Tuesday 28 January 2014

विदेशी सरोकार, भावी सरकार

भारत में इस समय 80 करोड़ मतदाता हैं. जनवरी के पहले हफ्ते में मतदाताओं पर नजर रखने के वास्ते गूगल और चुनाव आयोग के बीच सहमति लगभग होनेवाली थी, लेकिन उसे सुरक्षा कारणों से टाल दिया गया है. फिर भी इसके टलने से हमें यह भ्रम नहीं पाल लेना चाहिए कि इस देश की जनता साइबर जासूसी के खतरे से सुरक्षित हो गयी है. इंटरनेट की सुविधाएं देनेवाली कंपनियों को पता है कि भारत में लगभग 42 प्रतिशत मतदाता ऑनलाइन हैं और उनके संदेशों पर नजर रखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके अंदर क्या चल रहा है और वे किस पार्टी को वोट देना चाहेंगे. गूगल कंपनी तो बल्कि मुफ्त में यह सेवा देने का प्रस्ताव चुनाव आयोग को दे चुकी थी. इस मुफ्त का चंदन घिसने में गूगल को तीस लाख रुपये महीने का खर्च आ रहा था. गूगल ने कहा कि हमारी भी ‘सामाजिक जिम्मेवारी’ बनती है, इसलिए कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी (सीएसआर) के तहत हम भारत सरकार से कोई फीस नहीं लेंगे. गूगल ने लगभग सौ देशों को इसी तरह का प्रस्ताव भेजा है. फिर भी, यदि अमेरिकी खुफिया एजेंसियां, गूगल और याहू से सहयोग ले रही हैं, तो इन इंटरनेट सेवादाता कंपनियों का अर्थशास्त्र समझना और भी आसान हो जाता है. यह कुछ अजीब-सा लगता है कि एक ओर भारत सरकार गूगल से समझौता नहीं करने का अभिनय करती है, दूसरी ओर अक्तूबर, 2013 में गूगल और टीएनएस ने मिल कर इंटरनेट इस्तेमाल करनेवाले हरेक मतदाता की मंशा को समझने के लिए सर्वे किया था और उस आधार पर निष्कर्ष दिया था कि शहरी मतदाता किसे प्रधानमंत्री के रूप में पसंद करते हैं. गूगल इंडिया के प्रबंध निदेशक राजन आनंदन ने चार महीने पहले हुए इस सर्वे के दौरान कहा था कि भारत में 2013 बीतते-बीतते तकरीबन 20 करोड़ ‘इंटरनेट यूजर्स’ हो जायेंगे. इनसे अलग मोबाइल फोन और आइपॉड इस्तेमाल करनेवाले साढ़े अठारह करोड़ मतदाताओं की फौज है. वैसे इन्हें हम शुद्घ रूप से शहरी मतदाता नहीं कह सकते. ‘मोबाइल यूजर’ मतदाता गांव की गलियों से लेकर दिल्ली जैसे बड़े शहरों तक हैं, और इनकी मॉनीटरिंग विदेशी कंपनियां लगातार कर रही हैं. यह ठीक है कि चुनाव आयोग ने अपनी खाल बचाने के लिए गूगल को ऐसी कोई अनुमति नहीं दी है कि वह यहां के मतदाताओं पर निगाह रखे. लेकिन इसकी अनुमति के बगैर इस देश में वह सब कुछ हो रहा है, जिसके बारे में जानकारी लेना अमेरिकी और इजराइली खुफिया एजेंसियां चाह रही हैं. दुनिया भर की सरकारों की जासूसी करने के लिए कुख्यात हो चुकी अमेरिका की ‘नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी’ (एनएसए) से क्या भारत को सुरक्षित किया गया है? इस पर कोई भी पूरी जिम्मेवारी से कुछ भी कहने को तैयार नहीं है. पिछले साल अक्तूबर में खबर आयी कि अमेरिकी खुफिया एजेंसी ‘एनएसए’ का वेब सर्वर ‘एक्स की स्कोर’ भारत में लगाया गया है, और वह भी बिना किसी अनुमति के. वेब सर्वर ‘एक्स की स्कोर’ एक माह में 41 अरब संदेशों का पता करने और उन्हें रिकॉर्ड में रखने की क्षमता रखता है. कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री कार्यालय से बस इतना स्पष्टीकरण आया था कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मोबाइल फोन तक का इस्तेमाल नहीं करते. मगर देश की राजनीति, सिर्फ मनमोहन सिंह के हुजरे तक सीमित नहीं है, बल्कि आज की तारीख में देश की बागडोर संभालनेवाले भावी नेता विदेशी एजेंसियों के लिए कुछ ज्यादा जिज्ञासा के विषय हैं. अमेरिकी खुफिया ‘नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी’ के कॉन्ट्रेक्टर (ठेके पर जासूसी करनेवाले) एडवर्ड स्नोडेन ने वाशिंगटन पोस्ट से एक साक्षात्कार में स्वीकार किया था कि याहू और गूगल के डाटा सेंटर, मेरीलैंड के फोर्टमीडे स्थित ‘एनएसए’ मुख्यालय से समन्वय करते रहे हैं, और अमेरिकी खुफिया एजेंसियों   के पास याहू और गूगल के ‘मेटाडाटा’ उपलब्ध हैं, जिनमें भेजने और प्राप्त करनेवाले इमेल संदेशों का ब्योरा रहता है. आज एडवर्ड स्नोडेन अमेरिकी खुफिया एजेंसियों की बखिया उधेड़नेवाले ‘विसल ब्लोवर’ हो गये हैं.
पिछले 25 जनवरी को दावोस में विश्व आर्थिक फोरम की बैठक का समापन हुआ है. इस बार वहां हुई बहस, भारत की अर्थव्यवस्था से अधिक राजनीति पर केंद्रित थी. इससे हमें समझ लेना चाहिए कि विदेशी शक्तियां भारत में होनेवाले आम चुनाव के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी हासिल करना चाहती हैं. पेट्रोलियम, इंफ्रास्ट्रक्चर, हेल्थकेयर से लेकर हथियार सप्लाई तक के लिए भारत यदि एक बड़ा बाजार बनने जा रहा है, तो बाहरी शक्तियां यह चाह रही हैं कि इस देश में एक टिकाऊ और उनके मन मुताबिक चलनेवाली सरकार हो. देश को चारों दिशाओं से जोड़नेवाले राजमार्ग, ‘नार्थ-साउथ, इस्ट-वेस्ट कॉरीडोर’ को इसलिए नहीं बनाया जा रहा है कि खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को रोका जाये. दावोस बैठक में वित्त मंत्री पी चिदंबरम एक अच्छे वकील की तरह बहस कर आये कि आपकी पूंजी और हमारे देश का भविष्य, एक युवा प्रधानमंत्री के हाथों सुरक्षित रहेगा. लेकिन उसका मार्ग प्रशस्त करने के लिए ‘धरना एंड अनशन स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स’ के ‘कुलपति’ अरविंद केजरीवाल का इस्तेमाल सत्तारूढ़ दल के नेता क्यों कर रहे हैं, यह बात भी दावोस में छिपी नहीं रही. इस बात को दुनिया भर की खुफिया बिरादरी स्वीकार करती है कि सीआइए ने कई देशों की सरकारों का खेल, चुनाव से पहले बिगाड़ा है. चिली, ईरान, ग्वाटेमाला, ब्राजील, ग्रीस, कांगो, भूटान जैसे बहुतेरे देश हैं, जहां की सरकारें व्हाइट हाउस की इच्छा के विपरीत जाते ही नप गयीं. न्यूजीलैंड में ‘एशलॉन’ साइबर जासूसी से सरकार हिल गयी थी, और 2006 में डॉन ब्राश को इस्तीफा देना पड़ा था. देवयानी खोबरागड़े विवाद अब घीरे-धीरे ठंडा पड़ गया है, लेकिन एक संदेश तो व्हाइट हाउस को गया था कि संप्रग-2 सरकार अमेरिका की कठपुतली नहीं बन सकती. क्या इसका खमियाजा किसी न किसी रूप में मनमोहन सिंह को भुगतना पड़ सकता है?

