Wednesday 27 November 2013

बदलाव की आहट

लोकतंत्र को जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन कहा गया है. लोकतंत्र की मूल भावना बची रहे, इसके लिए जरूरी है कि जनता चुनाव में पूरे उत्साह से भाग ले. जनता, ‘जनार्दन’ इसलिए है, क्योंकि उसके पास वोट की शक्ति है. पिछले कुछ वर्षो में विभिन्न राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के मतदान प्रतिशत पर गौर करें, तो एहसास होता है कि जनता का वोट की अपनी ताकत में यकीन बढ़ा है.
वह ‘कोऊ नृप होये हमें का हानी’ की पुरानी उदासीनता से बाहर आ रही है. उसका यकीन इस बात में बढ़ा है कि वह वोट के सहारे अपनी किस्मत बदल सकती है. इस विश्वास की तसदीक खुद आंकड़े कर रहे हैं. पिछले दो-तीन वर्षो में विभिन्न राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में लगभग हर जगह मतदान का नया रिकॉर्ड बना है. पंजाब में 77 फीसदी, उत्तराखंड में 70 फीसदी, हिमाचल में 75 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 59 फीसदी. यह सिलसिला थमता हुआ नहीं दिखता है. छत्तीसगढ़ के बाद मध्य प्रदेश और मिजोरम से भारी मतदान की खबरें आयी हैं. छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में नक्सलियों द्वारा चुनाव के बहिष्कार के एलान के बावजूद मतदान केंद्रों के बाहर जनता की लंबी कतारें देखी गयीं. इसने इस विश्वास को पुख्ता किया कि जनता बुलेट की जगह बैलेट के रास्ते पर चलना चाहती है. राज्य में इस बार रिकॉर्डतोड़ करीब 75 फीसदी मतदान दर्ज किया गया. अब मध्य प्रदेश में 71 प्रतिशत और मिजोरम में 81 फीसदी मतदान का नया रिकॉर्ड कायम हुआ है. एक स्तर पर इसे चुनाव आयोग की सफलता कहा जा सकता है, जिसने जागरूकता अभियान चला कर और उससे भी बढ़ कर निष्पक्ष एवं कमोबेश शांतिपूर्ण मतदान सुनिश्चित करके जनता में लोकतंत्र के महाकुंभ के प्रति आस्था फिर से जगायी है. मगर, बधाई की असल हकदार जनता है, जिसने मतदान द्वारा लोकतंत्र की जड़ता को भंग करने का उत्साह दिखाया है. राजनीतिक दलों के लिए मतदान केंद्रों की ओर बढ़े जनता के कदम के निहितार्थो को समझने की जरूरत है. लोकतंत्र के आलोचक यह कहते रहे हैं कि ‘जनता को अपनी जैसी ही सरकार मिलती है’. जाहिर है, जब जनता बदल रही हो, तो सरकारों और पार्टियों को भी खुद में बदलाव लाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा.

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