालों में क्या दस मजदूरों की तकदीर बदली है और क्या दस गावों की तस्वीर बदली है। अगर हां तो मैं अपनी बात आपसे क्षमा मांगते हुए वापस ले लूंगा। सच कहूं तो इन दोनों योजनाओं से अगर किसी की तकदीर और तस्वीर बदली है तो वह हैं नेता और कुछ अफसर। इन दोनों योजनाओं में देश के गरीब मजदूर के खून पसीने से कमाई गई अरबों की धनराशि व्यर्थ में व्यय कर दी गयी । हम विनम्रता के साथ आपसे यह भी कहना चाहेंगे कि अर्थशास्त्र का नियम है कि पैसे का हमेशा उत्पादक व्यय किया जाना ही अच्छा होता है यानि जो पैसा व्यय किया जाये, उसका कुछ रिटर्न भी मिले। पर इन योजनाओं पर जो व्यय हो रहा है वह अनुत्पादक व्यय की श्रेणी में आता है। अर्थात जो धनराशि व्यय की गयी, उसका परिणाम कुछ भी नहीं मिला। आप गौर करें कि अगर जो धनराशि इन दोनों योजनाओं पर व्यय की गयी है अगर उसका उपयोग कोई उद्योग लगाने में किया गया होता तो देश का उत्पादन भी बढ़ता और शिक्षित बेरोजगारों को स्थायी रोजगार मिलने के साथ ही मजदूरों को भी स्थायी काम मिलता। अब समय आ गया है कि इन दोनों योजनाओं को बंद करने की बात हो और पैसे का सदुपयोग किये जाने की बात हो। 10 नवंबर 2013 को सपा के राष्टीय महासचिव प्रो. राम गोपाल यादव ने एमडीएम और मनरेगा दोनों योजनाओं को बंद किये जाने की मांग उठाई है। उनका यह कदम जैसे भी हो स्वागतयोग्य है।