Sunday 26 January 2014

यह तो राजनीतिक फैशन की टोपी है

स्वर्ग में बैठे गांधी बाबा इन दिनों यह देख कर खुश हो रहे होंगे कि चलो कुछ और नहीं, तो देशवासियों ने टोपी के जरिए ही हमें याद तो रखा  है. पर बापू इस भुलावे में नहीं रहियेगा. यह टोपी आपकी टोपी (गांधी टोपी) नहीं है. यह तो ‘आप’ से लेकर ‘नमो’ व ‘सपा’ की टोपी है. इस टोपी के मूल में न तो देशभक्ति है, न ही आजादी को अक्षुण्ण बनाये रखने का संकल्प.
यह तो राजनीतिक फैशन की टोपी है. यह टोपी उसी मुहावरे की तरह है कि ‘हमने तो उसको टोपी पहना दी.’ गांधी टोपी देश की शान थी और गांधीवादियों की पहचान भी. गांधी टोपीधारी का एक अलग ही सम्मान था, क्योंकि लोगों को यह भरोसा था कि यह बापू का अनुयायी है इसलिए गलत नहीं करेगा. देश व समाज के लिए सोचेगा और ऐसा होता भी था. बाद में यह गांधी टोपी कांग्रेस  की बैठकों में परंपरागत ड्रेस कोड के रूप में इस्तेमाल होने लगी. इसके बाद जमाना आया पट्टे का. भाजपा और कांग्रेस के लोग चुनाव चिह्न् वाले पट्टे का इस्तेमाल करने लगे. नेता व कार्यकर्ता इसे अंगवस्त्र की तरह इस्तेमाल करते हैं. आज भी गांधी टोपी का सम्मान अपने देश में है. जब ‘आप’ अपनी बुलंदी पर पहुंची, तो अचानक देश में टोपी की अहमियत बढ़ गयी. पिछले दिनों भाजपा की दिल्ली में हुई बैठक में कई लोग भगवा टोपी पहन कर आये जिस पर नमो की जयजयकार थी. इसके पहले सपा ने अपने कार्यकर्ताओं से कहा कि पार्टी के कार्यक्रमों में पार्टी की पहचान वाली लाल टोपी पहन कर आयें. स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान गांधी टोपी की अहमियत थी. वह राष्ट्र-प्रेम का प्रतीक थी. आज टोपी राजनीति का पहला पाठ हो गयी है. दाद देनी होगी टोपीवालों को. वह टोपी अपने लिए पहन रहे हैं या देश की जनता को टोपी पहनाना चाहते हैं. टोपी में गांधी बाबा की तरह देशप्रेम का कोई संकल्प तो छिपा नहीं दिख रहा है. संकल्प है तो बस टोपी के सहारे सत्ता तक पहुंचने का. लेकिन इतना तो तय है कि चुनाव सामग्री बेचनेवाले कारोबारियों की आम चुनाव के दौरान चांदी रहेगी.

Tuesday 21 January 2014

देश एक बार फिर लंबी निराशा के गर्त में

दिल्ली और देश में फर्क है. यदि आम आदमी पार्टी दिल्ली की सफलता को देश के स्तर पर दोहराना चाहती है, तो केवल भ्रष्टाचार की बात करने से काम नहीं चलेगा. देश की जनता के सामने बहुत सारे सवाल हैं. जैसे गरीबी कैसे दूर होगी? मौजूदा ‘रोजगारहीन’ विकास चलता रहा, तो बेरोजगारी दूर होगी या यह और बढ़ेगी? विस्थापन का सिलसिला कैसे रुकेगा? गांव कैसे बचेगा? पर्यावरण कैसे बचेगा? केवल जनलोकपाल बन जाने या ईमानदार लोग चुन कर आ जाने से ये सभी समस्याएं हल हो जायेंगी, ऐसा मानना नितांत भोलापन है और इतिहास के अनुभव के खिलाफ है. व्यक्तिगत रूप से ईमानदार तो मनमोहन सिंह भी हैं, मोरारजी देसाई भी थे और जवाहरलाल नेहरू भी थे, लेकिन उनकी गलत नीतियों, विकास की गलत सोच और आर्थिक-सामाजिक ढांचों को बदलने की अनिच्छा ने देश को मौजूदा हालत में पहुंचा दिया है. यदि इन अनुभवों से सबक नहीं लिया, तो कहीं इतिहास फिर अपने को दोहराने न लगे. 2014 में एक बार फिर 1977 जैसा माहौल बन रहा है. लेकिन यदि हम 1977 से आगे न बढ़े और हमने पुरानी कमियों को दुरुस्त नहीं किया, तो खतरा इस बात का है कि युवाओं की यह ऊर्जा और मेहनत बेकार चली जायेगी और देश एक बार फिर लंबी निराशा के गर्त में चला जायेगा.

