Tuesday 12 November 2013

मुद्दों से भटकी, व्यक्ति पर अटकी राजनीति

हिटलर का एक प्रचारमंत्री था गोबेल्स। प्रचार-तंत्र को कैसे सफल बनाया जा सकता है, इसका एक उदाहरण था वह। उसका सबसे बड़ा और सबसे चर्चित, प्रचार-मंत्र था— एक झूठ को यदि सौ बार बोला जाये तो वह सच बन जाता है। राजनीति में इस मंत्र को कई-कई बार आजमाया गया है, और आजमाने वाला अकसर निराश नहीं हुआ है। हमारे देश में तो राजनेता अकसर इसी मंत्र के सहारे अपनी राजनीति चलाते देखे जाते हैं। इस मंत्र को अधिक धारदार और असरदार बनाने के लिए हमारे राजनेताओं ने एक बात और जोड़ दी है इसमें—वे यह मानकर चलते हैं कि बात को जितनी जोर से कहा जायेगा, उतनी ही ज्यादा सच्ची मानी जायेगी वह, और उतना ही ज्यादा असर होगा उसका। इसीलिए हमारे नेता अकसर जोर से बोलते हैं— टी.वी. स्टूडियो में बैठकर भी वे धीरे से, शांति से अपनी बात नहीं कह सकते। हमारे राजनेता अकसर बोलना नहीं, चिल्लाना पसंद करते हैं। चुनावों के मौसम में यह ‘अकसर ‘हमेशा’ में बदल जाता है। इसीलिए, हर चुनावी सभा, चाहे वह किसी भी पार्टी की या किसी भी नेता की क्यों न हो, शोर-शराबे वाली सभा बनकर रह जाती है। एक और खास बात होती है हमारी चुनावी सभाओं की— नेता यह मानकर चलते हैं कि श्रोता यानी जनता अपना विवेक घर छोड़कर आती है। ऐसे में जर्मनी के गोबेल्स का मंत्र तो ज्यादा कारगर होता ही है, हमारे नेता यह मानकर चलते हैं कि जनता को आसानी से मूर्ख बनाया जा सकता है। यह सही है कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है और अकसर वह बातों को भूल जाना पसंद करती है, लेकिन इसका अर्थ यह लगाना उचित नहीं होगा कि जनता को कुछ याद नहीं रहता। जनता वह सब याद रखती है जो याद रखने लायक होता है। यह जानने के अलावा हमारे नेताओं को एक बात समझनी भी होगी। उनकी लच्छेदार बातें, उनके लटके-झटके, और उनका चिल्लाना तालियों का सबब तो बन सकता है, उससे बात नहीं बनती। बात तो बड़ी-बड़ी सभाओं से भी नहीं बनती। जितनी बड़ी सभा, उतना बड़ा नेता वाली बात भी अब कुछ मायने नहीं रखती। वह जमाना लद गया जब नेताओं के भाषण सुनने के लिए भीड़ जुटती थी। सब जानते हैं कि अब भीड़ जुटायी जाती है। भले ही हमारे नेता ‘जन समुद्र’ देखकर सुखद आश्चर्य व्यक्त करते रहें या फिर ‘धूप में तपते’ लोगों के प्रति ‘आभार’ व्यक्त करते रहें, पर कहीं न कहीं वे इस तथ्य को जानते हैं कि यह जन-समुद्र उनके अपने लोगों ने ‘बड़ी मेहनत’ से जुटाया है। जुटायी एक और ‘भीड़’ भी जाती है आजकल—टी.वी. चैनलों की भीड़। इसके लिए भीड़ के आयोजकों को यह प्रचारित करना पड़ता है कि भीड़ शानदार होगी और नेता का भाषण भी। इसके अलावा चैनल एक बात यह भी देखते हैं कि किस नेता के साथ कितनी टीआरपी नत्थी है। एक बार जब उन्हें लगता है कि फलां नेता टीआरपी वाला है तो स्वयमेव खिंचते चले आते हैं। घंटा-घंटा भर के भाषण लाइव दिखाये जाते हैं और फिर घंटों उन भाषणों पर चर्चा होती है। चौबीसों घंटे चैनल चलाने की कुछ तो मजबूरी होती है— नेता भीड़ जुटाते हैं, चैनल टीआरपी!