तीसरे मोरचे पर मीनमेख


जैसे ही तीसरे मोरचे की चर्चाएं चलती हैं, उन्हें लेकर अंदेशे फैलाने का सिलसिला-सा चल पड़ता है. माकपा की अगुआई में सत्रह ‘धर्मनिरपेक्ष’ दलों की एकजुटता के किसी चुनावी मोरचेबंदी का रूप लेने में अनेक संशयों के बावजूद यह सिलसिला थमा नहीं है. कहा जा रहा है कि बरसात सिर पर आ जाने पर खपरैल की टूटी-फूटी छत की कामचलाऊ मरम्मत जैसी यह एकता एक बार फिर बिखर जाने के लिए है. यह भी कि इससे कतई कोई राष्ट्रीय लक्ष्य नहीं सधनेवाला.यह सिलसिला चलानेवाले सही हो सकते थे, बशर्ते खुद को देश की तीसरे विकल्प की जरूरत पर केंद्रित करते. लेकिन, वे महज अनुकूलित निष्कर्ष निकालने पर आमादा हैं. उनकी मानें तो कांग्रेस व भाजपा भले ही गठबंधन युग में आ पहुंची हैं, संभावित तीसरे मोरचे की पार्टियां अभी भी 1977,1989 और 1996 की अपनी विफलताओं से कोई सबक लिये बिना वहीं खड़ी हैं और इस कारण उनकी नये मोरचे के गठन की जद्दोजहद उनके खिलाफ महाभियोग चलाने लायक अपराध है! वे सत्ता में आयीं, तो उन्हीं विफलताओं को दोहराने लगेंगी, इस डर से देशवासी भाजपा से निराश हों तो उन्हें कांग्रेस का राज्याभिषेक कर देना चाहिए और कांग्रेस से निराश हों तो फिर भाजपा की ओर लौट जाना चाहिए. क्षेत्रीय पार्टियों के अपने-अपने पूर्वाग्रह या अंतर्विरोध हैं, इसलिए दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों के अंतर्विरोध और पूर्वाग्रह ही चलने देने चाहिए.
लेकिन क्यों? महाभियोग का तकिया राजनीतिक अस्थिरता पर रखा जाता है. कहा जाता है कि जब भी केंद्र में किसी ऐसे मोरचे की सरकार बनी, देश को अस्थिर कर गयी! लेकिन इस अस्थिरता में कांग्रेस व भाजपा के ‘योगदान’ पर जानबूझ कर बात नहीं की जाती. 1977 में जनता पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार इसलिए गिरी कि कांग्रेस को जनादेश का आदर करते हुए पांच साल तक रचनात्मक विपक्ष का फर्ज निभाना कुबूल नहीं था. सत्ता में वापसी की बेचैनी में उसने जनता पार्टी में फूट डाली, चैधरी चरण सिंह की सरकार बनवायी और उसे संसद का मुंह तक नहीं देखने दिया! आगे चलकर चंद्रशेखर, एचडी देवगौड़ा व इंद्रकुमार गुजराल की सरकारों के साथ भी उसने लगभग वैसा ही सुलूक किया. स्थिरता की दुहाई देने में आजकल कांग्रेस को भी मात करनेवाली भाजपा को याद नहीं है कि उसकी पहली सरकार 13 दिन जबकि दूसरी 13 महीने चली थी और उसके दामन पर कथित राममंदिर मुद्दे पर विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के प्राणहरण का दाग है! गौर कीजिए, उसने अपनी अटल सरकार को कभी इस तरह दावं पर नहीं लगाया और मंदिर मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल कर तब तक राज करती रही जब तक जनता ने ही उसकी बेदखली का फरमान नहीं सुना दिया!
पिछले 16 सालों से तीसरा मोरचा राष्ट्रीय परिदृश्य से गैरहाजिर है और अदल-बदल कर कांग्रेस व भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन ही राज कर रहे हैं. ये दोनों ‘राष्ट्रीय’ पार्टियां फिर भी जनता का इतना विश्वास नहीं जीत पा रहीं कि अपने दम पर सरकार बना सकें और गंबंधन की राजनीति के नाम पर संभावित तीसरे मोरचे की पार्टियों की मदद से ही स्थिरता का क्रेडिट ले रही हैं! मतलब? वही पार्टियां कांग्रेस या भाजपा के गंठबंधन में रहें तो राष्ट्रीय हितों की पोषक हो जाती हैं और अपने मोरचे की जद्दोजहद में लग जायें तो संकुचित क्षेत्रीय स्वार्थो व पूर्वाग्रहों की प्रवक्ता! सवाल है कि कांग्रेस व भाजपा की स्थिरता ने भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता को स्थिर कर देने के अलावा देश को क्या दिया है? क्या यह स्थिरता प्रभुवर्गो द्वारा हमारे लोकतंत्र को अनुकूलित कर उसकी उपलब्धियों को ऊपर ही ऊपर लोकने ओर स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान अर्जित बराबरी व बंधुत्व जैसे मूल्यों को दरकिनार कर जनसाधारण को असाधारण मुसीबतों के हवाले करने की बाइस नहीं रही है? क्या यह देश को उस युग में नहीं ले जा रही, जिसमें उसका कबाड़ा करनेवाली सरकारें भी इसलिए नहीं गिरतीं कि खास वर्ग चरित्र वाले सांसद समय से पहले जनता के सामने जाने की हिम्मत नहीं रखते? चाहते हैं कि देश घोटालों पर घोटालों का बोझ उठाता रहे, लेकिन चुनाव के बोझ से बचा रहे! यकीनन, तीसरा मोरचा इस सबका संपूर्ण समाधान नहीं है, लेकिन उसकी अस्थिरता क्या इस अर्थ में भली नहीं है कि सरकार जब तक चले, जनाकांक्षाएं पूरी करे वरना एक-दूसरे की कार्बन कॉपी बन गयी कांग्रेस व भाजपा के बंधक से बेजार हो रहे देश को सिर्फ इसलिए तीसरे विकल्प से परहेज क्यों रखना चाहिए कि उसकी सरकार पूरे समय नहीं चलेगी? न चले पर सिर पर सवार तो नहीं रहेगी! वैसे भी उलट-पलट लोकतंत्र का गुण है.