Monday 20 January 2014

भैया, जलनेवाले जलते ही रहेंगे

भैयाजी नमस्ते, क्या डपटा है आपने मीडिया को! सरकार का माल भी खायेंगे और उस पर भौंकेंगे भी? नमकहराम कहीं के! भैया, जलनेवाले जलते ही रहेंगे, आप तो बस ‘उत्तम प्रदेश’ में स्वर्ग उतारने में लगे रहो. सैफई की तरह हर गांव को ‘इंदरसभा’ बना दो. जिन्हें मुजफ्फरनगर के दंगा पीड़ितों का दर्द ज्यादा कोंच रहा है, वे अपने घर से रजाई-कंबल भिजवा दें. ई सब छोटा-छोटा बात पर आप कहां तक ध्यान देंगे. वैसे भी, मरनेवालों को कौन बचा सकता है? बाबा तुलसीदास भी लिख गये हैं- हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ. चकवड़ साग छाप समाजवाद आप चकवड़ छाप नेताओं के लिए ही छोड़ दें. मार्क्‍स, लेनिन, माओ, लोहिया, जेपी, नेहरू के भक्त बहुत पड़े हैं, आटा-दाल और नून, तेल, लकड़ी की बात करने के लिए. आप विदेश से पढ़-लिख कर आये हैं, हमें पूरा यकीन है कि आप यूपी को भी देसी से विलायती बना देंगे (भैया के बाबूजी, अब तो यूपी को ‘ऊपी’ कहना बंद कीजिए). यह मिशन जल्दी से जल्दी पूरा हो इसलिए आपने कुछ मंत्री-विधायकों को शैक्षणिक टूर पर विदेश भेजा है. ऊ लोग को बोलियेगा कि विदेश में लगे हाथ अगले सैफई महोत्सव के लिए कुछ जोरदार आइटम भी पसंद कर लेंगे. भैया, देसी ठुमका बहुत देख लिया, अगली बार ‘बेली डांस’ जरूर होना चाहिए. रामपुर वाले खान साहब से कहियेगा, तुर्की गये हैं तो देखेंगे जरूर और अगले साल के लिए सट्टा भी बांध लेंगे. सच्च समाजवाद तो आप ही ला रहे हैं. गांव का लड़का-बच्च भी अब टैबलेट-लैपटाप चला रहा है. सुनते हैं कि इंटरनेट पर सब ट्रिपुल एक्स फिलिम देखता है, जो ‘मलेट्टरी’ वाले चच्च के ट्रिपुल एक्स रम से भी जोर नशा चढ़ाता है. गांववालों के नसीब में ई सब कहां था? बच्च लोग पढ़ने-लिखने के झंझट से फारिग है और मास्टर साहब पढ़ाने के, मतलब डिग्री से है जो मिल ही जानी है. आपने ‘भयमुक्त’ इम्तिहान का इंतजाम जो करा दिया है. बस एक काम और कीजिए, नौकरी में भी कंपटीशन खत्म करा दीजिए, जो आपके समाजवाद का साथ दे उसे ही भरती करा दीजिए. अपना आदमी रहेगा, तभी न सरकार के साथ पूरा कोऑपरेट करेगा. भैया जी, आपने इस कहावत को भी सही साबित किया है कि ‘मुर्गा नहीं बोलेगा तो क्या सवेरा नहीं होगा?’ आपके अमर चाचा समझते थे कि वह नहीं रहेंगे, तो आप सलमान-माधुरी को नचा ही नहीं पायेंगे. ऐसा थप्पड़ लगा है उनके गाल पे कि का कहें, बस मजा आ गया! भैया, आपको एक चुनावी वादा याद दिलाना चाह रहे हैं. आपने कहा था कि माया सरकार ने ‘शाम की दवाई’ भी महंगी कर दी है, दिन भर कामकाज से थके कार्यकर्ता शाम को थकान भी नहीं उतार पा रहे हैं. ई वाला वादा जल्दी पूरा कीजिए, कम से कम दिल्लीवाला भाव तो करवा ही दीजिए. बड़ी ठंड पड़ रही है.       

Sunday 19 January 2014

बिना अंजाम के राह-ए-मुहब्बत


clip

प्रभु ने कहा पड़ोसी से प्रेम करो. नजदीकियां दूरियां बन जाती हैं, अजब इत्तेफाक है. आस-पड़ोस से आस नहीं रहती. रिश्तों में मिठास नहीं रहती. पर चारदीवारी के आर-पार भी हो जाते हैं नैना चार. नियंत्रण रेखा है, पर कुछ लोगों का स्वयं पर नियंत्रण नहीं है. जरूरी नहीं कि यह आफत को आमंत्रण ही हो. लेकिन नियंत्रण के बाहर मंत्री हो जायें, तो मंत्रणा जरूरी है. भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध बनते-बिगड़ते रहते हैं. दोनों देशों की हुकूमतें भले एक दूसरे को दांत दिखाएं, पर दोनों देशों की अवाम तो मुहब्बत का पैगाम एक दूसरे को भेजती रहती है. दिल कबूतर है, एलओसी के ऊपर उड़ता है. ऊपर वाले की मेहर है, तो अमन की आशा बनी रहती है. शोएब और सानिया के मामले में वहां का अमन और यहां की आशा. इस बार अमन यहां का है और आशा वहां की. शशि थरूर सिर्फ सत्तावन साल के युवा हैं, हैंडसम हैं, मंत्री हैं. ऑक्सफोर्ड वाली अंगरेजी बोलते हैं, तो शोखियों में शराब घोलते हैं. मेहर तरार महज पैंतालिस की हैं, लिखती हैं और खुदा के खैर से बहुत खूबसूरत दिखती हैं. थरूर शादीशुदा हैं, यह ख्याल उनके जेहन से जुदा हुआ भी तो कैसे! तीन बार शादी कर चुका आदमी चौथी की सोचता है? एक बार शादी कर चुका आदमी यह सोच-सोच के बचे बाल नोंचता है. सुनंदा पुष्कर के पति को, भारत के एक माननीय मंत्री को पाकिस्तान की एक पत्रकार से, मेहर तरार के दिल-ए-बेकरार से बीबीएम वार्ता करने के पहले इतना तो ख्याल आना चाहिए था कि दाग लगी तो चुनरिया खुल्ले में सूखेगी. ट्विटर का पक्षी अंगरेजी बीट करेगा. 140 अक्षरों में छवि का वो क्षर होगा कि निरक्षर लोगों से रीस होगी. सालों सालेगी, ऐसी टीस होगी. पत्नी की खीस पर्सनल है, पर मामला तो नेशनल है.
भारत-पाकिस्तान के बीच मीठे संबंधों में कश्मीर आड़े आता है. भारत-पाकिस्तान के बीच इस मीठे संबंध को कश्मीर की पुष्कर ने आड़े हाथों ले लिया. सुनंदा जब राज खोलने पे उतरीं, तो आगे-पीछे का ख्याल नहीं रखा. देश को आज पता चला कि आइपीएल की कोच्चि टीम के मामले में थरूर गलत नहीं फंसे थे. सुनंदा के मुताबिक उन्होंने थरूर के अपराध को अपने सर ले लिया था. अपराध, जिसे वह स्वेट इक्विटी बता रहे थे, वह हसीना का पसीना भर नहीं था. कुछ हसीन खताएं भी हुई थीं, कुछ अपराध भी हुए थे. बीती बातों में ना भी जाएं, तो भी इसे निजी कह कर कालीन के नीचे बुहारा नहीं जा सकता. थरूर से एक्सटर्नल अफेयर मंत्रलय भले छिना पर थोड़े अरसे के बाद मानव संसाधन मंत्रलय मिल गया. यहां भी एक्सटर्नल अफेअर? वह भी दबा के. छुपा के. सात फेरों की शपथ भुला के. फिर कैसे यकीन करें कि पद और गोपनीयता की शपथ को भुला नहीं दिया होगा! पाकिस्तान की एक महिला से भारत के राजनयिकों/राजनीतिकों के संबंध जटिल होते हैं, गहन नहीं. अंतरंग तो हरगिज नहीं. नीयत में गोपनीयता होती, तो पद छोड़ देते और वाघा की ओर दौड़ लेते. मिनिस्टर, सिनिस्टर में एक ही चल सकता है. दो लोगों के बीच का मामला निजी होता है. तीन लोगों की तो भीड़ होती है. यहां मामला सवा सौ करोड़ लोगों के भरोसे के भसम होने का भी है, जिन्हें गोपनीयता की रस्मी कसम पर विश्वास है.यह एक सामान्य पति, पत्नी और वो का कलह नहीं है. थरूर कह रहे हैं पत्नी पुष्कर की तबीयत नासाज है. उनकी निजता को अभी नुकसान नहीं पहुंचाया जाए. मरीज का इलाज जरूरी है, पर ऐसे सीरियस मरीज-ए-मुहब्बत के इलाज में भी देरी अच्छी नहीं. थरूर को यह तो जरूर बताना चाहिए कि मंत्री के रूप में जो बातें उनकी जानकारी में आयीं या लायी गयीं, उनकी गोपनीयता अक्षुण्ण है. उनकी निजता देशहित से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है. तिरुवनंतपुरम से सांसद थरूर अपने क्षेत्र में बहुत काम करते हैं. जितना करते हैं, सब ट्विटर पर प्रचारित करते हैं. आप उनकी प्रशंसा कर दें तो उसे भी प्रसारित करते हैं. उनके टाइमलाइन से वाकिफ लोग चकित रहते हैं कि एक मंत्री इतना काम कैसे करता है? करता है तो उसे प्रचारित करने का वक्त कैसे निकाल लेता है? न सिर्फ वह ढेर सारा काम निपटाते हैं, लिखते हैं, पढ़ते हैं, बल्कि घर के इतर महिलामित्रों के लिए भी वक्त निकाल पाते हैं. इश्क ने गालिब को निकम्मा कर दिया था, थरूर तो आदमी हैं काम के. कैसे निकल पड़े राह-ए-मुहब्बत पर, बिना फिक्र-ए-अंजाम के. पतंगे की फितरत वाले आग से खेलते हैं. खामोश देहलवी माफ करें, पर इस रंज पे थोड़ा तंज तो हो- आग को खेल पतंगों ने समझ रखा है, सबको अंजाम का डर हो ये जरूरी तो नहीं; सब की साकी पे नजर हो ये जरूरी है मगर, सब पे पाकी की मेहर हो ये थरूरी तो नहीं!

