Tuesday 7 April 2015

उनकी मौत भी हमारे ‘जिल्ले इलाही’ को जगा नहीं पा रही

खुदा तो सिर्फ जीवन देता है, पालन-पोषण तो किसान करता है। दुनिया को पालने वाले किसान मौत को गले लगा रहे हैं और हम डिनर पर टीवी के सामने बैठकर क्रिकेट के छक्कों पर ताली बजा रहे हैं। हम टीवी फोड़ देते हैं, बरतन तोड़ देते हैं, सोशल साइट्स पर अनसोशल हो जाते हैं, हमारी देशभक्ति जोर मारने लगती जब हमारी टीम हार जाती है। लेकिन हमारा खून नहीं खौलता जब हमें डिनर कराने वाला जिन्दगी की जंग हार जाता है। हमारा अन्नदाता जब फांसी के फंदे को अपने गले का हार बना लेता है, हम चुप रहते हैं, फिर भी हम संवेदनशील कहे जाते हैं, कथित सभ्य भी। जिसने सबको बनाया और जो मौत और तकदीर पर नियंत्रण रखता है, उस खुदा को भी उस वक्त खून के आंसू निकल आते होंगे जब अन्नदाता काल के गाल में समा जाता है। भारत कृषि प्रधान देश है, किसान हमारे अन्नदाता हैं। इन सारे जुमलों को सुनकर अब हंसी छूट जाती है। गुस्सा आता है। खून खौलता है। सियासत से अदब की दोस्ती बेमेल लगती है, कभी देखा है पत्थर पे भी कोई बेल लगती है। कोई भी अंदरूनी गंदगी बाहर नहीं होती, हमें इस हुकूमत की भी किडनी फेल लगती है। सरकार में राज्य से लेकर केंद्र तक को देखें, इसे अलहदा ना समझें क्योंकि सत्ता का स्वरूप एक ही होता है। बेमौसम हुई बारिश के बाद जम्हूरियत की आंखें उम्मीदबर हैं और दिल बेचैन। जुबां खामोश हैं, पर जेहन में सवालों का शोर। बेमौसम बारिश और ओलों से यूपी से लेकर एमपी तक में किसान मौत को गले लगा रहे हैं लेकिन उनकी मौत भी हमारे ‘जिल्ले इलाही’ को जगा नहीं पा रही है। किसानों का इरादा जख्मों पर मरहम लगाने का है, लोग भी हर तरह ‘साहेब’ के मुंह से इमदाद सुनने को बेसब्र हैं। अपने उघड़े जख्मों पर मरहम लगाने की उम्मीद लगा रहे हैं, दवा तो नसीब नहीं हुई लेकिन मध्य प्रदेश के कलेक्टर साहेब ने उस पर नमक जरूर रगड़ दिया। डीएम साहेब आॅडियो स्टिंग में कह रहे हैं, हम तो तंग आ गए हैं रोज-रोज की.....जो मरेगा इसी की वजह से मरेगा क्या... इतने बच्चे पैदा किए तो टेंशन से प्राण तो निकलेंगे ही...पांच-पांच, छह-छह छोरा-छोरी पैदा कर लेते हैं...और आत्महत्या कर हमको बदनाम करते हैं..। ये टेक्नोलॉजी है कि साहेब पकड़े गए। वैसे कमोबेश हम सूबे के साहेब की यही सोच है। मन की बात के जरिए जम्हूरियत से सीधे संवाद कर रहे हैं हमारे जिल्ले इलाही लेकिन उनतक हमारे मन की बात को कौन बताए। जब बीच वाले साहेब की सोच यही है। प्रधानमंत्री ने कॉरपोरेट को सुरक्षा देने के लिए अपनी पूरी ‘स्किल’ लगा दी है। पूंजीपतियों ने इसे अपने ‘स्केल’ पर खूब सराहा है। किसानों के मरने की ‘स्पीड’ वैसे ही बनी हुई है। किसान मरता है तो मरने दो। बस गाय बचा लो। गाय धर्म है, वोट है, फिर सत्ता में आने का जरिया है। किसानों की मौत से संसद का सीना ‘दु:ख और दर्द से छलनी हो जाय’ यह हादसा क्यों नहीं होता! किसानों के जज्बात को, इज्जत से जिन्दा रहने की जिद को नए रास्ते क्यों नहीं मिलते, अभी तक मैं समझ नहीं पाया। मेरे बाबा जी अक्सर कहा करते थे कि उत्तम खेती, मध्यम बान, निखिद चाकरी भीख निदान. पूर्वांचल के लोग इस कहावत को अच्छी तरह से समझ जाएंगे। फिर ऐसा क्या हुआ कि सबका ‘दाता’ भिखारी बनता गया। मुल्क के हुक्मरानों को न केवल इस गहराती गई त्रासदी का पता था बल्कि काफी हद तक वे ही इसके लिए जिम्मेदार भी थे। इतनी बड़ी आबादी के खेती पर निर्भर होने के बावजूद किसानों को लेकर केवल राजनीतिक रोटियां सेंकी गईं, क्योंकि परिणाम नीति और नीयत की पोल खोल देते हैं। मुझे घिन आती है उस देश की व्यवस्था पर जिसके गोदामों में अरबों का अनाज सड़ जाता है पर सरकार भुखमरी के शिकार लोगों में वितरित नहीं करती? साहेब कोई किसान यूं ही नहीं मरता। उसे मरने पर मजबूर करती है आपकी व्यवस्था, उसे मारता है बेटी की डोली न उठ पाने का दर्द, उसे मारता है अपने बच्चे को रोटी नहीं दे पाने की कसक, उसे मारती है अपने दुधमुंहे बच्चे को दूध देने के लिए बनिये की दुकान पर मंगलसूत्र रखने को मां की मजबूरी, उसे मारती है हमारी और आपकी चुप्पी।

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