जनतांत्रिक व्यवस्था में ये सारी बातें परेशान करने वाली हैं, लेकिन परेशानी उन बातों से भी है जो चुनावी सभाओं में हमारे नेता करते हैं। उम्मीद की जाती है कि नेता जनता को यह बताएंगे कि देश के सामने खड़ी समस्याओं से निपटने के लिए उनके पास क्या दृष्टि है, क्या योजनाएं हैं? अब तक उन्होंने ‘सेवा’ के नाम पर क्या किया है, आगे वे क्या करना चाहते हैं? उनकी अर्थनीति क्या है, वैदेशिक संबंधों के बारे में वे क्या सोचते हैं? हमारी शिक्षा-नीति में क्या कमी रह गयी है? समन्वित विकास के लिए हमें क्या करना चाहिए? आर्थिक विषमता कैसे दूर होगी? सामाजिक एकता को बढ़ावा देने के लिए क्या किया जाना चाहिए? साम्प्रदायिकता की समस्या सुलझाने में हम कहां चूक कर गये? जातीयता की समस्या का समाधान कैसे हो सकता है? ऐसे ढेरों सवाल हैं जिनके उत्तर नेतृत्व को देने होते हैं। पर हमारे नेताओं के भाषणों में ये शब्द तो होते हैं, लेकिन शब्दों के पीछे जो प्राणशक्ति होनी चाहिए, वह कहीं नहीं दिखायी देती। यह प्राण-शक्ति ईमानदारी से आती है— और हमारी त्रासदी यह है कि हमारे देश में ईमानदार नेतृत्व का अभाव है। एक नेता आता है, अपनी पारिवारिक त्रासदी और शहादत की दुहाई देकर हमारी संवेदना जीतने की कोशिश करता है। दूसरा नेता आकर आंसू पोंछने की बात करने लगता है। न पहला यह समझना चाहता है कि शहादत अनमोल होती है, न उसकी कीमत लगायी जा सकती है न चुकायी जा सकती है, और न दूसरा यह समझता है कि समाज और देश के आंसू शब्दों के रूमालों से नहीं पुंछते। जो पचास साल में नहीं हो पाया उसे पांच सालों में करने की बात सुनने में अवश्य अच्छी लगती है, पर यह कोई क्यों नहीं बताता कि पांच साल वाला यह जादू होगा कैसे। हमारी चुनावी राजनीति की त्रासदी यह भी है कि बुनियादी मुद्दों की बात हमारा नेतृत्व नहीं कर रहा, वह सिर्फ मुद्दे लपकता दिखायी दे रहा है। पिछले कुछ दिनों में ‘शहजादे’ और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार’ के बीच मुद्दे लपकने वाली इस राजनीति की रस्साकशी का खेल देश ने खूब देखा है। ‘उम्मीदवार’ को ‘शहजादे’ का अपनी मां के आंसुओं की बात करना गलत लगता है, पर चाय बेचने वाले अपने बचपन की दुहाई देकर गरीबी को जानने की बात करना नहीं; इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों पर हुए अत्याचार की बात तो उन्हें याद रहती है पर दस साल पहले हुए गोधरा-कांड के बाद गुजरात में हुई सांप्रदायिक हिंसा को वे याद नहीं रखना चाहते। इस तरह की बातें याद रहनी चाहिए, ताकि हम इस बारे में सावधान रहें कि ऐसा फिर कभी न हो। लेकिन, आम चुनाव की देहरी पर खड़े देश में जो बात न भूलना जरूरी है वह यह है कि देश की जरूरत समतावादी समाज है, जिसमें सबको आगे बढऩे का समुचित अवसर मिले, देश की जरूरत समन्वित विकास है; देश की जरूरत एक स्वस्थ और प्रगतिशील समाज का निर्माण है। इन मुद्दों पर हमारा नेतृत्व बात क्यों नहीं करता? सतही और भावनात्मक मुद्दे उछालकर अथवा वैयक्तिक आरोपों-प्रत्यारोपों के सहारे राजनीतिक नफे-नुकसान का समीकरण बिठाने वाले हमारे नेता एक स्वस्थ राष्ट्र-राज्य के लिए जरूरी मुद्दों के बारे में कब सोचेंगे? हवाई जहाज से बुंदेलखंड की नदियां देखकर वहां के किसानों की आत्महत्याओं का कारण जानने की कोशिश करने वाले हमारे नेता जमीन पर उतरकर स्थितियों की गंभीरता को कब समझेंगे? देश को आज जमीनी मुद्दों से जुड़े ठोस चिंतन करने वाले नेतृत्व की आवश्यकता है।

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