Saturday 9 November 2013

आम आदमी के लिए न्याय अब भी दूर की कौड़ी

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस पी सतशिवम का मानना है कि आम आदमी तक पहुंच बनाने की कोशिशों के बावजूद न्याय अब भी उनके लिए दूर की कौड़ी है। कानूनी कार्यवाही की आंधी में उनके हितों की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता। मुख्य न्यायाधीश के विचार का सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम जज जीएस सिंघवी ने भी समर्थन किया। सिंघवी का कहना है कि लाखों लोगों के लिए न्याय अब भी भ्रम है। राष्ट्रीय कानूनी सेवा दिवस के मौके पर यहां शनिवार को मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि अधिकतर लोगों ने यह मान लिया है कि अदालतों में सिर्फ कानूनी बात होती है। यहां न्याय नहीं मिलता। इसलिए जागरूकता फैलाने के साथ मानसिकता बदलने के लिए भी कदम उठाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट में कुछ संवेदनशील मामले समय ले लेते हैं इसलिए नियमित मामलों को वक्त नहीं मिल पाता। कुछ योजनाओं को लागू करने के बावजूद हम लक्ष्य (नियमित मामलों का निपटारा) हासिल नहीं कर पाए। ग्रामीण इलाकों में रोजगार देने वाली केंद्र सरकार की मनरेगा योजना की जस्टिस सतशिवम ने प्रशंसा की, लेकिन साथ ही जोड़ा कि इसके अंतर्गत कार्य रह लोगों को तय मजदूरी नहीं मिल पा रही।वहीं जस्टिस सिंघवी ने कहा कि इस पर सोचने की आवश्यकता है कि क्या हम 65 सालों में लोगों को न्याय दिलाने के लक्ष्य को हासिल कर पाए हैं और क्या हमने ऐसा माहौल बनाया, जिसमें सभी लोगों को समान मौका मिल सके। हम पर न्याय दिलाने का जिम्मा है, इसलिए हमें लोगों के घरों तक न्याय पहुंचाने का वादा करना होगा। जस्टिस सिंघवी ने अशिक्षा, जागरूकता का अभाव, कार्यवाही में देरी और कानूनी खर्चो को न्याय नहीं मिलने के कारणों में शामिल किया। उन्होंने जजों को समाज के पिछड़े लोगों के मामलों की सुनवाई के दौरान मानवीयता का परिचय देने का आग्रह किया।

बसपा सुप्रीमो मायावती ने 9 नवंबर 2013 को लखनउ स्थित पार्टी कार्यालय पर पत्रकारों से बातचीत की। इस दौरान उन्होंने साफ किया कि लोकसभा चुनाव में बसपा किसी से तालमेल नहीं करेगी। बसपा अपने बलबूते लोकसभा चुनाव में उतरेगी। सुश्री मायावती ने भाजपा, सपा और कांग्रेस पर तीर छोडे। उन्होंने उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था को पूरी तरह से खराब बताते हुए कहा कि लैपटाप बांटने से यूपी का विकास नहीं होगा। उन्होंने भाजपा और सपा को एक थैली का चटटा-बटटा बताते हुए कहा कि दोनों आपस में मिले हुए हैं और साम्प्रदायिकता फैलाकर चुनावी लाभ लेना चाहते हैं। जनता इसे भलीभांति समझ चुकी है। सुश्री मायावती के साथ पार्टी महासचिव सतीश मिश्र भी मौजूद रहे।

