Monday 11 November 2013

तीसरे मोरचे पर मीनमेख


जैसे ही तीसरे मोरचे की चर्चाएं चलती हैं, उन्हें लेकर अंदेशे फैलाने का सिलसिला-सा चल पड़ता है. माकपा की अगुआई में सत्रह ‘धर्मनिरपेक्ष’ दलों की एकजुटता के किसी चुनावी मोरचेबंदी का रूप लेने में अनेक संशयों के बावजूद यह सिलसिला थमा नहीं है. कहा जा रहा है कि बरसात सिर पर आ जाने पर खपरैल की टूटी-फूटी छत की कामचलाऊ मरम्मत जैसी यह एकता एक बार फिर बिखर जाने के लिए है. यह भी कि इससे कतई कोई राष्ट्रीय लक्ष्य नहीं सधनेवाला.यह सिलसिला चलानेवाले सही हो सकते थे, बशर्ते खुद को देश की तीसरे विकल्प की जरूरत पर केंद्रित करते. लेकिन, वे महज अनुकूलित निष्कर्ष निकालने पर आमादा हैं. उनकी मानें तो कांग्रेस व भाजपा भले ही गठबंधन युग में आ पहुंची हैं, संभावित तीसरे मोरचे की पार्टियां अभी भी 1977,1989 और 1996 की अपनी विफलताओं से कोई सबक लिये बिना वहीं खड़ी हैं और इस कारण उनकी नये मोरचे के गठन की जद्दोजहद उनके खिलाफ महाभियोग चलाने लायक अपराध है! वे सत्ता में आयीं, तो उन्हीं विफलताओं को दोहराने लगेंगी, इस डर से देशवासी भाजपा से निराश हों तो उन्हें कांग्रेस का राज्याभिषेक कर देना चाहिए और कांग्रेस से निराश हों तो फिर भाजपा की ओर लौट जाना चाहिए. क्षेत्रीय पार्टियों के अपने-अपने पूर्वाग्रह या अंतर्विरोध हैं, इसलिए दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों के अंतर्विरोध और पूर्वाग्रह ही चलने देने चाहिए.
लेकिन क्यों? महाभियोग का तकिया राजनीतिक अस्थिरता पर रखा जाता है. कहा जाता है कि जब भी केंद्र में किसी ऐसे मोरचे की सरकार बनी, देश को अस्थिर कर गयी! लेकिन इस अस्थिरता में कांग्रेस व भाजपा के ‘योगदान’ पर जानबूझ कर बात नहीं की जाती. 1977 में जनता पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार इसलिए गिरी कि कांग्रेस को जनादेश का आदर करते हुए पांच साल तक रचनात्मक विपक्ष का फर्ज निभाना कुबूल नहीं था. सत्ता में वापसी की बेचैनी में उसने जनता पार्टी में फूट डाली, चैधरी चरण सिंह की सरकार बनवायी और उसे संसद का मुंह तक नहीं देखने दिया! आगे चलकर चंद्रशेखर, एचडी देवगौड़ा व इंद्रकुमार गुजराल की सरकारों के साथ भी उसने लगभग वैसा ही सुलूक किया. स्थिरता की दुहाई देने में आजकल कांग्रेस को भी मात करनेवाली भाजपा को याद नहीं है कि उसकी पहली सरकार 13 दिन जबकि दूसरी 13 महीने चली थी और उसके दामन पर कथित राममंदिर मुद्दे पर विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के प्राणहरण का दाग है! गौर कीजिए, उसने अपनी अटल सरकार को कभी इस तरह दावं पर नहीं लगाया और मंदिर मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल कर तब तक राज करती रही जब तक जनता ने ही उसकी बेदखली का फरमान नहीं सुना दिया!
पिछले 16 सालों से तीसरा मोरचा राष्ट्रीय परिदृश्य से गैरहाजिर है और अदल-बदल कर कांग्रेस व भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन ही राज कर रहे हैं. ये दोनों ‘राष्ट्रीय’ पार्टियां फिर भी जनता का इतना विश्वास नहीं जीत पा रहीं कि अपने दम पर सरकार बना सकें और गंबंधन की राजनीति के नाम पर संभावित तीसरे मोरचे की पार्टियों की मदद से ही स्थिरता का क्रेडिट ले रही हैं! मतलब? वही पार्टियां कांग्रेस या भाजपा के गंठबंधन में रहें तो राष्ट्रीय हितों की पोषक हो जाती हैं और अपने मोरचे की जद्दोजहद में लग जायें तो संकुचित क्षेत्रीय स्वार्थो व पूर्वाग्रहों की प्रवक्ता! सवाल है कि कांग्रेस व भाजपा की स्थिरता ने भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता को स्थिर कर देने के अलावा देश को क्या दिया है? क्या यह स्थिरता प्रभुवर्गो द्वारा हमारे लोकतंत्र को अनुकूलित कर उसकी उपलब्धियों को ऊपर ही ऊपर लोकने ओर स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान अर्जित बराबरी व बंधुत्व जैसे मूल्यों को दरकिनार कर जनसाधारण को असाधारण मुसीबतों के हवाले करने की बाइस नहीं रही है? क्या यह देश को उस युग में नहीं ले जा रही, जिसमें उसका कबाड़ा करनेवाली सरकारें भी इसलिए नहीं गिरतीं कि खास वर्ग चरित्र वाले सांसद समय से पहले जनता के सामने जाने की हिम्मत नहीं रखते? चाहते हैं कि देश घोटालों पर घोटालों का बोझ उठाता रहे, लेकिन चुनाव के बोझ से बचा रहे! यकीनन, तीसरा मोरचा इस सबका संपूर्ण समाधान नहीं है, लेकिन उसकी अस्थिरता क्या इस अर्थ में भली नहीं है कि सरकार जब तक चले, जनाकांक्षाएं पूरी करे वरना एक-दूसरे की कार्बन कॉपी बन गयी कांग्रेस व भाजपा के बंधक से बेजार हो रहे देश को सिर्फ इसलिए तीसरे विकल्प से परहेज क्यों रखना चाहिए कि उसकी सरकार पूरे समय नहीं चलेगी? न चले पर सिर पर सवार तो नहीं रहेगी! वैसे भी उलट-पलट लोकतंत्र का गुण है.

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