Tuesday 14 January 2014

तोल-मोल कर बोलना है जरूरी

राजनीतिज्ञों को संवेदनशील मसलों पर कोई भी बयान देने से पहले उसके ध्वन्यार्थो के प्रति अतिरिक्त सचेत होना चाहिए. आंदोलन में रैडिकल विचारों का स्वागत किया जाता है, जबकि राजनीति को मध्यमार्गी होना पड़ता है.आंदोलन में अक्सर सत्य सिर्फ एक होता है, जबकि राजनीति और शासन में सत्य के अनेक रूप होते हैं. कहते भी हैं, मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना यानी अलग-अलग लोगों की अलग-अलग राय होती है. राजनीति का काम इन अलग-अलग रायों, अलग-अलग सत्यों के बीच से एक बीच का रास्ता निकालना होता है. यहां रैडिकल विचारों के लिए ज्यादा जगह नहीं होती है. लेकिन, ऐसा लगता है कि आम आदमी पार्टी के नेता प्रशांत भूषण, जो सुप्रीम कोर्ट के जाने-माने वकील भी हैं, राजनीति के इस मूलभूत सिद्धांत से अनभिज्ञ हैं. पहले उन्होंने कश्मीर में सेना की तैनाती के मसले पर जनमत सर्वेक्षण कराने संबंधी अपने बयान से बड़ा विवाद खड़ा कर दिया और अब वे देश के नक्सल प्रभावित इलाकों में अर्धसैनिक बलों की तैनाती के सवाल पर वहां की जनता से रायशुमारी कराना चाहते हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि जनता की इच्छा का सम्मान करना, निर्णयों में जनता को भागीदार बनाना, लोकतंत्र की जीवंतता का आधार होता है. मगर, यहीं यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि हमारे संविधान के भीतर आपात उपबंधों का भी प्रावधान किया गया है, जो अपवाद परिस्थितियों में ‘राज्य’ को हस्तक्षेप करने की इजाजत देते हैं. कश्मीर या नक्सल प्रभावित इलाके में क्रमश: सेना और अर्धसैनिक बलों की तैनाती को अपवाद स्थितियों में किये गये राज्य के ऐसे ही हस्तक्षेप के रूप में देखा जा सकता है. यह सही है कि यह हस्तक्षेप सतत और सदैव जारी नहीं रह सकता. न यह अपने आप में समस्या का समाधान ही है. इसके लिए इन इलाकों में आतंकी और नक्सली गतिविधियों पर नियंत्रण और स्थानीय निवासियों में सरकार के प्रति विश्वास बहाल करने, उन्हें मुख्यधारा में शामिल किये जाने की जरूरत है. यह एक दिन का काम नहीं है. निश्चित तौर पर यहां इस तथ्य पर भी विचार करना होगा कि सशस्त्र बलों की उपस्थिति इस लक्ष्य को पाने में सरकार की मदद कर भी रही है या नहीं! यह एक जटिल मसला है और इसका कोई रैडिकल हल नहीं हो सकता.