Friday 8 November 2013

जल्द शुरू होंगी मायावती की रैलियां

Mayawati

 कांग्रेस, भाजपा तथा सपा के बाद बसपा भी लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जोर-शोर से जुटेगी। जल्द ही बसपा प्रमुख मायावती की उत्तर प्रदेश में रैलियों का वृहद कार्यक्रम तय हो जाएगा। 10 नवंबर को लखनऊ में पार्टी के पदाधिकारियों व जोनल कोआर्डिनेटरों की अहम बैठक बुलाई गई है, जिसमें राजनीतिक माहौल को देखते कुछ लोकसभा प्रत्याशियों को बदलने पर निर्णय हो सकता है। अधिकृत तौर घोषणा न सही लेकिन पार्टी ने लगभग सभी लोकसभा सीटों पर प्रत्याशी तय कर रखे हैं। लोकसभा चुनाव के मद्देनजर सूबे में भी मायावती की रैलियों का सिलसिला भी जल्द शुरू होगा।पाच राज्य के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर बीते तीन माह से मायावती में दिल्ली में ही हैं। पार्टी दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में चुनाव लड़ रही है। दस को पदाधिकारियों व जोनल कोआर्डिनेटरों के साथ बैठक के साथ ही बसपा प्रमुख मायावती पार्टी के लोकसभा प्रत्याशियों से भी अलग-अलग मिलेंगी। सूत्रों के मुताबिक मुजफ्फनगर दंगे के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बदले सियासी समीकरण को देखते हुए भी बसपा प्रमुख कुछ क्षेत्रों के प्रत्याशियों को बदल सकती है। पार्टी सूत्र बताते हैं कि बसपा प्रमुख फिलहाल यहीं रहकर मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में चुनावी सभाएं करेंगी। पदाधिकारियों के साथ बैठक के बाद प्रदेश में रैलियों की तिथि घोषित की जा सकती हैं।
बसपा के कुल 21 सासदों में से 20 उत्तर प्रदेश से ही हैं। ऐसे में पार्टी भले ही किसी से गठबंधन किए बिना देश की ज्यादातर लोकसभा सीटों पर ताल ठोकने को तैयार है इसलिए उसका सर्वाधिक फोकस सूबे की 80 सीटों पर ही है। पार्टी पिछले वर्ष विधानसभा चुनाव के बाद से ही लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटी है। पार्टी सुप्रीमो के निर्देश पर पदाधिकारी व कार्यकर्ताओं के चुपचाप बूथ स्तर तक संगठन को मजबूत करने के लिए बूथ कमेटियों का गठन कर कैडर कैंप चल रहे हैं। मतदाता सूची के पुनरीक्षण का काम भी किया जा रहा है। इन कामों की समीक्षा पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रामअचल राजभर करते रहे हैं लेकिन जिस तरह से दूसरी पार्टियों की इधर सूबे में सक्त्रियता बढ़ी है उसको देखते हुए अबकी बसपा प्रमुख खुद ही तैयारियों की समीक्षा करेंगी।

विधायक संगीत सोम जेल से रिहा

 रासुका एडवाइजरी बोर्ड द्वारा भाजपा विधायकों संगीत सोम और सुरेश राणा पर लगी रासुका हटाने के बाद शुक्रवार को मुजफ्फरनगर जेल से सोम को रिहा कर दिया गया। सहारनपुर के देवबंद में भी कोर्ट ने उनकी जमानत मंजूर कर ली।

