Sunday 27 April 2014

तीन सवालों के जवाब चाहिए

सोचिए कि 1991 से 1995 के हीरो डॉ मनमोहन सिंह 2014 में विलेन क्यों बन गये? वर्ष 2000 में भविष्य को लेकर जबरदस्त उत्साहवाले भारत के लोग आज हताशा में क्यों पहुंच गये? वर्ष 2002 में देश में बहुत ही खराब छविवाला व्यक्ति आज प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे योग्य व्यक्ति क्यों माना जाने लगा (जबकि उस समय उसकी अपनी पार्टी के बड़े नेता और तत्कालीन प्रधानमंत्री ने उसे राजधर्म का पालन करने में विफल करार दिया था)? सोचिए, इन सवालों पर गंभीरता से. तार्किक और तथ्यसंगत जवाब तक यदि आप पहुंच जाते हैं, तो यह समझने में कोई दिक्कत नहीं होगी कि इस चुनाव के बाद देश की दिशा क्या होने वाली है.
1991 में पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार बनी, तब अर्थव्यवस्था की हालत बहुत खराब थी. राव ने रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे और योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे डॉ मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया. उनको अर्थव्यवस्था को खोलने की पूरी छूट दी गयी. डॉ मनमोहन सिंह 1972 से 1976 तक वित्त मंत्रलय में मुख्य आर्थिक सलाहकार थे और 1976 में वह वित्त मंत्रलय में सचिव बने. 1982 में इंदिरा गांधी ने उन्हें रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाया और फिर 1985 में राजीव गांधी ने उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया. यानी नियंत्रित अर्थव्यवस्था के दौर में भी वह भारतीय अर्थव्यवस्था को दिशा देने वाले प्रमुख पदों पर रहे. इसके बाद वह 1991 से 1995 तक भारतीय अर्थव्यवस्था को खोलने में पूरी शिद्दत से जुट गये. उनकी छवि जबरदस्त बनी. उस दौरान लगभग हर विपक्षी नेता (लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, चंद्रशेखर, वीपी सिंह, देवीलाल, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, रामकृष्ण हेगड़े, एनटी रामाराव आदि) और दल उदारीकरण के विरोध में था, लेकिन डॉ मनमोहन सिंह की छवि इतनी मजबूत थी कि सभी आंदोलन धराशायी रहे और जब 1996 में जनता दल की सरकार बनी तो डॉ मनमोहन सिंह के शिष्य पी चिदंबरम को वित्त मंत्री बनाया गया जिससे अर्थव्यवस्था डॉ सिंह द्वारा निर्धारित राह पर ही चलती रहे. भाजपा की सरकार आयी तो यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह ने वित्त मंत्रलय संभाला क्योंकि ये लोग भी उदार अर्थव्यवस्था के हिमायती थे. 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार बनी और सोनिया गांधी ने उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया. लेकिन 1991 से 1995 के बीच अर्थव्यवस्था को उदारीकरण की राह पर डाल कर सर्वत्र प्रशंसा हासिल करने वाले डॉ मनमोहन प्रधानमंत्री के रूप में न सिर्फ सबसे कमजोर प्रधानमंत्री के रूप में सामने आये, बल्किअर्थव्यवस्था को कुव्यवस्था और लूट का शिकार बनाने के कलंक का टीका भी उनके माथे पर लगा.