Sunday 12 January 2014

अखिलेश ने फेर दिया पानी

उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बने 17 महीने गुजर गए। चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश के युवाओं ने अखिलेश से जो उम्मीदे लगाई थी। अखिलेश ने उन पर पानी फेर दिया। बेशक अखिलेश जी खुशमिजाज हैं। व्यवहार कुशल हैं। कोई दुराग्रह नहीं रखते। इन सब के बाद भी वह अच्छे शासक नहीं हैं। 17 महीने के कार्यकाल में 4731 हत्या की घटनाएं घटीं। 2921 अपहरण के मामले हुए। 2614 बलात्कार की घटनाएं घटीं। डकैती-चोरी की कितनी घटनाएं घटीं, इसकी तो गणना कर पाना ही बेहद मुश्किल है। पुलिस अधिकारियों पर हमले के 46 मामले हुए। एक डिपटी एसपी जियाउल हक समेत पुलिस के कई अधिकारियों की हत्या हुई। 107 साम्प्रदायिक दंगा होने की घटनाएं घटीं। फिर भी सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव को यह सरकार अच्छी लग रही है। मुलायम सिंह यादव वही हैं जो खुद को डा. राम मनोहर लोहिया की वारिश बताना चाह रहे हैं और सैफई के पंडाल में बैठकर नृत्यांगनाओं के नृत्य देख रहे हैं। एक ऐसा नेता जिसके मन में देश का प्रधानमंत्री बनने की ललक हो, गरीबों की सेवा करने का जज्बा हो, उसके पास इतना समय कहां कि पंडाल में बैठक नौटंकी देखे। इस महानायका को मजफ्फरनगर के दंगा पीडि़तों के दर्द का एहसास नहीं हुआ। उत्तराखंड त्रासदी के पीडि़तों की याद नहीं आई। असम के दंगा पीडि़तों का दर्द नहीं महसूस हुआ। मथुरा के बीर जवान की पाकिस्तान सैनिकों द्वारा काटे गए सिर की घटना जेहन में नही ंकौंधी। माघ मेले में भगदड़ से मरने वालों की याद नहीं आयी। सरकार के मंत्री और विधायक लगातार सत्ता का चीरहरण कर रहे हैं। उन पर अंकुश लगाने का कोई उपाय नहीं किया। गरीब, मजलूम के बेटे राजू पाल के हत्यारे अतीक अहमद को पार्टी में शामिल कर सुल्तानपुर से लोकसभा का टिकट दे दिया। नेताजी को पाल समाज के लोगों का दर्द भूल गया। एनआरएचएम घोटाले के जनक, गरीबों का खून चूसने वाले बाबू सिंह कुशवाहा की पत्नी का बुलाकर लोकसभा का टिकट दे दिया। नेताजी को भष्टाचारियों के विरोध की बात याद नहीं आयी। ऐसे में नेताजी की बातों  पर प्रदेश के लोग कैसे विश्वास करें।
 

Saturday 11 January 2014

केजरीवाल का जनता दर्शन

मित्रों 11 जनवरी 2014 को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के जनता दर्शन में उमड़ी भीड़ और उसके बाद मुख्यमंत्री श्री केजरीवाल द्वारा किए गए प्रदर्शन से मुझे एक कहानी याद आ गयी। इस कहानी को जब मैं इंटरमीडिएट में पढ़ता था तो मेरे नाना श्री ओंकार नाथ मिश्र जी सुनाया करते थे। उस समय मैं उस कहानी को महज आनंद लेने का माध्यम समझता था, पर आज की घटना को देख और सुनकर मुझे उस कहानी की पूरी स्क्रप्टि समझ में आ गयी। मुझे लगा कि वह कहानी नहीं बल्कि समाज में घटने वाली घटनाओं का एक संकेत था, जिससे शिक्षा प्राप्त करने की जरूरत थी। अब आपको ज्यादा इंतजार नहीं कराऊंगा, सीधे उस कहानी पर चलता हूं। मेरे नाना जी बताया करते थे कि एक बार जंगल के सभी पशु पक्षियों ने मिलकर बैठक की और जंगल के राजा शेर से नाराजगी जतायी। बैठक में पशु-पक्षियों ने तय किया कि शेर को राजा पद से हटा दिया जाए। उनके स्थान पर किसी दूसरे को राजा बनाया जाए। पशु-पक्षियों के इस विरोध पर शेर ने पुन: राजा का चुनाव कराने के लिए हामी भर दी। चुनाव हुआ। चुनाव में शेर के सामने एक बंदर चुनाव मैदान में उतरा और वह चुनाव जीत गया। चुनाव जीतने के बाद कुछ दिन तो सब ठीक-ठाक चलता रहा। एक दिन शेर ने बकरी के एक बच्चे को पकड़ लिया और एक पेड़ के नीचे जा बैठा। इसकी जानकारी होने पर जंगल के सभी पशु-पक्षी बंदर राजा के पास गये और समस्या बताई। बंदर राजा तुरंत पशु-पक्षियों के साथ मौके पर पहुंचे। पशु-पक्षियों को सान्त्वना प्रदान करने के लिए बंदर राजा उस पेड़ पर चढ़ गए, जिसके नीचे शेर बकरी के बच्चे को लेकर बैठा था। काफी देर तक बंदर राजा पेड़ के एक डाल से दूसारी डाल पर कूदते रहे। जब काफी देर हुई तो पशु-पक्षियों ने बंदर से कुछ उपाय करने को कहा तो बंदर ने जवाब दिया कि मेरे प्रयास में कोई कमी हो तो उसे बताइए। बकरी का बच्चा शेर नहीं छोड़ रहा है तो मैं क्या करुं। ठीक यही हाल आज केजरीवाल के जनता दर्शन कार्यक्रम में हुआ। इसे देखकर इतनी हंसी आई कि आप से उसे शेयर नहीं कर सकता। मित्रों मेरी कहानी से अगर आप सब को किसी प्रकार का ठेस लगे तो मैं क्षमा प्रार्थी हूं।