बम और बंदूक की राजनीति करने वाले

      सुन  लें,हम दूसरी मिट्टी के बने हैं

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भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी नेपाल से सटे यूपी के सबसे संवेदनशील बहराइच जिले में शुक्रवार को तलख अंदाज में दिखे. मोदी ने यहां कांग्रेस, बसपा और सपा को अपने निशाने पर रखा. इन दलों को उन्होंने स्वार्थी बताया. यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को उन्होंने संकेतों में विजनविहीन नेता कहा और इंडियन मुजाहिददीन (आईएम) जैसे आतंकी संगठन को खुला छोड़ देने का आरोप केंद्र की कांग्रेस पर लगाया. मोदी ने यह भी कहा कि देश में बम और बंदूक की राजनीति करने वाले सुन लें, हम दूसरी मिट्टी के बने हैं. बम, बंदूक और आतंकवादियों की गतिविधियों से डरने वाले नहीं हैं. बल्कि हम आतंकियों को कुचल देंगे, उनको जड़ मूल सहित नष्ट कर देंगे. अब हमें कोई रोक नहीं सकता. यह दावा करते हुए मोदी ने बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी पर लोकतंत्र का गलाघोटने का आरोप लगाया. मोदी के अनुसार इन तीनों दलों का चरित्र, मकसद और डीएनए एक है. इन्हें देश की नहीं बल्कि अपने परिवार की चिन्ता है. यह दल वोट की राजनीति करते हैं, विकास की नहीं. वोट बैंक की राजनीति के चलते ही यूपी में भाजपा को बदनाम करने के लिए पार्टी के दो विधायकों को मुजफ्फरनगर में जेल भेजा गया पर कानून के आगे यूपी सरकार की मंशा पूरी नहीं हुई. हमारे दोनों विधायक छूट गए. मोदी ने कहा कि आज यूपी में वोट बैंक की राजनीति के कारण दोषियों को जेल में नहीं डाला जा रहा है और निर्दोष लोगों को जेल भेजे जा रहे हैं. मोदी के अनुसार ऐसी राजनीति से किसी का भला नहीं होगा. भाजपा और हमे देश के विकास की चिंता है. यदि कांग्रेस ने 60 सालों में देश और प्रदेश के विकास पर ध्यान दिया होता तो भारत आज गरीब देशों की सूची में ना होता. सूबे की अखिलेश सरकार पर हमला बोलते हुए मोदी ने कहा कि यूपी के सीएम अखिलेश  यादव को लॉयन सफारी के लिए शेर चाहिए. मुझसे उन्होंने गुजरात के शेर मांगे. मैंने उन्हें शेर उपलब्ध कराए. यदि अखिलेश ने प्रदेश के विकास के लिए गिरी की गाय या गुजरात से बिजली मांगी होती तो वह भी मैं उन्हें उपलब्ध कराता. परन्तु अखिलेश ने ऐसा नहीं किया क्योंकि अखिलेश को यूपी के विकास की चिन्ता ही नहीं है. वह तो यूपी में लॉयन सफारी बनाता चाहते हैं. इसके पहले वाली सरकार को हाथी से प्रेम था. मोदी ने कहा कि अखिलेश के पास यूपी की दृष्टि ही नहीं है. अपने इस आरोप को स्पष्ट करते हुए मोदी ने कहा कि यूपी में अमिताभ बच्चन का उपयोग कुछ वर्ष पूर्व सपा सरकार ने यूपी में है दम का गाना गवा कर किया. उन्हीं हमने अमिताभ का उपयोग गुजरात में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए किया. हम हर व्यक्ति की उपयोगिता के आधार पर उसका उपयोग करते हैं. यूपी के नेताओं ने ऐसा नहीं किया. इसी वजह से यूपी विकास के मामले में आगे नहीं बढ़ सका. मोदी का यह कथन रैली में मौजूद लोगों को पसंद आया. लोगों ने मोदी जिन्दाबाद का नारा लगाकर यह जताया. जनता से मिले इस उत्साह पर मोदी ने कहा कि यूपी में सपा और बसपा के बीच अपराधियों को अपने साथ लेने की प्रतिस्पर्धा चल रही है. इन्हें जनता की समस्याओं को दूर करने की फिकर नहीं है. यदि फिकर होती तो सपा और बसपा केंद्र सरकार से बहराइचल के लिए रेल और हवाई अड्डा मांगते. केंद्र सरकार यह मांग तत्काल पूरी करती क्योंकि कांग्रेस और सपा के समर्थन से ही केंद्र सरकार चल रही है. लेकिन ऐसी मांग सपा और बसपा ने केंद्र की कांग्रेस सरकार ने की ही नहीं. इन दोनों दलों ने तो सिर्फ सीबीआई की जांच से अपने को मुक्त करने की मांग ही समर्थन देते रहने के लिए की. मोदी के इस संबोधन को यहां के लोगों ने सराहा. रैली में आए लोगों को मोदी यह तल्ख तेवर पसंद आया. लोगों के रूख को माने तो अवध क्षेत्र में मोदी की इस रैली से भाजपा को ताकत मिलेगी. भाजपा के नेता मोदी की इस रैली से यहीं अपेक्षा रखते थे, और वह पूरा होता दिखा भी.