अभी जान इलियट की भारत पर एक किताब आयी है. इस किताब का नाम है 'इम्प्लोजन - इंडियाज ट्रिस्ट विद रीयलिटी'. जान 80 के दशक में फाइनेंशियल टाइम्स के लिए दिल्ली से रिपोर्टिग करते थे. 1988 से 1995 के बीच वह हांगकांग में रहे और फिर दिल्ली आ गये. ऊपर दिये गये सवालों का जवाब तलाशने में उनकी यह किताब काफी मदद कर सकती है. वह लिखते हैं कि अस्सी के दशक में जब मैं दिल्ली में था तब भ्रष्टाचार कम था और 1995 में जब मैं दिल्ली आया तो मुङो उम्मीद थी कि उदारीकरण के बाद भारत की आर्थिक संभावनाएं जबरदस्त रूप से बढ़ चुकी होंगी, लेकिन मैंने भारत में एक ऐसा समाज और सरकार देखी जो आर्थिक उदारीकरण की राजनीतिक संभाव्यता और फायदों को लेकर आश्वस्त नहीं थी. हर स्तर पर नेता देश की संपत्ति के दोहन के नये तरीके पा चुके थे और उनके साथ थे लालची विदेशी और बड़ी-बड़ी भारतीय कंपनियां व बैंक. ये लोग अनुबंध, अनुमति और लाइसेंस पाने के लिए नेताओं की जेबें भरने को आतुर दिख रहे थे. जान लिखते हैं कि अस्सी के दशक में जहां भ्रष्टाचार के पक्ष में गॉसिप करने का रिवाज नहीं था, अब यह चीज आम थी. कुछ मंत्रलयों के वरिष्ठ अधिकारियों का नाम प्रमुख परियोजनाओं और वित्तीय अनुमतियों के साथ जोड़ा जा रहा था. भारत एक ऐसी जगह के रूप में उभर रहा था जहां हर सौदे के पीछे गैरकानूनी लेन-देन है, जहां नेता और ब्यूरोक्रेट देश की संपत्ति लूटने के लिए उद्यमियों के साथ गंठजोड़ कर रहे हैं, जहां कल्याण के बजट को गरीबों से दूर रखा जा रहा है, जहां जमीन से लेकर कोयला व जंगल जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर डाका डालने का काम चल रहा है जिससे ये लोग अपनी आनेवाली पीढ़यिों का भविष्य पारिवारिक राजनीतिक साम्राज्यों के जरिये सुरिक्षत रख सकें. जान ने जो लिखा है, इसे शायद ही कोई नकारे. याद करिए कि केंद्र में जब पहली भाजपा सरकार बनी थी तो प्रमोद महाजन ने मंत्री बनने के तुरंत बाद क्या किया था? देवेगौड़ा सरकार में सीएम इब्राहिम ने क्या किया था? बाद की सरकारों में क्या-क्या होता रहा, यह तो सबको याद ही है. किसी भी देश या समाज को विफल करने के कारकों में भ्रष्टाचार सबसे अहम होता है. सरकारी और निजी, दोनों ही सेक्टर मानने लगते हैं कि पैसे के दम पर ठेका तो हासिल कर ही सकते हैं और यदि कोई दिक्कत आयी तो उससे भी बाहर निकल सकते हैं. यह माहौल उद्यमियों, राजनीतिकों व नौकरशाहों की गाड़ी की ग्रीजिंग करता रहा. इसने देश के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर 2011 के पहले के आर्थिक बूम को जन्म दिया जो कृत्रिम था. इस माहौल ने अक्षमता और कमजोर प्रदर्शन की गाड़ी में भी तेल भरा. लेकिन 2011 में यह भांडा बड़े स्तर पर फूटना शुरू हुआ. नीरा राडिया, 2जी और कोयला घोटाले जैसे लाखों करोड़ के खेल सामने आये. सारा उत्साह ध्वस्त हो गया मिडिल क्लास का. कुछ नये लोग सामने आये इसके खिलाफ और साथ ही कुछ अतिबुद्धिमान लोग जो इस खेल में शामिल थे. वे बहुत ही महीन तरीके से इस पूरे माहौल के खिलाफ माहौल बनाने में लग गये. कारपोरेट्स व प्रोफेशनल्स की मदद से वे माहौल बनाने में न सिर्फ कामयाब रहे, बल्कि अपने को विकल्प के तौर पर भी दिखाने लगे. 

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