Thursday 9 January 2014

.. तो वाकई में बदल जाएगी तस्वीर

नौकरशाह से राजनीति में आए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरिविन्द केजरीवाल ने सदगी का तराना क्या छेड़ा, सारा देश उनका दीवाना हो चला। सच में अगर यह मिशन कारगर रहा तो देश की तस्वीर वाकई में बदल जाएगी। नेताओं की सुरक्षा और तामझाम के नाम पर होने वाला अरबों रुपए का सरकारी व्यय रुक जाएगा। इस धनराशि का उपयोग देश के विकास में किया जा सकेगा। बिजली, चिकित्सा, शिक्षा और रोजगार जैसे मुद्दों पर व्यापक काम किए जा सकेंगे। हम आपका ध्यानाकर्षण पिछले एक पखवारे की गतिविधियों की ओर करना चाह रहे हैं। 28 दिसंबर 2013 को अरविन्द केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इसी दौरान उन्होंने दिल्ली से लालबत्ती कल्चर को खत्म करने के लिए किसी भी मंत्री (खुद भी शामिल) को लालबत्ती का इस्तेमाल न करने को कहा। इसके बाद देश के कोने-कोने से लालबत्ती का इस्तेमाल न करने वालों की तादात बढ़ने लगी। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रमेश निशंक पोखरियाल ने लालबत्ती लगी गाड़ी पर न चलने की घोषणा कर दी। छत्तीसगढ़ के नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंह बाबा ने लालबत्ती लगी गाड़ी पर चलने से इनकार कर दिया। अरविन्द केजरीवाल ने सुरक्षा लेने से इनकार किया तो इसका भी असर देखने को मिला। राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अपनी सुरक्षा घटा दी। इतना ही नहीं उन्होंने अपने सभी मंत्रियों को सख्त निर्देश दिया है कि कोई भी मंत्री अपने साथ पुलिस स्कोर्ट लेकर न चले। राजस्थान में सरकारी विभागों की कोई बैठक या फिर सेमिनार पांच सितारा होटलों में नहीं होगी। समीक्षा बैठकें होटलों में नहीं होंगेी। राजस्थान उच्च न्यायालय के न्यायाधीश  अमिताभ राय ने भी आम आदमी की तरह कोर्ट जाने का निर्णय लिया है। अब उनकी गाड़ी के आगे पीछे कोई पुलिस स्कोर्ट नहीं चलेगी। जरा आप सोंचे, देश के नेताओं, वीआईपी परिवारों, न्यायिक और प्रशासनिक अधिकारिायों की सुरक्षा में लगे पुलिस के जवानों पर कितना रुपया खर्च किया जा रहा है। अगर इस पर विराम लग जाए तो देश का अरबों रुपया बच जाएगा, जिसका इस्तेमाल देश के विकास कार्यों में किया जा सकेगा। देश के हर राज्यों के मुख्यमंत्री अगर सुरक्षा कम कर दें, अपने यहां के मंत्रियों को पुलिस स्कोर्ट न दें तो कितनी धनराशि बचेगी, खुद आप सोच सकते हैं। इसका दूसरा असर वीआईपी कल्चर खत्म होने के रुप में दिखेगा। अगर हम अपने अतीत पर नजर डालें तो देश को स्वाधीनता की राह दिखाने वाले महात्मा गांधी ने भी सादगी को ही अपना हथियार बनाया था। उनके पास कोई हथियार नहीं था, कोई सुरक्षा व्यवस्था नहीं थी। बावजूद इसके भी अपने बूटों की धमक पर भारत को गुलाम बनाने वाले अग्रेंज उनसे डरा करते थो। उनकी सादगी से अग्रेंजी हुकूम भयभीत रहा करती थी। आज कुछ ऐसा माहौल फिर बनने लगा है। हम यह नहीं कह सकते कि आने वाले दिनों में इसका कितना असर पड़ेगा और कौन, कितने समय तक अपनी बातों पर खरा उतर सकेगा? पर इतना जरूर है कि अगर एक कदम भी देश के नेता इस दिशा में आगे बढ़े तो वाकई में देश की तस्वीर बदल जाएगी।
-----------------------------------------------------
-छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने सबसे पहले हेल्पलाइन नंबर जारी किया। इस नंबर पर भ्रष्टाचार संबंधी शिकायत की जा सकेगी।
-केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने अरविन्द केजरीवाल के निर्णयों की सराहना की और कांग्रेसियों  को इससे सीख लेने को कहा।
-पूर्व मुख्यमंत्रियों की गाड़ी से लालबत्ती हटाए जाने की मांग उठी।
-संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भाजपा नेताओं को आम आदमी पार्टी की नीतियों से सीख लेने की नसीहत दी।
-देश के सभी राज्यों से भ्रष्टाचार के विरोध में आवास मुखर होने लगी।
 