Thursday 7 November 2013


मायावती ने तीन बंगलों को मिलाकर बनाया सुपरबंगला

माया ने तीन बंगलों को मिलाकर बनाया सुपरबंगला

यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री,बसपा सुप्रीमो मायावती पर कांग्रेस मेहरबान है। उन्हें दिल्ली के सबसे महत्वपूर्ण इलाके लुटियंस जोन में तीन बंगले आवंटित किए हैं। बता दें, मायावती ने तीनों बंगलों को मिलाकर एक विशाल बंगला तैयार कराया है और सीपीडब्लूडी ने इसे बाकायदा मंजूरी दी है। इस नए बंगले का क्षेत्रफल 28800 वर्ग फुट है और इतना बडा बंगला किसी मंत्री के पास नहीं है। बंगलों को इस तरह मिलाना गैरकानूनी है। इस नए बंगले में अनाधिकृत निर्माण किया गया है। फाइबर शीट की छतें बनाकर जगह घेरी गई है। आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल ने सूचना के अधिकार के तहत इनके बारे में जानकारी मांगी थी। उन्हें बताया गया कि ये इकाई बहुजन प्रेरणा ट्रस्ट को दी गई थी।

Friday 1 November 2013

इधर-उधर की बात में गायब मुददे


वर्ष 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव की अघोषित तौर पर रणभेजी बज चुकी है। मुख्य रूप से मैदान में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने ताकत झोंक दी है। भाजपा ने घोषित तौर पर नरेन्द्र भाई मोदी को पीएम पद का उम्मीदवार बनाया तो है तो उनके मुकाबले में कांग्रेस ने अमेठी के सांसद राहुल गांधी को मैदान में अघोषित तौर पर उतार दिया है। प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देख रहे राहुल गांधी केन्द्र में पिछले नौ साल से चली आ रही यूपीए सरकार की उपलब्धियों को गिनाने के बजाय जिस प्रदेश में जाते हैं, वहां की सरकार अगर कांग्रेस या उसके सहयोगी की नहीं है तो उसे निशाने पर लेते हैं, या फिर अपने परिवार का मार्मिक इतिहास सुनाकर लोगों से कांग्रेस का समर्थन करने की अपील करते हैं। बदले में नरेन्द्र मोदी मुददे तो उठाते हैं, पर वही जिस पर कांग्रेस तुनके उतनी ही बात करते हैं। पूरे देश में भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, ग्रामीण विकास जैसे तमाम मुददे हैं, जिन पर बात नहीं की जा रही है। हम बात उत्तर प्रदेश की करें तो यहीं से यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी रायबरेली से सांसद हैं और खुद राहुल गांधी अमेठी से सांसद हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्वान्चल में जापानी बुखार का कहर पिछले एक दशक से व्याप्त है। दशक भर में इस बुखार की चपेट में आकर अब तक आठ हजार से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है, पर यह मुददा न तो राहुल के पास है और न ही नरेन्द्र मोदी के पास। उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों का करोडों का बकाया पडा हुआ है, पर यह भी इन नेताओं का मुददा नही है। उत्तर प्रदेश के पश्चिमांचल में पिछले डेढ माह से साम्प्रदायिक हिंसा की लपटें रह-रह कर उठ रही हैं, पर यह भी इन नेताओं के मुददे नहीं हैं। शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह से चौपट हो गयी है। एक लाख 80 हजार शिक्षण शिक्षणेत्तर कर्मचारी वित्तविहीन मान्यता प्राप्त विद्यालयों में काम कर रहे हैं, उन्हें जीविकोपार्जन भत्ता भी नहीं मिल रहा है। पर यह भी किसी का मुददा नहीं है। होमगार्ड अफसरों के घरेलू नौकर बनकर रह गये हैं, यह मुददा नहीं है। प्राथमिक शिक्षा पूरी तरह से चौपट हो रही है, यह भी मुददा नहीं है। अगर कुछ मुददा है तो बस एक-दूसरे की आलोचना करना। प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव और उनके बेटे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने के डेढ साल बाद भी अभी बसपा सुप्रीमो मायावती की ही माला जप रहे हैं और लोगों को माया सरकार की खौफ दिखा रहे हैं। पर जनता सब जान चुकी है। अब उसे और अधिक बेवकूफ नहीं बनाया जा सकेगा।