Sunday 5 January 2014

युवाशक्ति का उद्घोष

कुछ वाक्य आंखों में आग की लपट बन कर उतरते हैं. आप उनसे न तो अपनी आंख चुरा सकते हैं, न ही हटा सकते हैं. आइये, ऐसे ही दो वाक्यों के अग्निपथ से गुजरने की हिम्मत करते हैं. पहला वाक्य है-’’क्रूरता के सामने जा डटो’ यही जीवन भर का सबक है- जो कुछ भयानक है, साहस के साथ उसका सामना करो..’’ और,  दूसरा वाक्य है- ‘चीजें अच्छाई के पक्ष में खुद नहीं बदलतीं, वे बदलती हैं जब आगे बढ़ कर उनमें अच्छाई के लिए बदलाव किया जाता है..’आज से तकरीबन सवा सौ साल पहले देश नये और पुराने के संधिस्थल पर खड़ा पसोपेश में पड़ा था कि किस डगर से जाऊं- ‘काबा मेरे आगे है कलीसा मेरे पीछे.’ पसोपेश को तोड़ कर जिन वाक्यों ने आगे जाने का दिशा-निर्देश किया उन्हीं में शुमार होते हैं ये दो वाक्य. इन वाक्यों में एक युवा संन्यासी की प्राण-ऊर्जा का संचार है. देश और दुनिया उसे विवेकानंद कहती है. नये साल का पहला महीना जब अपना पखवाड़ा पार कर रहा होगा तो यह देश हर बार की तरह विवेकानंद के जन्मदिन को युवा-दिवस के रूप में मनायेगा लेकिन इस बार का युवा-दिवस हर बार की भांति सिर्फ संकल्पों का साक्षी बनने भर को नहीं आ रहा, इस बार का युवा-दिवस देश की युवाशक्ति के उद्घोष का प्रमाण बन कर आ रहा है. प्रमाण इस बात का कि इस देश का युवा क्रूरता के आगे डट कर खड़ा है और अभय होकर चीजों को अच्छाई के पक्ष में बदलने के लिए जोर लगा रहा है. देश की युवाशक्ति के उद्घोष की बात विवेकानंद के ही बहाने क्यों, किसी और का नाम क्यों नहीं? इसलिए कि इस देश में आमूल परिवर्तन करने की बात कहने और करने की कोशिश करने वाले बस दो ही हुए. कभी मध्यकाल की अंधेरी गुफाओं में फंसे इस देश के सामने कबीर ने आह्वान किया था-’जो घर जारे आपना चले हमारे साथ!’ और कबीर के बहुत दिनों बाद ‘जीर्ण-शीर्ण पुरातन’ को बचाने के मोह में पड़े इस देश में ‘समूल नाश- तब महानिर्माण’ की आवाज सुनायी पड़ी अकेले विवेकानंद की वाणी में. सुधारकों से भरे उस युग में एक विवेकानंद ही हुए, जो आत्मविश्वास से गरजती वाणी में कह सकते थे-’इन सुधारकों से कह दो, मैं सुधार में विश्वास नहीं करता, मैं आमूल परिवर्तन में विश्वास करता हूं.’ क्या आपको नहीं लगता कि देश आज आमूल बदलाव की ऐसी ही गर्जना से गूंज रहा है?  क्या आपको नहीं लगता कि देश की युवाशक्ति इस गर्जना के साथ बदलाव का महासमुद्र बन कर हर चीज पर छा जाने को तैयार है? साज-सामान और स्वाद-सिंगार बेचने वाली कंपनियां बीते दस सालों के भीतर अपने मोटे मुनाफे के बीच आश्वस्त हो चली थीं कि इस देश की युवाशक्ति को उसने अपने शॉपिंग कॉम्पलेक्स, मॉल, टेबलेट, मोबाइल और मोटरबाइक के मायावी जाल में बांध कर साध लिया है. इन कंपनियों ने तो बदले हुए देश का एक नामकरण भी कर दिया था- यंगिस्तान.
कंपनियों को विश्वास था कि कामनाओं को पिरो कर उन्होंने लालच का जो पुराण तैयार किया है, इस देश की युवा पीढ़ी उसका पाठ करने में पारंगत हो चली है और इस युवापीढ़ी का जीवनमंत्र हो चला है- ‘करो ज्यादा का इरादा.’ कंपनियों ने इस देश की देह को देखा, पर देश का मन नहीं बांच पायीं. इस देश के युवामन की पहचान तो कंपनियों की पीआर एजेंसियों से कहीं ज्यादा मुंबइया मसाला फिल्मों को है. हाल-हाल तक (गोविंदा के जमाने तक) मुंबइया फिल्म इंडस्ट्री ने ऐसी फिल्म-कथाओं को गढ़ना जारी रखा था, जिसमें एक ही किरदार के भीतर दो संभावनाएं होती थीं- एक अच्छी और एक बुरी. फिल्में दिखाती थीं कि एक ही मां की दो संतान, नियति के फेर से, किसी मेले की भीड़ में अलग-अलग हो जाते थे. एक चोर बनता था तो एक सिपाही, एक गांव का भोला-भाला गवैया बनता था, दूसरा शहर का चतुर सुजान, एक गीता बनती थी, तो दूसरी सीता. और, फिर क्लाइमेक्स के दृश्य में खलनायक के रूप में सामने खड़ी भीषण क्रूरता (या फिर मयार्दा का संकट) का खात्मा तभी हो पाता था जब दोनों एक-दूसरे के साङो आत्म (माता-पिता) को पहचानकर एक साथ मिल कर लड़ाई लड़ते थे. देश की युवा पीढ़ी का यह दोहरा मानस कंपनियां न पहचान पायीं और अब कंपनियां देख रही हैं कि लालच-पुराण का पाठ करने में पारंगत हो चली जिस युवा पीढ़ी को उन्होंने सिखाया था ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ वही युवा पीढ़ी अचानक ही बदले हुए तेवर में एक नयी जबान बोलने लगी है. उसका मंत्र है- ‘जिद करो और दुनिया बदलो.’ कंपनियों का संसार हैरत में है कि जिसे असंयमी उपभोक्ता की मूर्ति के रूप में गढ़ा था उसके भीतर प्राणसंचार हुआ तो वह एक जिम्मेदार नागरिक की जुबान बोल रहा है. उदारीकरण की राह पर सरपट चल पड़े इस देश की चालू राजनीति और इस राजनीति से गलबहियां मिलाती कंपनियों को लगता था- देश की जनांकिकी के आंकड़े उनके पक्ष में हैं. योजनाकार पूरे आत्मविश्वास से बताते थे कि भारत नौजवानों का देश है, कि इस देश की सवा अरब आबादी में 35 साल से कम उम्र के लोगों की संख्या 51 प्रतिशत से भी ज्यादा है. और इसमें जितनी महिलाएं( 48.2 फीसदी) हैं उतने ही पुरुष (51.8 प्रतिशत. ज्यादातर (69.9 प्रतिशत) गांवों में रहते हैं, तो एक बड़ी संख्या (30.1 प्रतिशत) शहरों में. और, गांव तथा शहर की युवाशक्ति को साझी शक्ति में ढालने का काम कर रहा है महाशक्तिशाली मीडिया. नये आंकड़े कहते हैं- तकरीबन हर दो गंवई घर में से एक में मोबाइल फोन का इस्तेमाल होता है तो शहरों में तीन घरों में से दो में मोबाइल सेट्स मौजूद हैं.
आंकड़े ये भी कहते हैं कि आज हर तीन ग्रामीण घरों पर एक में कोई न कोई टेलीविजन सेट लगा है जबकि एक दशक पहले यह संख्या पांच में एक घर की हुआ करती थी. इसी तरह देश के शहरी क्षेत्र में साल 2001 में अगर 64.3 फीसदी घरों में टेलीविजन सेट्स थे तो आज 76.7 फीसदी घरों में यह दूरदर्शनी जादू का पिटारा मौजूद है. इस आंकड़े में यह भी जोड़ लें कि देश की युवापीढ़ी बड़ी तेजी से इंटरनेटी होती जा रही है. पंद्रह करोड़ से ज्यादा लोग इस देश में प्रतिदिन दो घंटे से ज्यादा का समय इंटरनेट की दुनिया में गुजारते हैं.
योजनाकारों के इस आंकड़े पर सबसे ज्यादा किसकी बांछे खिलती थीं? मुनाफा की माला फेरनेवाली कंपनियों की! उन्होंने मुहावरा रचा- आजादी का, जिद का, बदलाव का, दुनिया को मुट्ठी में कर लेने का और इसे मीडिया के चित्रपट पर रुपहली कथा के रूप में परोसना शुरू किया. इस कथा का घोषवाक्य था- ‘एक टके का कमाओ, कर्ज लेकर सौ टके का खाओ और ट्वेन्टी फोर इनटू सेवेन भोगमय समय में अहर्निश गदगद भाव से अघाओ!
कंपनियों को पता न था कि वे क्रांतिकारी मुहावरे रच रही हैं. उनके मुहावरे क्रांतिकारी साबित हुए, इस अर्थ में कि इन मुहावरे ने पहली बार इस देश में एक अधिकारचेतस् ग्राहक रचा. अधिकारचेतस् ग्राहक- जो खरीदी गयी चीज से अधिकतम संतुष्टी की अपेक्षा रखता है, ध्यान रखता है कि खरीदा गया सामान किस दुकान पर अपेक्षाकृत सस्ता मिलता है, मेरी जरूरत के अनुकूल बैठता है कि नहीं और मोल चुकाने के बाद सेवा और सामान वक्त की पाबंदी के साथ मुहैया होते हैं कि नहीं. कंपनियां सोच रही थीं, इस देश का युवा अधिकारचेतस् ग्राहक होकर रह जायेगा, लेकिन नहीं! अधिकारचेतस् ग्राहक के भीतर से ही एक नया व्यक्तित्व फूटा. नया युवा ग्राहक बनने के साथ-साथ नागरिक भी बना- अधिकारचेतस् नागरिक. और इस अधिकारचेतस् नागरिक ने अपने राज्य से बिल्कुल ग्राहक वाले अंदाज में सेवा और सामान की मांग करनी शुरू कर दी है.
कंपनियां कहती थीं बाजार की दुनिया में ग्राहक ही राजा है और ठीक इसी तर्ज पर युवा नागरिक चाहता है, कि राज्यसत्ता उसकी मांग के अनुरूप चले, अगर नहीं चल रही तो फिर राज्यसत्ता के केंद्र में स्वयंभू नागरिक को प्रतिष्ठित करने के लिए वह राजनीति को बदल देने के लिए उद्धत है. युवा-नागिरक अब सुधारों को नहीं मानता, वह आमूल परिवर्तन का हामी है. देश ने बीते दो सालों में बदलावों के आवेग को दम साधे देखा है. उस वक्त जब अन्ना दिल्ली में अनशन पर बैठे थे, लहराते हुए तिरंगे और देशभक्ति के फिल्मी गीतों के बीच युवा-आक्रोश शासन से पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग कर रहा था. उसे जंतर-मंतर और रामलीला मैदान में किसी पार्टी, घोषणापत्र या नेता ने नहीं बुलाया था. उसे बुलाया था अपने भीतर ही उठ रहे एक नैतिक आह्वान ने कि लोकतंत्र में शासन की धुरी स्वयं जनता होती है और मौजूदा शासन अपने नागरिकों की आकांक्षाओं से कटा हुआ है. भीतर से उठ रहे इस नैतिक आह्वान ने एक संदेश गढ़ लिया- जनलोकपाल का, एक चेहरा तलाश लिया अन्ना हजारे का और एक चेहरे, एक संदेश के बूते दिल्ली की गलियां सत्ता के गलियारों को चुनौती देने के लिए उठ खड़ी हुईं. यही हआ उस वक्त जब बेहतर जिंदगी की तलाश में दिल्ली पहुंचे एक पुरबिया परिवार की नौजवान लड़की गैंगरेप का शिकार हुई. युवा-आक्रोश देश की आधी आबादी के पक्ष में शासन को सतर्क और जवाबदेह बनाने की मांग करते हुए स्वत: स्फूर्त भाव से चहुंओर उठ खड़ा हुआ. इस बार तो अन्ना सरीखा कोई आंदोलनी चेहरा भी ना था- अगर कुछ था तो एक नाम- ‘निर्भया’ का. और इस नाम के भीतर से फिर एक नैतिक आग निकली कि शासन को अपनी जनता के प्रति तो जवाबदेह होना ही होगा.
आखिर को देश की नौजवान पीढ़ी ने देखा- उनका आह्वान राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सजावटी फेरबदल और कानून के नुक्तों के बीच फंस कर दम तोड़ रहा है. ठीक-ठीक एक अधिकारचेतस् ग्राहक की ही तरह स्वयंसेवी भाव से युवा पीढ़ी ने एक विकल्प गढ़ा- आम आदमी पार्टी का. चुनाव का पैसा सेवाभावी लोगों से हासिल चंदे का, चुनाव के प्रत्याशी सेवाभावी लोगों के बीच से, चुनाव का एजेंडा जनता की जरुरतों के आकलन पर आधारित जनसेवा का और सरकार अरविंद केजरीवाल की नहीं, बल्कि हम और ‘आप’ की. युवा-आक्रोश ने अपने दमखम से दिल्ली के बहाने पूरे देश को दिखाया कि नेता का असली मतलब जनता का सेवक होता है और लोकतंत्र में संप्रभुता शब्द के सटीक अर्थों में संसद के गलियारों में नहीं बल्कि गली-कूचो में रहने वाली जनता में निवास करती है. 2014 का आगाज युवा आक्रोश के युवा आकांक्षाओं में परिवर्तित होने की प्रक्रिया मजबूत होने के संकेत के साथ हुआ है. इन आकांक्षाओं को बाजार या राजनीतिक प्रभुओं के वर्ग द्वारा अपने हित में कंडीशन किया जाना अब मुमकिन नहीं दिखाई देता.

Friday 3 January 2014

आंकड़ों के दम पर नहीं, साख के भरोसे चलती है सत्ता

शुक्रवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के मीडिया से मुखातिब हुए. प्रधानमंत्री के तौर पर यह उनका महज तीसरा प्रेस-कांफ्रेंस था, जो यह जाहिर करने के लिए पर्याप्त है कि वह जनता-जनार्दन से संवाद को कितनी अहमियत देते हैं! एक ऐसे वक्त में जब देश लोकसभा चुनाव की दहलीज पर खड़ा है और पांच राज्यों के चुनावों में जनता ने यूपीए सरकार के प्रति अपना अविश्वास पुरजोर तरीके से जाहिर कर दिया है, अपने वक्तव्य और सवालों के जवाब के क्रम में प्रधानमंत्री ने साबित किया कि देश की सबसे पुरानी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस देश का मिजाज समझने में किसी नौसिखिये सी समझदारी का परिचय दे रही है. कम से कम पांच दफे प्रधानमंत्री ने दोहराया कि विपक्ष और जनता की राय भले मेरी अगुवाई में हुए काम के प्रति कड़ी रही हो, लेकिन देश का इतिहास और इतिहासकार कहीं ज्यादा उदारतापूर्वक मेरी भूमिका का आकलन करेंगे. अगर, राजनीति लोकधारणाओं पर आरूढ़ हो सही दिशा में सवारी करने का नाम है, तो कहना चाहिए कि प्रधानमंत्री ने प्रेस सम्मेलन के जरिये इस धारणा पर ही अविश्वास जताया. आश्चर्य नहीं कि प्रेस कांफ्रेंस के तुरंत बाद वरिष्ठ नेता शरद यादव की प्रतिक्रिया आयी कि प्रधानमंत्री जनता से संवाद कायम कर पाने में विफल साबित हुए हैं. प्रेस-कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री ने यूपीए की उपलब्धियां गिनवाते हुए अधिकारिता आधारित कानूनों, मसलन, आरटीआइ, आरटीइ और मनरेगा के नाम लिये. काश उपलब्धियां गिनाते वक्त वे यह भी बताते कि आरटीइ जिन वर्षो से लागू है, उन्हीं वर्षो में निजी स्कूलों में दाखिले का चलन बढ़ा है. स्कूली पढ़ाई का खर्चा कई गुना बढ़ा है और स्कूली पढ़ाई कम वेतन पानेवाले अप्रशिक्षित शिक्षकों के हवाले है. भ्रष्टाचार, महंगाई, पॉलिसी पैरालिसिस समेत ऐसे कई सवाल थे, जिनका जवाब देश की जनता अपने प्रधानमंत्री से चाह रही थी, लेकिन प्रधानमंत्री के पास इन सवालों पर कहने को कुछ भी नया नहीं था. ईमानदार स्वीकारोक्ति की बात तो छोड़ ही दीजिए! प्रधानमंत्री शायद राजनीति का यह पहला पाठ भूल गये कि सत्ता आंकड़ों के दम पर नहीं, साख के भरोसे चलती है. प्रधानमंत्री की प्रेस-वार्ता यूपीए की साख बहाली के लिए थी, मगर साख बहाली का संकेत दिये बगैर समाप्त हो गयी.